रिव्यू- राजस्थानी सिनेमा का गर्व, गौरव ‘नानेरा’
Featured In IMDb Critic Reviews
राजस्थानी सिनेमा को बनते हुए एक लंबा अरसा होने को आया। दो-चार फ़िल्मों के अलावा राजस्थानी फिल्मों के बारे में यहाँ की आम जनता ही कितना जानती होगी? तो आज जानिए आखिर क्यों है? राजस्थानी सिनेमा का गर्व, गौरव ‘नानेरा’। पिछले दो सालों में देश-विदेश के कई बड़े फिल्म फेस्टिवल्स में धूम मचा चुकी नानेरा फिल्म का रिव्यू लेकर आया है गंगानगर वाला….
एक ऐसा क्षेत्रीय सिनेमा जो अपने ही प्रदेश में लगभग लुप्त सा पड़ा हो अरसे से, जिस क्षेत्रीय सिनेमा को उसके अपने ही देखना तक पसंद ना करते हों तो दोष किसका है? सोचिएगा जरा…. क्या दोष फिल्मकारों का है? जिन्होंने अच्छी फिल्में नहीं बनाई? क्या दोष कलाकारों का है? जिन्होंने अच्छा अभिनय नहीं किया? या कमी निर्माताओं की है? जिन्होंने एक शुष्क प्रदेश के सिनेमा को भी शुष्क बना दिया? या दोष आप दर्शकों का है? जिन्हें बॉलीवुड का कचरा ही चखने की आदत पड़ गई है या हॉलीवुड की चकाचौंध में खोए उन युवाओं का है? जिन्हें अपनी ही क्षेत्रीय भाषा से लगाव खत्म होता जा रहा है?
यह भी पढ़ें – अच्छा फिल्म एडिटर बनना है तो अच्छी समझ का होना जरुरी ‘मयूर महेश्वरी’
पिछले एक-दो दशकों में भले एक-दो गिनी चुनी अच्छी फिल्में राजस्थानी सिनेमा में देखने को मिली। लेकिन उनका हश्र क्या हुआ कभी आपने यह जानने की कोशिश की? इंस्टाग्राम की भौंडी रील्स में खोए रहने वाली युवा पीढ़ी या कुछ धार्मिकता की चाशनी में डूबे रहने वाले अंकल-आंटियां धार्मिक रील्स देखने या उन्हीं धार्मिक रीलों को देखकर खुद को ज्ञानी समझने वाली आज की युवा पीढ़ी कभी सोच या समझ पाएगी कि राजस्थानी सिनेमा भी आखिर बन रहा है? या बनता रहा है? या ऐसी कोई क्षेत्रीय फिल्में भी इस सिनेमा जगत में स्थान रखती हैं?
“नानेरा” एक ऐसी राजस्थानी फिल्म जो पिछले एक-दो सालों से देश-विदेश के कई प्रतिष्ठित फिल्म फेस्टिवल्स में अपने कामयाबी के झंडे गाड़ चुकी है। यहां तक की उन फिल्म फेस्टिवल्स के नाम भी राजस्थान के ही फिल्मकारों को संभवत: पहली बार इस फिल्म के वहां प्रदर्शन होने और खबरें आने पर पता चला होगा। अगर ऐसा आपको पता चले तो इसमें भी कोई हैरानी की बात नहीं होनी चाहिए।
सबसे पहले कनाडा के ओइफा फिल्म फेस्टिवल में दिखाई गई इस फिल्म ने बेस्ट स्क्रीनप्ले का अवॉर्ड अपने नाम किया। इसके बाद तो जैसे अवार्ड्स की झड़ी ही लगा दी इस फिल्म ने। कोलकाता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट डायरेक्टर, जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल बेस्ट फिल्म, ज्यूरी स्पेशल और बेस्ट फिल्म ऑफ़ राजस्थान के साथ-साथ अजंता एलोरा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में बेस्ट स्क्रीनप्ले, बेस्ट डायरेक्टर, बेस्ट एडिटर, बेस्ट फिल्म फिप्रेसी ज्यूरी अवॉर्ड और बेस्ट फिल्म गोल्डन कैलासा जीतने वाली इस नानेरा फिल्म ने नेपाल इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ़ थ्रीसूर, इंडो जर्मन फिल्म वीक बर्लिन, इंडियन फिल्मफेस्टिवल ऑफ़ मेलबर्न सहित कई फिल्म समारोहों में अपनी धूम मचाई।
यह भी पढ़ें – राजस्थानी सिनेमा वेंटिलेटर पर है ‘निर्मल चिरानियाँ’
हद तो तब हुई जब साल 1935 से जारी फिप्रेसी (फिल्म समीक्षकों की विदेशी संस्था के भारतीय संस्करण) द्वारा इसे कांतारा और आर.आर.आर जैसी फ़िल्मों को पछाड़ते हुए टॉप 10 भारतीय फिल्मों में स्थान मिला। अब आप यहां हैरान हो सकते हैं कि कांतारा और आर. आर. आर जैसी फिल्में तो विश्वभर में चर्चा का विषय बनी रही लंबे समय मगर यह कैसी फिल्म है जिसकी कोई राजस्थान में भी चर्चा नहीं है।
तो दोष यहां भी पूरा आप दर्शकों का ही है जिन्होंने अपने ही शुष्क प्रदेश के सिनेमा को इतना शुष्क बना दिया कि वह चाहे कितने भी बड़े रिकॉर्ड बना ले मगर आपकी नजर में नहीं आ सकेगी। और तो और हद आप दर्शकों की तब हो जाती है जब कोई राजस्थानी फिल्म अपने राजस्थानी सिनेमा के इतिहास में पहली ऐसी फिल्म बन जाती है जिसे K5 इंटरनेशनल जैसी संस्था पहली बार विदेशों में प्रदर्शित करने का जिम्मा उठाती है।
अब तो थोड़ी शर्म कर लीजिए आप लोग की राजस्थान में कोई है जो “अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता” जैसी कहावतों को पूरी तरह झुठलाने में लगा हुआ है। अब तो आप थोड़ी शर्म कर लीजिए कि राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश से एक ऐसी फिल्म आई है जिसकी चर्चा फिल्म जगत में जरूर है लेकिन आप दर्शकों को खबर तक नहीं। राजस्थान के दर्शक राजस्थानी सिनेमा के लिए गूंगे,बहरे और अंधे हो चुके हैं। उन्होंने भी गांधारी की तरह अपनी आखों पर पट्टी बांध ली है की चाहे जो हो जाए हमें राजस्थानी फिल्में नहीं देखनी। इधर कुछ समय पहले आए एक ओटीटी स्टेज ने भले ही राजस्थानी सिनेमा को पुनर्जीवित करने की बातें की हों लेकिन उनकी भी कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर नजर आता है।
यह भी पढ़ें – ‘रीस’ में दिखेगा नया राजस्थान कहते हैं ‘पंकज सिंह तंवर’
अब आप कहेंगे कि मैं फिल्म का इतना बखान कर चुका हूं अब तक फिल्म की कहानी और उसके तकनीकी पहलूओं पर क्यों कुछ नहीं बोला। तो लीजिए पढ़िए….
एक लड़का मनीष जो अपने बाप के मरने पर अपनी मां और दादी के साथ नानी के घर आ गया है। नानी के घर आने और वहां से आगे की पूरी कहानी फिल्माए जाने के कारण ही इसका नाम भी “नानेरा” रखा गया है, यानी नानी का घर। अब यहां कुछ ऐसा हुआ कि नानी के घर में ही एक ओर मौत हो गई। किसकी मौत हुई? मौत के पीछे के कारण क्या रहे? उस लड़के का और उसकी मां और दादी का क्या हुआ? नानी के घर में उन्हें कैसा माहौल मिला? मनीष के जीवन से जुड़े फैसले उसके मामा क्यों ले रहे थे? प्रेम, मृत्यु, मन, देह यही सब इस फिल्म में दीपांकर ने बतौर निर्देशक उकेरा है।
मात्र दो लाइन की कहानी वाली इस फिल्म की अगर वही दो लाइन लिख दी जाएं तो फिर आपको कहानी ही जब पता चल जाएगी तो आप फिल्म ही भला क्यों देखेंगे। फिल्म तो संभवत: सेंसर बोर्ड ने भी ठीक से नहीं देखी होगी इसलिए उसे ऐसी नेशनल अवॉर्ड पाने लायक फिल्म को सेंसर सर्टिफिकेट देने तक में परेशानी हो रही है। ऐसी फिल्मों को पुरुस्कारों से भर दिया जाना चाहिए। ऐसी फिल्मों को नेशनल अवॉर्ड निर्विरोध दिया जाना चाहिए। ऐसी फिल्मों के निर्माताओं और इसके निर्देशक दीपांकर प्रकाश जैसों को गले से लगाया जाना चाहिए। क्योंकि ऐसे ही निर्देशक यदि मुठ्ठी भर भी राजस्थान में पैदा हो गए तो राजस्थानी सिनेमा की तूती भी जल्द देश दुनिया में बोलने लगेगी इसमें कोई दो-राय नहीं।
दीपांकर प्रकाश बतौर निर्देशक इससे पहले मूसो, मसक्कली, क्राइम नेक्स्ट डोर, नेकेड वॉइस जैसी शॉर्ट फिल्में, वेब सीरीज बना चुके हैं। कुछ विज्ञापन इत्यादि भी बनाने वाले दीपांकर प्रकाश के निर्देशकीय हाथों में वह जादू है जो आपको सम्मोहित करने का दम रखता है सिनेमा के माध्यम से।
नानेरा एक ऐसी फिल्म है जिसके तमाम अभिनेता-अभिनेत्रियां अपने अभिनय को इतना सहज तरीके से प्रस्तुत करते हैं कि आपको लगता है जैसे फिल्म की कहानी सचमुच में आपके सामने ही घटित हो रही है। निकिता वर्मा, संचय गोस्वामी, दिनेश प्रधान, अल्ताफ हुसैन, अनिता प्रधान, बबिता मदन, गरिमा पारिक, उषा श्री, रमन मोहन कृष्णात्रेय, चंचल शर्मा, योगेश तिवारी, राजेश थाडा, गजेंद्र श्रोत्रीय, विनोद भट्ट इत्यादि सभी मिलकर ऐसा अभिनय आपके सामने रखते हैं जिसे देखकर आप इस कहानी को सच में घटित होते हुआ पाते हैं अपने ही सामने।
निर्माता गुलाब सिंह तंवर, आशा धर्मेंद्र गौतम, नवीन गर्ग, मनमोहन सिंह, हनी शर्मा, अनिरुद्ध सिंह तंवर जैसे निर्माताओं को सलामी दीजिएगा कि वे राजस्थान जैसे शुष्क प्रदेश के शुष्क सिनेमा पर अपना पैसा लगाकर जोखिम भरा काम कर चुके हैं। इस फिल्म के लिए सिनेमैटोग्राफी करने वाले पुनीत धाकड़, साउंड रिकॉर्ड करने वाले आकाश भालिया, साउंड डिजाइन करने वाले शशांक कोठारी, उम्दा एडिटिंग करने वाले मयूर तेला, प्यारा, मोहक म्यूजिक और बैकग्राउंड देने वाले अभिषेक जैन जैसी तकनीकी टीम की जितना हो सके पीठ थपथपाई जानी चाहिए।
इस फिल्म का निर्देशन करने वाले निर्देशक दीपांकर प्रकाश ने स्क्रीनप्ले भरत सिंह के साथ मिलकर जो लिखा है, उसका ही यह कमाल है कि फिल्म आपको एक पल के लिए भी हिलने का मौका नहीं देती। ‘झंडो भैंरूनाथ को’ फॉक सॉन्ग सुनने में अच्छा लगता है लेकिन फिल्म का एकमात्र दुष्यंत का लिखा गाना ‘देह की गठरी’ अमन कुमार टाक की आवाज में कर्णप्रिय लगता है। असल में पूरी फिल्म में कई जगह मोंटाज का इस्तेमाल और इस गाने से पूरे राजस्थानी सिनेमा की गठरी भी अकेले दीपांकर प्रकाश अपने सिर पर लेकर घूम रहे हैं। आँखें खोलिए, देखिए और खुद को जगाने का प्रयास कीजिए। वरना देखिएगा कहीं देर ना हो जाए और ऐसे निर्देशकों को भी आप खो दें जो राजस्थानी सिनेमा के इतिहास में वो लकीर खींच चुके हैं जिसे अब मिटा पाना किसी के बस में हाल के दौर में संभव नहीं नजर आता।
जागिए इसलिए भी ताकि आप खो ना दें ऐसे निदेशकों को और देखिए वे कहीं हिंदी सिनेमा की ओर रुख न कर जाएं व्यथित होकर। जागिए इसलिए भी की कहीं देर ना हो जाए हिंदी सिनेमा के उस फिल्म के निर्देशक की तरह जिसके दुनिया से जाने के बाद लोग यही कहते रहे कि फिल्म की असफलता ने उसे मार दिया। जागिए इसलिए भी की कहीं कोई और शैलेंद्र जैसा फिल्मकार अपना हश्र वो ना कर बैठे जो “तीसरी कसम” के बाद हुआ। अब तो इस मुगालते से बाहर आपको आना ही होगा। नहीं तो “नानेरा” आपको लेकर आएगी और दिखाएगी, बताएगी कि ‘राजस्थानी सिनेमा का गर्व, गौरव ‘नानेरा’ ही आखिर क्यों है?
अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार
♥️♥️♥️-
एक सटीक और सार्थक रिव्यू भाई जी आपने दिया .
राजस्थानी सिनेमा को लेकर जो बात आपने की अच्छा लगा .
शुक्रिया आपका
शुक्रिया साहब
उम्दा फिल्म जैसा काम वैसा रिव्यू