रिव्यू: ‘तांडव 2’ पर्दे पर बिलखता राजस्थानी सिनेमा

आज देश अपने गणतंत्र के 75 वर्ष पूरे कर 76 वें वर्ष में प्रवेश कर गया है और दूसरी तरफ राजस्थानी सिनेमा भी इतना ही पुराना होने के बावजूद आज भी पर्दे पर बिलख रहा है वजह जानिये- तांडव 2 के रिव्यू से कि क्यों आखिर क्यों और कब तक पर्दे पर बिलखता रहेगा राजस्थानी सिनेमा!
एक प्रेमी जोड़ा, एक विधवा और एक विधवा का प्रेमी, दो कबीले आपस में एक दूसरे के दुश्मन। अब इस कहानी को पर्दे पर या कागजों में कोई फैलाए तो कितनी अच्छी कहानी बन सकती है न? लेकिन नहीं राजस्थानी सिनेकारों को फिल्म जब तक देखनी नहीं आएगी तब तक वे फ़िल्में भी ऐसी ही बनायेंगे।

खून-खराबा बंद करना है तो शिवा, देवगढ़ को सौंप दो क्योंकि लालगढ़ और देवगढ़ दोनों को खून की होली खेलने में मजा आता है। एक कबीले में विलेन जागीरा है जो मक्कार और धूर्त है दूसरी तरफ शिवा है जिसने अपने परिवार तक को कुर्बान कर दिया प्रेम के पीछे। एक लड़की के पीछे पड़ा उसी कबीले का एक दस्यु जो लड़की के पीछे इस कदर बौराया हुआ है कि जब वह कहता है- थोड़ा घास हमें भी डाल दिया कर आदमी हूं थारो तब महसूस होता है कि दर्शक भी कोई यहाँ के फिल्मों को घास नहीं डालते तो लड़की क्यों डालने लगी भला! दूसरी तरफ एक दस्यु जोरावर शिवा की जान का दुश्मन बना हुआ है। फिल्म के कैरेक्टर्स पर्दे पर कई बार ऐसे आते हैं जैसे अचानक से कोई देवता प्रकट हो रहे हों। एक तरफ एक लड़का भैरो जो मंजरी से ब्याह करना चाहता है पर अनाथ है वो और एक विलेन जो बात-बात पर पितृ देवताओं को लोगों की बलि दे रहा है।

फिल्म की कहानी को कायदे से फैलाया जाता तो यह अच्छी लगती लेकिन जितने इसकी स्क्रिप्ट में छेद नजर आते हैं उसके चलते यह चाह कर भी दिल में नहीं उतर पाती। इस गणतंत्र दिवस पर एक संविधान यहां के सिनेकारो के लिए भी लिख ही दिया जाना चाहिए। जिसमें उन्हें सिनेमा नहीं बनाने कि कसमें खिलाई जानी चाहिए। वरना पर्दे पर खून भले ही गुलाबी नजर आये किंतु असल में वह महसूस कराता है कि यहां के सिनेकारों का खून सफेद हो चुका है। हालांकि यह फिल्म कई दिन पहले पर्दे पर उतर जानी जानी थी लेकिन कई बड़ी हिंदी और साउथ कि फ़िल्में आने कि वजह से यह आज रिलीज हुई है।
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जिस तरह फिल्म की कहानी में गौरी शिवा की लुगाई ही नहीं पूरे गांव की इज्जत है। उसी तरह सिनेमा का पर्दा भी सिनेमा बनाने कि तकनीक और उसके लिखने की कला के चलते सिने…माँ कि इज्जत है। यह बात आखिर कब इन्हें समझ आएगी? तीन गानों में से शुरुआती दो गाने सुनने में अच्छे लगते हैं। लेकिन जब गांव वालों के पास ट्रैक्टर है पर विलेन लोग पैदल ही पहाड़ पार कर रहे हैं तो समझ जाना चाहिए कि पर्दे का पहाड़ भी यहाँ के सिनेकार पैदल ही चलकर पार करेंगे। अब वे पैरों से पैदल चलकर करें या दिमाग से भी पैदल चलकर हमें क्या?

बंदूके होने के बाद भी हाथों से कुश्ती भले ही कलाकार करते रहें लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब किसी फिल्म में एक सौ पच्छतीस कलाकारों में से ढाई कलाकार ही अच्छा काम कर रहे हों और स्क्रिप्ट में इतने छेद हों कि जब लड़की जगीरा से कहे बिलखती हुई छोड़ दे हमें तो आप दर्शक भी कह उठते हैं बिलखते हुए कि हमें भी छोड़ दो हमें अपने घर जाना है।
रूढ़िवादी परम्पराओं पर प्रहार करती हुई इस फिल्म का पहला भाग जब आज से करीब 10-11 साल पहले 18 मई 2014 को रिलीज किया गया और उसके बाद फिर से उसे साल 2017 में पर्दे पर उतारा गया तभी समझ जाना चाहिए था कि तांडव 2 के लिए एडवांस में बुक हुई 7 लाख रूपये की टिकटों को आंकड़ों में दर्ज कराने के लिए कैसे बिलखे होंगे इसे बनाने वाले। कायदे से गणतंत्र दिवस पर रिलीज हुई यह फिल्म उस आज़ादी के जश्न में भी खलल डालती है जिसे पाने के लिए हमारे देश के लोगों ने खून बहाया था।

कहानी लिखने से लेकर निर्देशन और अन्य तमाम तकनीकी पहलूओं में जब फिल्म इतनी पिछड़ जाती है कि दर्शक कई देर तक यही सोचता रहे कि कहानी क्या थी तो यह सन्देश है उन सिनेकारों के लिए कि अब हमें बख्श दिया जाए। हम मान चुके हैं कि आप कभी अच्छा राजस्थानी सिनेमा दे ही नहीं पाएंगे। पूरी फिल्म में उट-पटांग एक्शन सीन और सारी लड़ाइयाँ पानी में भी इसलिए ही लड़ी गई हैं कि इसे बनाने वाले भी चाहते हैं कि दर्शक लोग इसे बनाने वालों के साथ उसी चुल्लू भर पानी में डूब मरें। आखिरकार यहाँ के सिनेकारों को भला कब शर्म आएगी या वे अपनी सब शर्मो हया बेचकर ही सिनेमा बना रहे हैं और यहाँ के सिनेमा का अंत करके ही दम लेंगे? कायदे का एक विलेन था तुम्हारे पास सिकंदर चौहान जिसने अपने दम से कुछ बेहतर कर दिखाया किन्तु मजाल है कि बतौर विलेन आप उनकी पूरी प्रतिभा का फायदा उठा पाते?
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