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राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश

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तेजस पूनियां

भारतीय परम्परा ख़ास तौर से हिन्दू धर्म में एक रीत है किसी की भी मौत हो जाने पर 12 दिन किए जाते हैं और तेरहवीं के दिन बाकी के क्रियाकर्म। लेकिन कुछ लोग अब इस परम्परा को भुला रहे हैं किसी के पास इतना समय नहीं संभवतः इसलिए ही तो तीसरे ही दिन सब खत्म करके लोग दीन-दुनिया में मस्त हो जाते हैं कि जैसे कोई उनके बीच से कम हुआ ही नहीं।

यही हाल एक क्षेत्रीय सिनेमा का भी अब हो चला है। जी हां मैं बात कर रहा हूं राजस्थानी सिनेमा की। ऐसा नहीं है कि हमारे यहां का सिनेमा इतना बुरा है या था। एक अतीत था जिसे हम स्वर्णिम पलों के तौर पर याद करते हैं, ठीक अपने रिश्तों की तरह। और एक होता है वर्तमान ठीक उन रिश्तों की तरह जिन्हें हम संजोकर कर रखते हैं। सिनेमा के साथ भी यही है और होना भी चाहिए। पर बात जब भविष्य की हो तो रिश्तों में भविष्य नहीं देखा जाता है किंतु सिनेमा के भविष्य की अवश्य बातें होती हैं।

राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश
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राजस्थानी सिनेमा का अतीत बेहद सुंदर और चर्चा योग्य रहा है तो वहीं वर्तमान अपने कब्र की ओर दस्तक दे रहा है। ऐसे में यहां के सिनेमा के भविष्य की बातें करना निर्मूल, निराधार है। हालिया दौर में ओटीटी और पर्दे को मिलाकर करीब करीब तीस-चालीस फिल्में देने वाला यह क्षेत्रीय सिनेमा ओटीटी पर ज्यादा परोसा जा रहा है और पर्दे पर तो सालों में किसी फिल्म को कोई पर्दा नसीब हो पाता है।

अब बात इस शोक संदेश को लिखने की करूं तो यहां रिलीज होने वाली फिल्मों में “खोटो सिक्को” साल 2010 में आई यह फिल्म वर्तमान के राजस्थानी सिनेमा का आधार बनाकर देखी जाए तो यह साल 1942 में नजराना के बाद पहली फिल्म थी जिसे “मारवाड़ी” के रूप में सेंसर सर्टिफिकेट मिला था। उसके बाद आई बाईसा राणाराज, जय आवरी माता, हाट, माटी का लाल मीणा गुर्जर, महर करो पपलाज माता, लाड़ो, मरुधरा री शान, फौजी की फेमिली, चूंदड़ी ओढासी म्हारो वीर, भोभर, भंवरी, दंगल, एजुकेटेड बीनणी, फौजी की फेमिली, हुकुम (राजस्थान के 70 से अधिक सिनेमाघरों में एक साथ रिलीज हुई पहली राजस्थानी फिल्म), मरुधर म्हारो घऱ, टांको भ़ीड गयाे, तांडव, पगड़ी, लाडली, कजराली नख़राली, शंखनाद, म्हारी मायड़, रीति, वचन, नानेरा, मजो आ गयो, भरखमा, नुचवाणा, 1869, अंगूठो, आटा साटा, मुकलावो, नमक जैसी ढेरों पर्दे और ओटीटी की फिल्में आईं।

राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश
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ओटीटी पर तो कई वेब सीरीज भी आईं लेकिन फिर भी यहां के आम दर्शकों को जानकारी ही नहीं कि राजस्थानी सिनेमा बन भी रहा है। ये तो भला हो उन सिनेकारों का जिन्होंने अपने दम पर कुछ फिल्में पर्दे पर परोसी तो कुछ उन ओटीटी वालों का भला हो जिन्होंने कम से कम एक मंच प्रदान किया। लेकिन मजाल है कि अपने मियां मिट्ठू बनने वाले और एक दूसरे की झूठी तारीफें करने वाले यहां के सिनेकार पर्दे पर कुछ अच्छा इसलिए परोस सकें कि राजस्थानी सिनेमा को दर्शक नसीब हो सकें।

राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश
राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश

हाल में आयोजित हुए जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भी एक फिल्म “छूमंतर” दिखाई गई किन्तु मजाल है कि यहां के तथाकथित सिनेकार कभी कुछ सीख पाएं और अच्छा करने की कोशिशें करें। मैं हजारों दफा यहां के सिनेमा को तरक्की करते देखने के नाते अपने लिखे में नरमाई बरतता रहा किंतु जब कठोरता अपनानी शुरू की तो इन्हें नागवार गुजरने लगी मेरी बला से।

सिनेमा बनाना अपने आप में कला है और जब कला का अपमान होने लगे तो सिने शैदाई होने के नाते कलेजे पर सांप तो लौटेंगे ही। अंतिम विदाई करने का अब समय यहां के लिए बीत चुका है। मेरा विक्रम वेताल जैसा हाल हो चुका है। मैं हर बार एक उम्मीद के साथ फिल्म देखने लगता हूं लेकिन विक्रम की भांति उस मुर्दे बेताल को ढोते हुए पाता हूं।

इस कहानी में विक्रम राजा बड़े ही न्याय-प्रतापी थे। तीनों लोकों में उनका न्याय सर्वश्रेष्ठ माना जाता था और बेताल का जो पेचीदगियों से भरा प्रश्न होता था वो न्याय आधारित ही होता था इसी कारण सभी उनके न्याय को सुनने के लिए उत्सुक रहते थे लेकिन जैसे ही वे उत्तर देते, बेताल उत्तर सुनने के बाद हवा में उड़के भाग जाता क्योंकि विक्रम न बोलने की शर्त तोड़ देते। यहां एक और परेशानी थी कि बेताल कहानी के अंत में राजा विक्रम से कहता यदि तू मेरे प्रश्न का उत्तर जानते हुए भी नहीं बताएगा तो मैं अपने योगबल से तुम्हारे सिर के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा। विक्रम बाध्य हो जाते क्योंकि उन्हें उत्तर ज्ञात होता था।

यदि विक्रम चाहते तो बेताल की कहानियों से अपना ध्यान हटा सकते थे जिसके फलस्वरूप वे कहानी ठीक से नही सुन पाते और उनको उत्तर भी पता नही होता साथ ही न बोलने की शर्त भी नहीं टूटती परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि विक्रम जानते थे बेताल बहुत ज्ञानी हैं उसकी कहानियों में अनेक ज्ञान की बातें छिपी हैं। इस कारण वे बेताल की कहानियों को बड़े गौर से सुनते थे।

राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश
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बस यही हाल कुछ अपना है मैं भी अपनी मां बोली के सिनेमा राजस्थानी सिनेमा की अर्थी को ढोते समय मैं राजा विक्रम और दर्शक की भांति मानवीय श्रम तन, मन, धन, संवेदनशीलता का गुण होने के बावजूद मैं कायदे से सिनेमा की उस बेताल सरीखी अर्थी को ढोते हुए चल रहा हूं। एक दर्शक के समय और उसके सिनेमा के प्रति भरोसे की मैय्यत का शोक जो पिछले कुछ सालों से राजस्थान में राजस्थानी सिनेमा के नाम पर किया जा रहा है यह उसी का शोक संदेश है। जिस तरह लाखों प्रयास कर लेने के बाद भी यहां की भाषा को मान्यता न मिल सकी और न कभी मिल पाएगी संभवतः हूबहू वही हाल राजस्थानी सिनेमा का भी हो चला है।

यहां का सिनेमा रूपी बेताल मुझे ही नहीं आम सुधी दर्शक को धोखा देकर चला जाता है। तो वहीं बतौर समीक्षक और दर्शक मैं भी निराश हो जाता हूं। एक दर्शक के भांति भले ही मैं राजस्थानी सिनेमा पर कुछ लिखता रहूं किंतु यहां के सिनेमा के लिए मेरे भीतर का समीक्षक अब उस अर्थी के बोझ को ओर सहन नहीं कर पा रहा है।

कोई है जो इस अर्थी को फूंक डाले और हमें लौटा सके हमारा वह सिनेमा जिस पर हम कभी गर्व करते थे। यहां के सिनेकारों को ले देकर जो रीत रिवाज़ और कुरीतियां फिल्मों की कहानी के रूप में नजर आती हैं काश उन्हें इस मरुस्थल से वो कहानियां भी मिल सकें कभी जिनमें यहां की वीरता, शौर्य, पराक्रम और हॉरर, लोक सिनेमा, संस्कृति, आम राजस्थानी की दास्तान या बिज्जी की लिखी कोई कहानी नजर आए

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3 Comments

  1. सीखना एक सतत् प्रक्रिया है और जब लोगों में यह सीखना की प्रक्रिया रुक जाती है तो उसका अवसान निश्चित ही है। यही हाल राजस्थानी सिनेमा का हो चुका है।

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