रिव्यू: गूलर के फूल नहीं कांटे हैं।

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दद्दा- मनी प्लांट लगाये से पईसा आ जात है?… पगला हो? जितना बड़का-बड़का बिजनेसमैन है, फ्रॉडगिरी किया है सब वो विदेश काहे भागता? यहीं कहीं कोने में मनी प्लांट का खेती करता, पानी डालता, पईसा उगाता। जब दो पड़ोसी आपस में बंजर खेत में यह बात करते हैं तो उस मध्यमवर्गीय समाज की सोच पर तरस आने लगता है, जो मनी प्लांट लगाकर पईसा, समृद्धि आ जायेगी जैसे ख़्यालातों के बीच पल रहे हैं।

ठीक ऐसे ही साल 2017 में आई ‘कड़वी हवा’ फ़िल्म में जब क्लास के सब बच्चे एक लड़के की शिकायत करते हुए कहते हैं कि मास्टर जी, यह कह रहा है कि साल में सिर्फ दो ही मौसम होते हैं-गर्मी और सर्दी। तब मास्टर जी पूछते हैं-बरसात का मौसम कहां गया? तब एक बच्चे से ही जवाब मिलता है-‘मास्साब, बरसात तो साल में बस दो-चार दिन ही पड़त…!’ यह सुनकर भले ही सब बच्चे हंस पड़े हों और उधर थिएटर में हँसी फैल गई हो लेकिन फ़िल्म के उस हल्के-फुल्के सीन में जितना बड़ा और कड़वा सच छुपा था वही अरुण मित्र निर्देशित ‘गूलर के फूल’ में भी है, कायदे से ये गूलर के फूल नहीं कांटे हैं जो नश्तर कि भांति चुभते हैं कहीं भीतर, गहरे।

ठीक ऐसे ही फ़िल्म Goolar ke Phool का एक और सीन है जहाँ हवा बेचने, महंगाई, किसानों के लिए सीमित दाम जैसी बातें भी हैं, जिन्हें भले ही आप हँसी में उड़ा दें किन्तु नजर अंदाज नहीं कर सकते। हाल के आर्थिक हालातों को देखें तो यह फ़िल्म उन हालातों पर भी करारा प्रहार करती है। एक और सीन देखिए जहाँ संजय मिश्रा और अशोक पाठक बात कर रहे हैं। जमीन क्या दे रही है?… बेच दो ससुरी को!… माँ है जमीन… माँ की कोख़ तो बंजर हो गई दद्दा। माँ कभी बंजर नहीं होती है हम सबका दिमाग़ आजकल बंजर हो गया है।
जब क़ायदे से चुन-चुन कर एक-एक मारक संवाद किसी फ़िल्म में हो तो उसकी लम्बाई भले ही छोटी हो किन्तु सिनेमा का स्वरूप विस्तृत और घना हो जाता है। कोलकाता इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में बेस्ट फ़िल्म का अवार्ड जीत चुकी और जयपुर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में स्पेशल ज्यूरी मेंशन जीत चुकी इस फ़िल्म का फेस्टिवल सफ़र इतना तो तय है कि अभी और लंबा होगा किन्तु जब भी जहाँ भी देखने का अवसर लगे ऐसे सिनेमा को देखने से चूकना नहीं चाहिए।
संजय मिश्रा और अशोक पाठक अपने अभिनय के अंदाज से फ़िल्म को जो उंचाईयॉं देते हैं उससे यह फ़िल्म कायदे से सिनेमा के उस तख़्त पर जा बैठती है जहाँ इसे ढेरों ताज पहनाये जायेंगे। अरुण मित्र ने बतौर निर्देशक जिस कसी हुई स्क्रिप्ट के साथ कसे हुए निर्देशन से अपनी यह पहली ही शॉर्ट फ़िल्म बनाई है उससे साफ़ पता चलता है कि यह एक संजीदा फ़िल्मकार है।

एडिटिंग, साउंड, बीजीएम, कलरिंग आदि सभी विभाग कहानी, अभिनय, निर्देशन से तालमेल बैठाते हुए जब सामने आते हैं तो वे ‘गूलर के फूल’ कहलाते हैं। इस फ़िल्म का नाम भले ही गूलर के फूल हो लेकिन इसे देखते हुए उन फूलों के साथ लगे हुए कांटे भी चुभते हैं। कायदे से यह पूरी फ़िल्म ही चुभती है इतनी की इसकी चुभन आपको लम्बे समय तक अहसास कराती है। यह फ़िल्म सिखाती है कि सिनेमा को कैसा होना चाहिए, सार्थक सिनेमा देखने की आदत हो तो इसे मिस नहीं किया जाना चाहिए। जिस तरह गूलर के फूलों को देखना बहुत दुर्लभ माना जाता है ठीक वैसी ही ये फ़िल्म है इसलिए खोजिए और देखिए।
अपनी रेटिंग… 4.5 स्टार