रिव्यू- ‘सन् 84 जस्टिस’ करती है!
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सन 84 जस्टिस करती है! साल 2021 में कुछ चुनिंदा सिनेमाघरों में आकर चली गई इस फिल्म को कोई ख़ास तवज्जो नहीं मिली यही वजह रही कि यह अब जाकर अमेजन प्राइम पर आई है। पढ़ें गंगानगर वाला पर और फैसला करें इसे देखना है या….
31 अक्टूबर 1984 दिल्ली में तत्कालीन प्रधानमंत्री की हत्या कर दी गई है। जिसके चलते पूरे देशभर में आक्रोश और तनाव का माहौल पसर गया है। हिंसा से सबसे अधिक प्रभावित इलाके पंजाब में सिखों को चुन-चुनकर मारा जा रहा है। स्थानीय नेताओं ने आम लोगों को सिखों के विरुद्ध भड़काना शुरू कर दिया है। करीब 8 हजार लोग हताहत हो गये किंतु दस्तावेज बताते हैं हताहतों की संख्या 3500, अब क्या ही फर्क पड़ता है कितने भी लोग हताहत हुए हों। सबसे अधिक असर पड़ा तो इंसानियत और मानवता पर नहीं!
एक सिख परिवार का बच्चा किसी की फरमाइश पर गाना सुना रहा है सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा! फिर से एक और फरमाइश पर वह कहता है- ए वतन तुझसे ना पूछूं क्या किया मेरे वास्ते/ मेरे खून का कतरा-कतरा तेरे वास्ते। अपने निम्न मध्यवर्गीय परिवार को पूरी तरह खो चुके पाँच साल के बच्चे से जब आप यह सुनते हैं तो आपका दिल पसीज जाता है।
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कहानी है एक ऐसे पंजाबी सिख परिवार की जो मुश्किल से अपना पेट पाल रहा है। घर का मुखिया गुरफ़तेह अपने छोटे भाई, बीवी समेत तीन बच्चों को चावल बेचकर जैसे-तैसे पाल रहा है। उसकी कमाई पूरी नहीं पड़ती तो बाकी के सदस्य भी छोटा-मोटा काम कर उसका हाथ बंटाते हैं। जब गुरफ़तेह के एक दोस्त ने उसे कमाई के लिए चावलों में मिलावट करने को कहा तो वह अपनी ईमानदारी के चलते ऐसा नहीं कर सका। लेकिन उसे उसकी इस ईमानदारी का सिला क्या मिला? वह तो आप अमेजन प्राइम पर आई इस फिल्म को देखकर खोजिए।
84 के सिख दंगों को लेकर साहित्य, सिनेमा में बहुत कुछ अपने-अपने ढंग से कहा-लिखा जा चुका है। हर चौथे इंसान के पास कहने को 84 से जुड़ी कई कहानियाँ हैं। लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं की वे सब उठकर फिल्म बनाने लगें या किताबें लिखने लगें?
संदीप कुमार राणा लिखित एवं निर्देशित इस फिल्म में (टी जैसी उम्दा फिल्म निर्देशित करने वाले) जितेश कुमार परिदा के साथ मुजीब उल हसन सहायक निर्देशक की भूमिका में हैं। लेकिन सवाल तो तब उठता है जब जितेश कुमार के प्रोड्क्शन हाउस से बन कर आई लगभग एक ऐसी फिल्म जो न केवल हल्की दिखती है बल्कि साथ ही कुछ नया नहीं दिखाती। बेहद साधारण सी इस कहानी को साधारण से बजट के साथ फिल्माया भी बेहद साधारण गया है। ऐसी फ़िल्में जितना अधिक मार्मिक होकर अपने माज़ी के हादसों को प्रकट करें उतना ही वे निखार पाती हैं।
कुछ कर गुजरने की प्रेरणा देती ‘टी‘
कुछ हद तक ठीक-ठाक अभिनय के चलते और कुछ एक उम्दा सीन के चलते यह फिल्म एक बार देखने लायक तो बनती है किंतु इसमें ऐसा भी कुछ ख़ास नहीं कि यह आपको देखने के लिए विवश कर दे। हालांकि इसे लिखते-फिल्माते समय इसके लेखक-निर्देशक थोड़ा शोध कर लेते तो वे अपनी इस फिल्म से ही सही कुछ जस्टिस तो दंगों में मारे गए उन सिखों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में दिखा ही सकते हो सकती थी। आशीष सहदेव, मनोज बक्षी, समर्थ तनजीत सिंह, रणवीर सिंह, फलक चोपड़ा, जितेश कुमार परिदा, विपिन सिंह आदि मिलकर इस फिल्म को अपने अभिनय से एक बार देखने लायक बनाते हैं।
बाकी तो म्यूजिक, कैमरा, लोकेशन, सेट्स, मेकअप, बैकग्राउंड स्कोर, सिनेमैटोग्राफी आदि सभी विभागों में कुछ कमियाँ तो कुछ अच्छी बातें भी हैं। बावजूद इसके कई सारे कमीशन और कमिटी की फिल्म के अंत में रिपोर्ट पेश करने वाले इसके निर्माता, निर्देशक मारवाह कमीशन 1984, मिश्रा कमीशन 1985, ढिल्लन कमिटी 1985, कपूर मित्तल कमिटी 1987, जैन बनर्जी कमिटी 1987, जैन अग्रवाल कमिटी 1990, नानवती कमीशन 2000, माथुर कमिटी 2014 को ही कायदे से सिरे के साथ जोड़कर पढ़ लेते तो वे नि:संदेह इसे और बेहतरीन तथा नए ढंग से पेश कर सकते थे।
अगर आप भट्ट कैम्प की डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर आई बकवास फिल्म नहीं देखना चाहते तो इस फिल्म को देखकर कुछ पल के लिए ही सही 84 के दंगों को फिर से जी लीजिएगा, क्योंकि उनके साथ तो जस्टिस हुआ या नहीं किंतु इस फिल्म को देखकर आप जरुर जस्टिस दिला सकते हैं ऐसी छोटे बजट की फिल्मों को देखकर इनके निर्माताओं-निर्देशकों को।
अमेजन प्राइम पर आई इस फिल्म को इस लिंक से देखा जा सकता है।
अपनी रेटिंग…. 2.5 स्टार
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