इंटरव्यू

काला कलिकारन एक क्रांतिकारी फ़िल्म है- अजय ब्रह्मात्मज

 

सवाल –  रजनीकांत दक्षिण भारतीय सिनेमा में भगवान माने जाते हैं उनकी हालिया रिलीज फ़िल्म काला जो बहुजन, आदिवासी आदि को केंद्र में रखकर है। साहित्य की तरह आम जनमानस में जागृति ला सकेगी?

अजय ब्रह्मात्मज – पहली बात ये कि फ़िल्म आदिवासी नहीं बहुजन केंद्रित है और दूसरा किसी भी ऐसे बड़े मुद्दे का फ़ायदा एकदम से नहीं हुआ करता। फ़िल्में उत्प्रेरक का कार्य हुआ करती है। लेकिन वे किसी आंदोलन का बायज़ बने या उसका ज़रिया हो यह जरूरी नहीं। और रजनीकांत अवश्य ही दक्षिण भारतीय सिनेमा में अपना एक अलग मुक़ाम रखते हैं। जिसके लिए आपने उन्हें भगवान कह ही दिया है।

सवाल –  फ़िल्म के निर्देशक पा रंजीत भी अम्बेडकरवादी हैं तो कितनी सशक्तता से इस फ़िल्म में वे उनके सिद्धांतों के साथ न्याय कर पाए हैं।

अजय ब्रह्मात्मज – पा रंजीत मेरे हिसाब से भारतीय परिवेश में अकेले ऐसे निर्देशक हैं जो एकदम स्पष्ट और बेलाग तरीके से अपनी बात रखते हैं।  इससे पहले कबाली जैसी फिल्में उदाहरण हैं। काला फ़िल्म में उन्होंने रजनीकांत के स्टारडम का भी भरपूर उपयोग किया है  और मेरे ख़्याल से रजनीकांत ने दिमाग में भी फ़िल्म करते समय/ उसकी शूटिंग के दौरान आदि तमाम जगह इस बात को ध्यान में रखा होगा कि वे क्या बोल रहे हैं। कभी कभी वे अपने अनुभव से भी बहुत कुछ बोल जाते हैं। जिसके लिए वे अवश्य बधाई के पात्र हैं। फ़िल्म दरअसल धारावी की कहानी है। जहाँ तमिल लोग आकर बसे हैं और उनके अधिकारों पर वे बात करते हैं। दक्षिणपंथी झंडे के ख़िलाफ़ वहाँ के लोग लड़ाई लड़ते हैं, विजय हासिल करते हैं और इसी में वे लामबंद भी होते हैं। यहाँ से देश के बहुजन को देखा जा सकता है। फ़िल्म सच में अम्बेडकर के सिंद्धान्तों का पालन करती दिखाई देती है और यही बात उसे हिट भी बना सकती है।

सवाल – इस फ़िल्म का बहुजन भारत के निर्माण में आप क्या योगदान देखते हैं?

अजय ब्रह्मात्मज – जैसा कि मैंने पहले भी कहा कोई भी फ़िल्म से किसी ऐसे बड़े मुद्दे को फ़ायदा नहीं दे सकती और न ही उसका तुरंत प्रभाव पड़ता है। वह उसके लिए उत्प्रेरक का काम अवश्य कर सकती है। ये सब धीमी आँच पर पकाने वाली चीजें हैं। केवल दूध उबालने से काम नहीं चलेगा। जिसका शासन में प्रभुत्व है आज के समय उसी तर्ज पर यह फ़िल्म भी है। बहुजन मुस्लिम दोस्ती को समूल नष्ट करने के जो प्रयास हैं और हमारे भारतीय समाज में राम, रावण के जो मिथक हैं। जिसमें हम पले,बढ़ें हैं। यहाँ फ़िल्म में उसका एकदम उल्टा है। यहाँ रावण अपने लोगों के साथ प्रतीकात्मक रूप में दिखाई पड़ता है और धारावी जैसी जगह शासनाधिकारियों के लिए सोने की लंका। राम उस सत्ता के प्रतीक ही बनकर फ़िल्म में आते हैं जो उन लोगों को खत्म करने कोशिश में है। एक बात और दक्षिण भारत में रामायण में रावण नायक के रूप में माना गया है। दूसरी तरफ उत्तर भारत में जैसे दुर्गा आदि को देवी स्वरूप और महिषासुर को खलनायक में माना गया है तो दक्षिण में इसका उल्टा है। तो किसी एक फ़िल्म से भारत निर्माण में योगदान आप नहीं माप सकते किंतु यह उस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम अवश्य है।

 

सवाल – इससे पहले शुद्र द राइजिंग स्टार, हासिल, बैंडिट क्वीन जैसी बहुजन फिल्में बनी हैं उन सबसे यह फ़िल्म किस तरह भिन्न है?

अजय ब्रह्मात्मज – जमीन की लड़ाई मानव सभ्यता के आरम्भ से है। इस फ़िल्म में काला और सफेद रंग प्रतीक है। जिसमें खलनायक जो वास्तव में काला नहीं है उसके कपड़ों का , गाड़ी का, घर का यहाँ तक की कालीन का रंग भी सफेद है किंतु उसकी करतूतें काली है। फ़िल्म में वह एक जगह पूछता भी है। काला क्या नाम है? दरअसल काला रंग मेहनत का और मजदूर का रंग है जिसे ही यहाँ दर्शाया गया है। फ़िल्म के क्लाइमेक्स में लाल और काला रंग आपस में जो मिक्स होता है वह उसे अन्य फिल्मों से भिन्न बनाता हैं । वैसे तो पूरी फिल्म अपने आप में भिन्न है और जिन्होंने जे इस फ़िल्म को नहीं देखा है उन्हें यह फ़िल्म अवश्य ही देखनी चाहिए। इस फ़िल्म को देखने के लिए मैं अपनी तरफ़ से जरूर कहूँगा की इसे आमजन को जरूर देखा जाना चाहिए।

सवाल – हिंदी सिनेमा में सवर्णवादी सिनेमा और दलित आधारित सिनेमा की बहस पर आपके क्या विचार हैं? आप किसी ज्यादा बेहतर मानते हैं समाज के लिए?

अजय ब्रह्मात्मज – यह एक आर्ट फॉर्म है।  हर सोच के लोगों को खारिज करेंगे तो डेमोक्रेसी नहीं रहेगी न । जिस तरह देश में डेमोक्रेसी है उसी तरह फिल्मों में भी डेमोक्रेसी होनी चाहिए। उसे इस तरह की बहस में बांधने से उसकी क्रिएटिविटी में डेमोक्रेसी खत्म हो जाएगी। दूसरी बात हिंदी सिनेमा वैसे भी खास क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता रहा है। आज तक जितनी भी फिल्में आईं हैं सभी में अमूमन हीरो खन्ना, चोपड़ा, मल्हौत्रा आदि ही होते हैं। अपवाद स्वरूप चौधरी आदि भी बहुत सी जगह देख सकते हैं।  आजकल वैसे देखा जाए तो इसमें भी पंजाबी कल्चर हावी होता जा रहा है, अभिनेता और उनके किरदार भी पंजाबी में बात कर रहे हैं और ये एक तरह से हिंदी सिनेमा को खराब करने वाली ही बात होगी।

सवाल – हिंदी की मुख्यधारा की फिल्मों में अब ऐसी कहानी और तेवर क्यों खत्म हो रहे हैं जबकि रजनीकांत को देखने वाले हिंदी भाषी भी बहुत संख्या में है जो उनको सुपरहीरो बनाते हैं।

अजय ब्रह्मात्मज- पहली बात तो ये कि बेहतर और बदतर कुछ नहीं होता। हिंदी सिनेमा  में किसी की हिम्मत नहीं ऐसी कहानी और तेवर दिखाने की अभी तक उसके लिए इंतजार है। एक बात यह भी की काला फ़िल्म राजनीतिक फ़िल्म भी है जबकि हिंदी सिनेमा में राजनीतिक फिल्में पूर्ण रुप से नहीं बनती। यह इतना मुखर रुप दक्षिण की फ़िल्म में ही देखने को मिल सकता है। काला कलिकारन एक क्रांतिकारी फ़िल्म है। जिसके लिए रजनीकांत के साथ साथ पा रंजीत भी उतने ही बधाई के पात्र हैं। मैं एक बार पुनः इस बात को दोहराना चाहूँगा की ऐसी क्रांतिकारी फिल्मों को सिने प्रेमी ही नहीं अपितु प्रत्येक आदमी द्वारा देखा जाना चाहिए।

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गंगानगर वाला

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