‘नायरा रंगारी’ गोद ली हुई बाल कलाकार
‘नायरा रंगारी’ गोद ली हुई बाल कलाकार। प्रेमचंद पथ साहित्य एवं जनचेतना के लिए प्रतिबद्ध इस त्रैमासिक पत्रिका के जुलाई-सितम्बर 2024 अंक में छत्तीसगढ़ की बाल-कलाकार पर लिखा गया यह लेख अब गंगानगर वाला पर पढ़ सकते हैं आप।
तेजस पूनियां
फ़िल्में कला जगत का वह माध्यम है जो समग्र समाज और उसके परिवेश, संस्कृति इत्यादि को गहराई के साथ चित्रित करने के साथ ही संपोषित भी करती है। पिछले अपने सौ वर्षों से अधिक के समयांतराल के बाद से सिनेमा कई दौर से गुजरा है, जिसे सिनेमा के कई इतिहासकारों ने कलमबद्ध किया है। सिनेमा ने बच्चों की भी अपनी एक अलग दुनिया बसाई अपनी कहानियों के माध्यम से, जिसमें उनका बाल मन सामाजिक धरातल की भांति भावुकता और संवेदनशीलता के साथ हमेशा चित्रित किया गया। बालमन की मानसिकता को देखते हुए ही संभवत: बच्चों को मूल्य आधारित मनोरंजन देने के इरादे से हमारे आज़ाद देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने 11 मई, 1955 को बालचित्र समिति की स्थापना की।
हमारे सिनेमा ने राजकपूर से लेकर आमिर खान तक से बच्चों के मनोविज्ञान को केंद्र में रखकर फिल्मों का निर्माण किया। जिसमें उन फ़िल्मों ने सिर्फ मनोरंजन ही नहीं किया बल्कि उनकी अनेक समस्याओं की तरफ भी समाज का ध्यान आकर्षित करवाने में महती भूमिका अदा की। बालमन को आधार बना सबसे पहले साल 1954 में फ़िल्म आई जागृति, जिसमें बच्चों को परम्परागत तरीके से पढ़ाई करने के तरीके से हटाकर व्यवहारिकता के आधार पर पढ़ने की एक नई सोच विकसित करने की प्रेरणा दी गयी। इसके बाद अब दिल्ली दूर नहीं, बूट पॉलिश, नन्हें- मुन्ने, काबुलीवाला, दोस्ती, समय की धारा, पिहू, परिचय, किताब, तूफान और दीया, मासूम, मिस्टर इंडिया, मकड़ी, ब्लू अम्बरेला, बाईसिकलडेज, तारे जमीं पर, भूतनाथ, थैंक्स माँ, पाठशाला, बम बम भोले, चिल्लर पार्टी, स्टेनली का डब्बा, आई एम कलाम, नन्हे जैसलमेर जैसी फिल्मों ने हमें कई बाल कलाकार दिए जिन्होंने न केवल बच्चों के दिलों के तारों को झनकाया बल्कि साथ ही बड़ों को भी उनके प्रति व्यवहार करने की एक सीख अवश्य प्रदान की।
शायद यही वजह रही कि हमारे विभिन्न क्षेत्रीय सिनेमा ने भी बच्चों को कम समय के लिए ही चाहे पर्दे पर रखा किन्तु उनके सहारे से उन्होंने अपनी कहानी की नाव को आगे खेकर ले जाना ही उचित समझा। बॉलीवुड के इतर क्षेत्रीय सिनेमा को देखें तो हमें छत्तीसगढ़ के सिनेमा को भी याद करना होगा, जहाँ आज के समय की बाल कलाकार नायरा रंगारी जिसे उसके माता-पिता ने किन्हीं वजहों से त्याग दिया उसे धीरज रंगारी ने गोद लिया और उसे अपना नाम देकर पालना शुरू किया। नायरा की प्रतिभा को देखते हुए धीरज और उनकी पत्नी ने उसे स्कूल भेजने के साथ-साथ फ़िल्मों में काम करने के लिए भी प्रेरित किया।
छत्तीसगढ़ के दुर्ग की नायरा रंगारी बेहद कम समय में हॉलीवुड फ़िल्म तक में काम करके हाल ही में लौटी हैं। एक बातचीत में नायरा बताती है कि- उसे फ़िल्मों में काम करने का कोई कीड़ा नहीं लगा बल्कि यह तो उसका जुनून था जिसने उसमें फ़िल्मों में ला खड़ा किया और फिर कब वह फ़िल्मी का कीड़ा बन गई उसे भी पता नहीं चला। मात्र 8-9 साल की नायरा अपनी स्कूली पढ़ाई के साथ-साथ डांस, स्टोरी टेलिंग भी बखूबी करती नजर आती हैं। हालांकि नायरा अपनी पढ़ाई से कभी गुरेज नहीं किया। हालांकि नायरा पढ़ाई में औसत ही रही है जिसकी वजह भी कई बार शूटिंग रही। नायरा बताती है कि- शूटिंग के चलते स्कूल में कई दफ़ा वे पूरे साल में 40 प्रतिशत ही उपस्थिति दर्ज करवा पाती है।
इस बाल कलाकार को सबसे अधिक सहयोग अपने संगीत प्रेमी पिता धीरज से मिलता रहा है तो वहीं कई बार नायरा की माँ उस पर पढ़ाई ना कर पाने को लेकर भी नाराज होती नजर आती हैं। पीहू उर्फ़ नायरा को पहली बार ठाकुर की बेटी का रोल करने के लिए मिला, जो राज महल में रहते हुए जंगल जाती है और बालपन की हरकतें करती नजर आती हैं। नायरा के पिता धीरज चाहते हैं कि उनकी यह गोद ली हुई बेटी आगे जाकर खूब नाम कमाए और एक्टिंग स्कूल से ही अपना ग्रेजुएशन पूरा करे।
नायरा हालांकि स्टोरी टेलिंग जरुर करती है किन्तु उसने खुद से बतौर लेखक कुछ नहीं लिखा है। हाँ एक बार किसी पढ़ी हुई कहानी को वह आसानी से धारा-प्रवाह सुनाने में माहिर है। जिसके चलते ही नायरा का नाम सबसे युवा स्टोरी टेलर होने का इंडिया बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज हो चुका है जिसमें अब तक महज मात्र 5 साल 11 माह की उम्र में सबसे छोटी स्टोरी टेलर होने का गौरव नायरा ने हासिल किया है। बतौर बाल कलाकार नायरा का अपना फेवरेट बाल किरदार तारक मेहता का ‘टप्पू’ है। बड़ी होकर नायरा खुद को मुख्य किरदार में देखने की इच्छा भी जाहिर करती हैं तो साथ ही छत्तीसगढ़ के सिनेमा की दुर्दशा को लेकर उसके पिता कहते हैं कि यहाँ फ़िल्में सिर्फ चना-मुरमुरा की तरह बन रही हैं फिर कुछ अच्छे निर्माताओं का भी बेहद अभाव है। बावजूद इसके नायरा को छत्तीसगढ़ी फिल्मों के निर्देशक धज्जू जी के साथ काम करके अच्छा लगा। यह फ़िल्म भी उनकी जल्द ही रिलीज होने वाली है।
इस नन्हीं बाल कलाकार को सिर्फ़ अभिनय का शौक ही नहीं बल्कि यह फ़िल्में भी बड़े चाव देखती हैं। वे बताती हैं कि हाल में उन्होंने ‘लापता लेडीज’ देखी और इससे पहले ‘छोटा भीम’ देखकर भी काफ़ी उसने सीखा। मात्र दो साल और एक माह की गोद ली हुई इस नायरा के सपने अपने अभिनय से फ़िल्मों में कुछ अच्छा कर दिखाने को लेकर भी जुड़े हैं। नायरा जैसे और बहुत से बाल कलाकारों को केंद्र में रखकर फ़िल्मों का निर्माण तो होता ही आया है, संभवत: भविष्य में भी होता रहेगा किन्तु यहाँ बाल फ़िल्म निर्देशिका देवयानी अनंत, जिनकी पिछले दिनों आई फ़िल्म ‘बाईसिकल डेज’ ने काफी चर्चा बटोरी का एक बातचीत में यह कहना भी उचित है कि- भारत जैसे देश में बाल सिनेमा बहुत ज्यादा सराही जाती हैं लेकिन वे ज्यादातर फ़िल्म फेस्टिवल्स में या फिर किसी बड़े निर्माता, निर्देशक जो किसी नामचीन अभिनेता, अभिनेत्री को लेकर बनाते हैं तभी वे ज्यादा चर्चित हो पाती हैं। छोटे बजट का बाल सिनेमा या स्वतंत्र निर्देशकों द्वारा बनाई गई फ़िल्में कई बार दर्शकों तक नहीं पहुँच पाती हैं। देवयानी यह भी स्वीकार करती हैं कि बहुत से लोगों द्वारा आज भी बाल सिनेमा को लेकर उदासीन रवैया अपनाया जा रहा है। जब कोई निर्माता, निर्देशक बच्चों के लिहाज से सोचकर फ़िल्म बनाता है तो वह उनके भरपूर मनोरंजन का भी पूरा ख्याल रखता है। यहाँ हमें देवयानी की इस बात को भी समझना होगा कि बाल सिनेमा दो तरह से हमारे सामने आता है- एक जिसमें बच्चा मुख्य भूमिका में होता है। दूसरी वे फ़िल्में होती हैं जिसमें भले बच्चा मुख्या भूमिका में हो किन्तु फिर भी वे अपनी कहानी के चलते बच्चों पर अच्छा प्रभाव डाल पाने में नाकामयाब होती हैं। वे कहती हैं कि दूसरी ओर ऐसे भी बहुत से लोग हैं जो चाहते हैं बच्चों के लिहाज से अच्छा सिनेमा बने। हालांकि ओटीटी के आने से बहुत से बदलाव भी आये हैं लेकिन हमें उसमें भी देखना होगा कि वे नकारात्मक प्रभाव बच्चों पर ना डालें क्योंकि कोई भी बच्चा हो वह अपने आस-पास से बहुत कुछ सीखता है जिसमें सिनेमा भी एक कारण है। अच्छे बाल सिनेमा के लिए जरूरी है सभी का उनके लिए जागरूक होना। वरना तो बच्चे कार्टून और विदेशी फ़िल्में ही देखते रह जायेंगे। समाज, परिवार, सरकारें सबके साझे प्रयास से ही इसमें सुधार लाया जा सकता है। ऐसी फ़िल्में बच्चों के साथ-साथ बड़ों के लिए भी बहुत अहमियत रखती हैं।
वर्तमान दौर की ‘लार्जर देन लाइफ’ और उसके आकर्षण ने बच्चों के सिनेमा को एनिमेशन या आभासी दुनिया तक सीमित जरुर कर दिया है फिर भी नायरा जैसे कलाकार उसे जीवंत रखे हुए है।