रिव्यू- जातीय ख़्वाबों की तामीर बुनती ‘यस सर’
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दलितों पर हिंदी पट्टी के निर्माताओं, निर्देशकों के अलावा अन्य भाषी निर्देशकों ने भी खूब फ़िल्में हमें दी हैं। अछूत कन्या, सुजाता, सारपट्टा परंबरै, परियेरम पेरुमल, असुरन, फैन्ड्री, सैराट, कर्णन, अन्ने घोड़े दा दान, आर्टिकल 15, 200 हल्ला हो आदि सैकड़ों फ़िल्में हमें देखने के लिए दी हैं, जिन्होंने दलितों के प्रति आपके मन में संवेदनाएं जगाईं। लेकिन ‘यस सर’ फिल्म किन जातीय ख़्वाबों की तामीर बुनती है चलिए देखते हैं-
कलियुग आ गया है, ब्राह्मणों को नीचों के झूठे बर्तन धोने पड़ रहे हैं। सुअर तो हमारे बच्चे हैं, हमारी लक्ष्मी है। धंधा क्या गंदा, क्या छोटा, पैसा छोटा-बड़ा होता है। गधे-घोड़े सब बराबर। यह संवाद है अजय नावरिया की लिखी कहानी ‘यस सर’ के और सीन है इसी कहानी पर बनी फिल्म के भी।
दलितों पर हिंदी पट्टी के निर्माताओं, निर्देशकों के अलावा अन्य भाषी निर्देशकों ने भी खूब फ़िल्में हमें दी हैं। अछूत कन्या, सुजाता, बूट पॉलिश, सदगति, जय भीम, सारपट्टा परंबरै, परियेरम पेरुमल, असुरन, फैन्ड्री, सैराट, कर्णन, पलासा 1978, काला, जैत रे जैत, अन्ने घोड़े दा दान, आर्टिकल 15, 200 हल्ला हो जैसी सैकड़ों फ़िल्में हमें देखने के लिए दी हैं। जिन्होंने दलितों के प्रति आपके मन में संवेदनाएं जगाईं और सदियों से दमित की जा रही इस जाति के प्रति आपके दिल को नर्म किया।
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यहाँ याद कीजिए असुरन फिल्म के एक संवाद को- अगर हम खेत रखेंगे, तो वो उन्हें हड़प लेंगे। अगर हमारे पास पैसा होगा, तो वो उसे छीन लेंगे लेकिन अगर हमारे पास शिक्षा है, तो उसे हमसे कोई नहीं छीन सकता। बस इसी शिक्षा के उजाले को अजय नावरिया ने कहानी लिखते वक्त हल्की सी तस्वीर से दिखा जरुर दिया किन्तु जब यह फिल्म की शक्ल में ढाली गई तो यह जातीय ख़्वाबों की तामीर बनुते हुए नजर आई। जिसमें ‘एक वर्ग’ के प्रति ना दया भाव उपजता है तो ना ‘दूसरी’ के लिए घृणा पैदा होती है। यही इस फिल्म की खासियत है कि एकदम तटस्थ भाव से यह अपनी बात कहती है और क्लाइमैक्स के साथ उस पानी को उतरते देखती है जिसे सदियों से जातियों के द्वारा ढोया जा रहा है।
फिल्म में दलित जाति का एक पात्र बड़े पद पर बैठा है वहीं दूसरी ओर जाति में उससे बड़ा उसी दफ्तर में एकदम निम्न पद पर काम कर रहा है। बड़ी जाति को छोटी जाति से हमेशा एक किस्म की घृणा रही है और वह उस हर जाति को निगल लेना चाहता है ठीक जैसे बड़ी मछली छोटी को। लेकिन हमारे यहाँ बरसों पहले संत कबीर कह गये हैं- जात न पूछो साधु की पूछ लीजिए ज्ञान।
क्या होगा अब कहानी का अंत? क्या यह जातियों के प्रति आपके दिल को नर्म करेगी? क्या सचमुच तिवारी जाति के दंभ में चूर उस दलित को मार डालने की कोशिश करेगा? कैसे वह अपनी जाति की रक्षा करेगा? क्या वह भी कबीर की पंक्ति के नक्शे कदम पर चल पायेगा? कलाकार मुकेश भट्ट, सोनू आनंद, विकास प्रसाद सोमानी, हिमांशु रावत, विनीत आहूजा आदि मिलकर कहानी में मिले अपने-अपने पात्रों को अभिनय तथा भावों से छूते नजर आते हैं। मुकेश भट्ट, सोनू आनन्द के कन्धों पर टिकी यह फिल्म आपको तटस्थ भाव से जातीय ख्बाबों की तामीर बुनने का अवसर देती है। जिसमें कोई विलेन भी है तो कोई हीरो भी लेकिन ये आम हिंदी फिल्मों कि तरह नजर नहीं आते बल्कि एक साहित्यिक और गूढ़ नजर से इन्हें देखने के लिए अम्बेडकर का चश्मा पहनने की जरूरत पड़ती है।
हाल में आयोजित कुछ फिल्म फेस्टिवल में प्रदर्शित की गई यह फिल्म अभी फेस्टिवल्स की यात्रा कर रही है। ‘तस्वीर एशियन फेस्टिवल’, ‘गोवा शॉर्ट फिल्म फेस्टिवल’, ‘साउथ एशिया फिल्म फेस्टिवल’, ‘लिफ्ट ऑफ ग्लोबल नेटवर्क’, ‘अयोध्या फिल्म फेस्टिवल’, ‘जयपुर इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल, दादा साहब फाल्के इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, कोलकता इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आदि तमाम फेस्टिवल्स में घूमने के बाद जब भी कहीं रिलीज हो तो देखिएगा।
कुछ ख़ास विशेष बौद्धिकवर्गों को लुभाने वाली इस फिल्म के निर्देशक जब अम्बेडकर के माध्यम से यह बता, दिखा रहे हों कि जाति एक धारणा है और यह मन की एक अवस्था है तो इसे समझना भी चाहिए। हजारों-हजार बार साहित्य और सिनेमा आपको एक ही बात अलग-अलग तरह से दिखा बता चुका हो और देश आपका आज़ादी का अमृतमहोत्सव बना चुका हो तब भी उस देश की जातीय मानसिकता ना बदले तो दोष इन फिल्मकारों, साहित्यकारों का नहीं आपके संस्कारों का है। आपके उस खून का है जिससे आप जन्में हो।
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फिल्म के लेखक,निर्देशक मुदित सिंघल ने साल 2012 में छपी इस कहानी को फिल्माने में इतनी देर क्यों लगाई? यह तो वही जानते हैं। लेकिन जिस तरह से उन्होंने इसे फिल्माया है वह एक कहानी का सबसे अच्छा उदाहरण है स्क्रीन पर उतारने के रूप में। सिनेमैटोग्राफर शैलेंद्र साहू, एडिटर अर्नोल्ड स्वामी, बैकग्राउंड म्यूजिक और सॉन्ग रजत तिवारी, साउंड रोहन मार्क डी’सूजा, मेकअप अंकिता उपाध्याय, कैमरामैन आदि सभी के काम में कसावट नजर आती है। फिल्म के अंत में रजत तिवारी की आवाज में ‘जात न पूछो साधु की’ लुभाता है। यह फिल्म आपको उस स्तर पर ले जाकर छोड़ने का दम रखती है जहाँ से आप जातीय मानसिकता को बदलते हुए, जातिगत मैल को धुलते हुए तटस्थ भाव से उन ख़्वाबों की तामीर बुनने में लग जाते हैं जहाँ किसी तरह की कोई जाति ना रहे।
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