रिव्यू- समाज के निचले तबके को झांकती ‘मोरया’
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सारपट्टा परंबरै, सैराट, जय भीम, फेंड्री, असुरन, काला, आर्टिकल 15, परियेरम पेरूमल, कर्णन, पलासा, जैत रै जैत, अन्ने घोड़े दा दान जैसी सैकड़ों फ़िल्में जब हरिजन समुदाय पर आकर चली जाएं और जब-जब उन्हें मात्र सराहा जाए हकीकत कुछ ना बदले तब-तब बनती है समाज के निचले तबके को झांकती ‘मोरया’।
दलितों की कहानी को नए-नए कलेवर और ढंग से हमारी सिनेमा इंडस्ट्री ने हर भाषा में कहा है। बावजूद इसके आजाद भारत के 75 साल गुजर जाने पर भी फिल्म लेखक, निर्देशक ‘जितेंद्र बर्डे’ को मोरया क्यों बनानी पड़ी होगी? वजह है चाहे जितनी फ़िल्में जितनी मर्जी भाषा में बना ली जाएं, चाहे जितने मर्जी साहित्यकार अपने लेखों, कहानियों में सच्ची और काल्पनिक कथाओं के माध्यम से हमें लाख समझाने की कोशिश करें, चाहे बाबा साहब अम्बेडकर के लिखे संविधान पर टिकी इस देश की बुनियाद हो किंतु ये सब सच है कि आज भी दलितों, पिछड़ों, हरिजनों के प्रति वे सब आपके दिलों को नरम नहीं कर पाए हैं।
सीताराम जेधे महाराष्ट्र के एक गांव का आदमी जिसे सब लोग मोरया कहते हैं। मोरया गांव की सफाई का काम करता है। मरे हुए कुत्ते उठाता है, लोगों के मल-मूत्र में उतरता है। उसी मोरया से जब एक बार उसका बेटा सवाल करता है कि बापू तू ये सब क्यों करता है? तो उसकी मां जवाब देती है क्योंकि मोरया मतलब बप्पा। बप्पा भी सबके दिमाग की गंदगी साफ करता है और तुम्हारा बाप गांव की इसलिए लोग उसे मोरया कहते हैं।
सफाई करने वाले, मैला ढोने वाले और हर गंदा कह सकने वाला काम करने वाले सीताराम जेधे की एक ही ख्वाहिश है कि वह भगवान के चरणों पर अपना माथा टेकना चाहता है। उसकी ख्वाब है कि जिस काम को उसकी पीढ़ियों ने किया वह उसके बेटे को ना करना पड़े। वह चाहता है कि उसका बेटा अपनी नीची जाति होने का दंश ना झेले। लिहाजा वह लगातार ईश्वर से शिकायतें करता है कि उसे आखिर इस जाति में क्यों पैदा कर दिया। इससे अच्छा होता उसे कुत्ता, सांप या गाय बना देता।
खैर अब देखना ये है कि सरपंच बनने पर भी मोरया आखिर ये सब कर क्यों रहा है? किसके कहने पर कर रहा है? या किसी के इशारे पर उससे करवाया जा रहा है? या सच में उसकी जिंदगी बदल गई है सरपंच बनने के बाद? क्या वह अब ऊंची जाति में शामिल हो गया है? या कुछ भी उसकी जिंदगी में नहीं बदला? इतना ही नहीं यह फिल्म किन्नरों के एक सीन से आपको उनके भी मन की बात बताती है। यह फिल्म राजनितिक गलियारों में चलने वाली कूटनीतियों की भी बात करती है।
मराठी भाषा में बनी और पिछले दो सालों से कई बड़े फिल्म समारोहों में सराही, सम्मानित हुई यह फिल्म किसी बड़े फिल्म निर्देशक ने नहीं बनाई है और ना ही इसमें कोई बड़ी नामी स्टार कास्ट है। लिहाजा यह संभव है कि ऐसी फ़िल्में आप तक पहुंचे ही ना कायदे से। लेकिन पहुंच भी गई तो ऐसी फिल्मों को देखना कौन चाहेगा? जिसमें स्टार्स नहीं, जिसका धुंआधार प्रमोशन नहीं हुआ। क्या आम आदमी के जीवन के अपने दुःख कम हो गए जो वे जाति का दुःख देखने परदे पर जाएंगे?
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यह है सार्थक सिनेमा। यह है अच्छे सिनेमा की पहचान। ऐसा सिनेमा जो आपकी आंखों से सुना जा रहा है और कानों से जिसे आप देखकर अपने भीतर कुछ बदलता हुआ पा रहे हैं। लोकेशन, एक्टिंग, पटकथा, संगीत, बैकग्राउंड स्कोर, लोकेशन आदि हर क्षेत्र में आपको यह फिल्म छूती है। और न केवल छूती है बल्कि आपकी आंखों को कई जगह नम भी करती है। आपकी भौंहें ऐसी फिल्में देखकर तन जानी चाहिए की आज भी इस देश में ऐसे लोग हैं जो लाख कोशिशों के बाद भी आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं।
यह फिल्म समाज के उस निचले तबके को झांकती है जिसने इस देश की नींव को मजबूत बनाए रखने में कोई कसर नहीं रखी। निर्देशक जितेन्द्र बर्डे के निर्देशन, अभिनय, लेखन के अलावा तमाम कलाकारों का अभिनय आपको जब हकीकत लगने लगता है तो ऐसी फ़िल्में अपने आप सार्थक हो जाती हैं। और समाज के निचले तबके को झांकते हुए कब आपके दिल में उतर जाती है ऐसी फिल्में आप सोच भी नहीं सकते।
मराठी, हिंदी, तमिल, तेलुगु और कन्नड़ भाषा में एक साथ बनकर तैयार हुई इस फिल्म को जिस भी भाषा में आप देखने में सहज हों देखिए और अपने आप को बदलिए ऐसे सिनेमा को देखकर। सच तो यह भी है कि यह फिल्म शिक्षा, जाति, धर्म, राजनीति आदि जैसे कई पहलू अपने में समेटती है। यही वजह है कि यह फिल्म उन तमाम चर्चित दलित फिल्मों की श्रेणी में जा खड़ी होने का माद्दा भी रखती है लेकिन जिसके आने की ख़बर ही आप दर्शकों को ना लगी हो तब भला इन फ़िल्मकारों का क्या दोष?
नोट- यह रिव्यू मराठी भाषा में देखी गई फिल्म का है।
अपनी रेटिंग .... 4.5 स्टार
समाज को आईना दिखाने वाली फ़िल्में अक्सर लोग कम पसंद करते हैं , या कह सकते हैं कि सच देखना पसंद नहीं करते , दूसरी बात कुछ रूढ़िवादी लोग बदलना नहीं चाहते ना ही किसी दलित पिछड़े के मर्म को समझना चाहते हैं भारत के कई राज्यों में आज भी दलितों को मंदिर मस्जिद में आना मना है ,
पिछले सालों में भारत की सबसे शर्मनाक घटना से आप अनभिज्ञ नहीं होंगे जब हमारे राष्ट्रपति को भी ये दंश झेलना पड़ा था !
फ़िल्म समस्या को समाज तक ले जाने का प्रयास होता है लेकिन सोच बदलने में हर बार नाकाम रहती है …कारण है सदियों से पढ़ाई जाने वाली जाति प्रथा व रंग भेद का पाठ , तथा आज सिर उठाए खड़ी सामाजिक कुरीतियाँ ,
आप की समीक्षा के माध्यम से मैं आशा करता हूँ कि समाज अपने अंदर बदलाव लाए !!
– नौशाद सदर ख़ान
बहुत सटीक कहा आपने। शुक्रिया