रिव्यू- ‘रोटी कुण बणासी?’ सवालिया निशान छोड़ती है
राजस्थानी सिनेमा की साँसें पिछले लम्बे समय से फूली हुईं हैं। वजह साफ़ है कि- हर कोई यहाँ फ़िल्में तो बनाना चाहता है लेकिन उनके पास अच्छी कहानियों को खोज लाने की क्षमता नहीं है। वे सभी चाहते हैं कि दो और दो जमा पाँच कर लें कैसे भी करके। ‘रोटी कुण बणासी?’ (Who will bake the bread?) सवालिया निशान छोड़ती है। गंगानगर वाला पर आज पढ़िए ऐसी ही एक फ़िल्म के बारे में जो दम रखती है राजस्थानी सिनेमा के मान को बढ़ाने का। तो चलिए शुरू करते हैं-
महान लोगों के सामने अक्सर समस्याएँ खड़ी हो जाती हैं क्योंकि उनमें उन समस्याओं को बेहतर ढंग से हल करने की क्षमता होती है। राजस्थानी शॉर्ट फ़िल्म में एक जगह जब यह लिखा दिखता है तो एक बारगी लगता है कि वाकई इस फ़िल्म में संतोष (नीरज सैदावत) ही वह महान आदमी है जो अपने समक्ष खड़ी समस्या को सुलझाना चाहता है। लेकिन वाकई क्या संतोष वह महान आदमी है? इस सवाल के जवाब को जब आप खोजना शुरू करते हैं तो आपको नज़र आता है कि संतोष महान नहीं बल्कि सबसे कमज़ोर इंसानों में से एक है।
संतोष की बीवी रूपा सिविल सेवा की परीक्षा के अपने आखरी मौके को परीक्षा देकर भुनाना चाहती है। फिर उसके सामने एक-एक कर समस्याएं मुंह बाये आ खड़ी होती है। क्या वह परीक्षा में बैठ पाएगी? क्या संतोष महान आदमी बन सकेगा? फ़िल्म अपने 24 मिनट के कलेवर, फ्लेवर से मोटे तौर पर यही दिखाती है।
अब आप कहेंगे एक लड़की शादी के बाद सिविल सेवा में जाना चाहती है तो उसे क्यों ना जाने दिया जाए। मुसीबत यहीं खत्म हो जाती तो इस फ़िल्म को लिखने, बनाने वाले ‘चंदन सिंह शेखावत’ को जरूरत ही क्या थी भला इसे लिखने और फिर फ़िल्माने की।
कायदे से राजस्थानी भाषा के नाम पर बनी यह फ़िल्म जितनी राजस्थानी है उससे कहीं ज्यादा यह राष्ट्रीय मुद्दा बनकर उभरती है। आज़ादी के 75 साल गुजरने पर भी आज भी राजस्थान ही क्या देशभर की महिलाओं को इतनी छूट कब से मिलने लगी कि वे अपनी शादी के बाद भी सिविल सेवा में जा सकें।
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इस फ़िल्म को स्त्री पक्ष के आईने से देखिए या चाहे आपका मन करे तो पितृसत्तात्मकता के चश्में को पहन कर। यह फ़िल्म दोनों ही मोर्चे पर तब सफल हो जाती है जब संतोष अपनी जीप पर लगे उस पोस्टर को ठीक करने के बहाने से उसी पितृसत्ता को सहारा दे रहा है, उसे संभाल रहा है। यह फ़िल्म संतोष के बहाने से पितृ सत्ता को मजबूती देने वाले स्याह पक्ष को उकेरने का प्रयास करती है तो वहीं रूपा के बहाने से उस महिलावादी समाज की सच्चाई का आख्यान बनकर उभरती है, जिस महिलावादी समाज के लिए ढेरों साहित्य, सिनेमा की सृजना हो चुकी है। लेकिन यह भी सच है कि फ़िल्म की नायिका रूपा की भांति आज भी वे अपनी उन्हीं चूड़ियों की खनक के सहारे अपनी पीड़ा को आटे की रोटियां बनाकर सेंकती आ रही हैं।
यह फ़िल्म उस क्रूरतम पितृसत्ता के चेहरे को एक सीन में खुली खिड़की के सहारे बाहर उड़ा डालने की भरसक असफल कोशिश करती भी नजर आती है। जिस पितृ सत्ता ने स्त्री को हमेशा मात्र अपने लिए दो रोटियां बनाने और बिस्तर गर्म करने तक का साधन बनाया हुआ है। यह फ़िल्म शॉर्ट फ़िल्म होते हुए इतनी मारक हो उठी है कि आप चाहें तो इसे देखते हुए अपनी एकदम कसी जा चुकी मुठ्ठियों के भीतर उतर आई उस नमी को स्त्री सत्ता के सूख चुके आंसुओं से तौल सकते हैं। लेकिन ऐसा करने पर भी आप पाते हैं कि स्त्री सत्ता के सूखे हुए आंसू भी आपकी भींची हुई मुट्ठियों के भीतर उतरी हुई नमी से कहीं अधिक भारी है, वजनदार है।
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महिलाओं को सदियों से इस कदर और इतना दबाया जा चुका है कि वे अब प्रतिरोध करना भी चाहें तो अपने हाथों के नीचे गोल होती उन रोटियों को देख प्रतिरोध को भी गर्म तवे पर सेंक लेना ही अपना धर्म समझ बैठती हैं। आखिरकार कब तक हमारे सिनेकार अपने बनाए सिनेमा से हमें जगाते रहेंगे? आखरी कब तक स्त्री सत्ता को नकार पितृ सत्ता उन पर हावी होती रहेगी? आखरी कब तक वे अपनी उन चूड़ियों की खनक के सहारे अपनी पीड़ाओं को उन खनक में दबाती रहेंगी? आखरी कब तक रोटी कुंण बणासी? जैसे सवाल आज भी हमारे सामने मुंह बाये खड़े रहेंगे? आखरी कब तक यह मर्दवादी आज भी उन्हें चूल्हे-चौके की सीमा तक बांधकर रखेगा? जैसे ढेरों सवाल यह फ़िल्म उठाती है।
यह फ़िल्म सवालिया निशान इस बात पर भी छोड़ती है कि आखरी कब तक राजस्थानी सिनेमा के नाम पर लोग किले, रेगिस्तान, लोक प्रथाओं-कुप्रथाओं को दिखाते रहेंगे? थोड़ा बाहर निकलिए अपनी सोच से और फ़िल्म की उस खुली खिड़की से बाहर झांकिए तो आपको ढेरों कहानियां बिखरी नज़र आएंगी आपके आस-पास जिन्हें समेटते-बनाते हुए आप इस क्षेत्रीय सिनेमा की शुष्कता को भी खत्म कर पाएंगे।
फ़िल्म के तमाम कलाकारों में बच्चन पाण्डेय, सैम बहादुर, आर्या, मर्डर मुबारक जैसी बेहतरीन फ़िल्मों और वेब सीरीज में अपने अभिनय की छाप छोड़ने वाले नीरज सैदावत, रंगमंच के चर्चित कलाकार, नानेरा और मलयालम कुत्तावुम शिक्षयुम जैसी फ़िल्मों में नजर आने वाले दिनेश प्रधान अभिनय से इस फ़िल्म को सजाते हैं तो वहीं रिया राठौड़ और जे.डी मिलकर इस फ़िल्म में अभिनय करते हुए नज़र नहीं आते बल्कि वे उसे इस कदर जीते हैं कि यह फ़िल्म आपको इतना भावोद्रेक करती है कि आप तुरंत उठ खड़े हों और चाहें की फ़िल्म की कहानी को पलट दें।
जब कहानी बेतहाशा करीने से सजी और उम्दा कसी हुई पटकथा के सहारे अपनी अदायगी की बनावट से पर्दे पर उभरने लगती है तो आप फ़िल्म के लेखक, निर्देशक चंदन सिंह शेखावत से लेकर तमाम तकनीकी टीम, कलाकार इत्यादि के उन हाथों को चूमने की इच्छा ज़ाहिर कर देते हैं, जिन हाथों से यह बनकर आई है।
ऐसी फ़िल्में देखने के बाद आपको सिनेमा की उस चौखट को प्रणाम कर लेना चाहिए जहां से ऐसी कहानियां बहती हैं। ऐसी फ़िल्मों को अवार्ड्स की झड़ी से लाद दिया जाना चाहिए ताकि उस सिनेकार को बल मिल सके और कहानियां कहने का। फ़िल्म फेस्टिवल्स की अपनी राह पर चल रही इस फ़िल्म को जब जहां जिस फ़िल्म फेस्टिवल्स में देखने का मौका मिले चूकिएगा मत। फिर ना कहना हमारे यहां अच्छी फ़िल्में बनती नहीं और बनती हैं तो आपको उनकी ख़बर नहीं मिलती।
अपनी रेटिंग – 4.5 स्टार
नोट – आधा स्टार इस बात के लिए कम की इतनी अच्छी फ़िल्म बनाने वाले राजस्थानी भाषा का व्याकरण कैसे भूल गए? रोटी कुंण बणासी? कुंण को कुण लिखा जाना चाहिए।