रिव्यू- बेमतलब बेकाम की ‘जिद्द’
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हरियाणवी सिनेमा अभी भी मुकम्मल तौर पर तैयार नहीं हुआ है। स्टेज एप पर अपने तय दिन से एक दिन पहले रिलीज हुई फ़िल्म ‘जिद्द’ ने यह एक बार फिर साबित कर दिया है। गाहे-बगाहे साल दो साल में एक ठीक फिल्म आ जाने से हरियाणवी और इसके बराबर ही ठीक राजस्थानी सिनेमा का उद्धार तब तक नहीं हो सकेगा जब तक कि कोई इन दोनों क्षेत्रीय सिनेमा की जड़ तक नहीं पहुंचेगा।
मैं कई दफा यह कह चुका हूं कि स्टेज वालों को अपने पैसे जहां फूंकने हैं फूंके लेकिन हरियाणवी और राजस्थानी सिनेमा के नाम पर ऐसे आधे-अधूरे काम लाकर ना तो दर्शकों का समय जाया करें और ना ही उनका पैसा। आखिर कब तक इन दोनों राज्यों की भोली भाली जनता आपके बिछाए इस जाल में फंसती रहेगी? हरियाणवी फिल्म ‘जिद्द’ पहली कमी तो इस फ़िल्म की यही है कि इसको डेढ़ घंटे देख लेने के बाद आप यह कहें की आखिर इस परिवार के बीच जिद्द थी किस चीज की? दूसरी कमी इस फिल्म की यह है कि आधे से ज्यादा कलाकार बिलकुल सपाट अभिनय करते दिखे। तीसरी कमी इस फिल्म में यह की जहां इमोशन की भरपूर जरूरत है वहां आपने इमोशन पैदा करने की कोशिश की लेकिन आंखों में आंसू ला पाने में बुरी तरह नाकामयाब रहे।
आप कहेंगे कहानी भी तो बताओ। तो लीजिए जनाब – साल 2024 और हरियाणा का एक गांव जहां दो भाइयों में किसी बात को लेकर बैर है। बैर किस बात का है यह पता चले तो हमें भी बताइएगा। अब कुछ ऐसा हुआ की बड़े भाई की बीवी ने अपने देवर की लड़की का रिश्ता तुड़वाया। उसके बेटे ने अपने ही चाचा के लड़के की हड्डियां तुड़वाई ताकि वो पुलिस की फिजिकल में ना जा सके। यहां तक तो बात समझ आती है। लेकिन इस फिल्म को लिखने, निर्देशित करने वाले ‘जोगिया विक्की’ के लिखे को उनके खुद के द्वारा निर्देशित करते हुए ही इसे इतना सीधा, सपाट बना दिया गया की कोई रोचकता नहीं दिखाई पड़ती। और तो और 2024 में हरियाणा के एक गांव में लड़की का रिश्ता टूटने पर आज भी ये लोग मातम मना रहे हैं! आज भी इन्हें इज्जत का डर सता रहा है!
फिर कहां गया वो हरियाणा जिसकी संस्कृति और जिसके खेलों, फसलों, उत्सवों की यह दुनिया दीवानी है। क्या आप सोच सकते हैं एक विकसित राज्य में आज भी यह समस्या मुंह बाये खड़ी है? दरअसल समस्या स्टेज वालों के साथ ही है। वो अपने ओटीटी के लिए निर्मित की जाने वाली हरेक फिल्म में अपने और हमारे राजस्थान को पिछड़ा-अतिपिछड़ा दिखाने और ऐसी ही छवि दुनिया के सामने पेश करने के लिए लालायित दिखाई देते हैं। आप कहेंगे दोष तो निर्देशकों, लेखकों को दिया जाना चाहिए ऐसी बातों के लिए की वे अपने ही राज्य की छवि को धूमिल क्यों कर रहे हैं? बिल्कुल दिया जाना चाहिए दोष लेकिन क्या दोष उनका नहीं जो ऐसे प्रोजेक्ट के लिए बिना सोचे समझे अपना पर्स खाली करके दे देते हैं।
औसत निर्देशन औसत कहानी के साथ एक दो ठीक से संवाद और कुछ दो चार कलाकारों का औसत सा अभिनय, ऐसे ही गाने और तमाम तकनीकी पहलू मिलकर इस फिल्म को बेमतलब और बेकाम की बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। राजन शर्मा, उमा शंकर, संगीता देवी, प्रगति, कुमार इशांत ही कुछ ठीक लगते हैं बाकी कलाकारों और अपनी तकनीकी टीम से पूरा काम ना ले पाने का दोष आप चाहें निर्देशक पर थोपें या फिर ऐसे प्रोजेक्ट के लिए निर्माता बनने वाले स्टेज एप वालों पर। वैसे इससे बेहतर विकल्प है आपके पास ‘मनोज फोगाट’ वाली ‘जिद्द’ फिल्म को देखने का।
अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार