रिव्यू- गुमनाम नायकों के नाम ‘ए वतन मेरे वतन’
Featured In IMDb Critic Reviews
भारत की आज़ादी में सैकड़ों लोगों का योगदान रहा है। हजारों नाम तथा गुमनाम लोगों ने अपनी जान की परवाह किये बगैर इस देश को बनाया है। उस जमाने में रेडियो ने भी अपनी प्रमुख भूमिका निभाई थी कैसे…? आज जानिए अमेजन प्राइम पर रिलीज हुई फिल्म गुमनाम नायकों के नाम ‘ए वतन मेरे वतन’ में…
कहानी है उषा मेहता की। एक छोटी सी लड़की जो साइबेरियन पक्षियों को उड़ते देख खुद भी उड़ना चाहती है आज़ाद भारत में। फिर वह एक दिन शामिल होती है कांग्रेस में। वही कांग्रेस जिसने आज़ादी की लड़ाई में अपना अहम् योगदान दिया। महात्मा गांधी के विचारों और राम मनोहर लोहिया से प्रेरित यह लड़की एक दिन अपने घर से भाग जाती है अपने पिता के नाम एक खत छोड़कर।क्या लिखा था उसने खत में? और कैसे वो कांग्रेस से जुड़ी? कैसे रेडियो कांग्रेस उसकी जिंदगी में आया? यही सब इस दो घंटे की फिल्म में दिखाया गया है।
दिल का क्या है चलता रुकता रहेगा। आज़ादी की लड़ाई नहीं रुकनी चाहिए। चाहे कितनी तीलियाँ बुझ जाएँ, हमारे सीने की आग नहीं बुझनी चाहिए। जालिमों से सिर्फ़ जीतने के लिए नहीं लड़ा जाता। जालिमों से इसलिए लड़ा जाता है कि वो जालिम है। इतिहास के पन्नों में कुछ गुमनाम रह जाते हैं लेकिन गुमनाम नायक किसी भी नायक से बड़ा है। क्योंकि वह ख़ालिस नायक है। फिल्म में इस तरह के ढेरों संवाद हैं जो आज़ादी की अलख को जगाते हैं और नायकों की कहानी को दमदार बनाते हैं। लेकिन क्या सचमुच यह पूरी फिल्म दमदार बन सकी है?
सारा अली खान फिल्म में गुमनाम नायिका उषा मेहता की जिंदगी जीती नजर आती हैं। ये वही उषा मेहता हैं जिन्हें साल 1998 में भारत सरकार ने पद्म विभूषण प्रदान किया। और जब वह 1946 में जेल से रिहा हुई तो स्टेशन पर 20 हजार लोगों ने उसका स्वागत किया। उषा मेहता की जिंदगी से प्रेरित इस कहानी की असल नायिका उषा मेहता को क्या आज की युवा पीढ़ी जानती भी होगी ठीक से! अगर वह नहीं जानती तो उन्हें इस फिल्म को अवश्य देखना चाहिए और जानना चाहिए इतिहास के पन्नों में गुमनाम रखे गये उन नायक-नायिकाओं के बारे में। इतिहास पढ़ने में रूचि ना रखने वाले भी ऐसी फ़िल्में देखकर हमारे इतिहास को ठीक से जान सकते हैं।
इमरान हाशमी कहीं से भी राम मनोहर लोहिया नहीं नजर आते। कुछ पल को छोड़ दें तो। स्पर्श श्रीवास्तव, बेनेट ल्यंतों, आनंद तिवारी, अलेक्स ओ’ नील, अभय वर्मा इत्यादि ठीक-ठाक अपना काम करते नजर आये। लेकिन वहीं उदय चन्द्र महात्मा गांधी के रोल में जरा भी फिट नहीं बैठते। कुछ ऐसा ही हाल बाकी किरदारों का भी रहा। आधी अधूरी, कच्ची पक्की सी स्टार कास्ट मिलकर पूरी फिल्म को बस देखने भर के लिए छोड़ देती है। कायदे से स्टार कास्ट ली जाती तो यह फिल्म चर्चा करने योग्य बन सकती थी। इतिहास के गुमनाम नायकों की इस कहानी को इसी फिल्म के निर्माताओं, कास्टिंग डायरेक्टर ने गुमनाम रहने के लिए छोड़ दिया है।
निर्देशक कण्णन अय्यर का काम प्रभावित तो नहीं करता किन्तु एडिटर, सिनेमैटोग्राफर, म्यूजिक, गीत, कहानी आदि जैसे डिपार्टमेंट इसे संभाल लेते हैं। दाराब फारुकी की लिखी एक अच्छी कहानी का इस तरह मजाक सा बनते देखना अजीब लगता है। लेकिन फिल्म के सवांद की तरह ही कहना चाहिए कि ऐसी फ़िल्में बनाकर कुछ को प्रशंसा मिलती है तो कुछ को प्यार। लेकिन कुछ इतिहास के पन्नों में गुमनाम रह जाते हैं। यह फिल्म बेशक आज़ादी में रेडियो और उषा जैसे गुमनाम नायकों की कहानी अवश्य कहती है लेकिन गुमनाम रह जाने लायक। हाँ कुछ एक गाने जरुर अच्छे बन पड़े हैं जिन्हें किन्हीं विशेष अवसरों पर सुना जाना चाहिए।
फिल्म का ट्रेलर इस लिंक पर देखिए
अपनी रेटिंग …. 2.5 स्टार
One Comment