रिव्यू: ‘फ़र्ज़’ निभाना सीखिए
दुनियाभर में डॉक्टर्स जो इंसानों की जान बचाते हैं उन्हीं पर अक्सर होने वाले हमलों में से अकेले हमारे देश में करीब 65-70 फ़ीसदी घटनाएँ होती हैं। यानी दुनियाभर में डॉक्टर्स पर सबसे ज्यादा हमले भारत में होते हैं। आंकड़े बताते हैं कि करीब 35 से 40 फ़ीसदी डॉक्टर्स भारत में खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। वहीं एक डॉक्टर पर हमारे यहाँ 1500 से भी ज्यादा मरीजों का भार है। लेकिन क्या वजह है कि न तो कोई ठोस कार्यवाही डॉक्टर्स की संख्या बढ़ाने पर होती है और न ही उन पर होने वाले हमलों में कमी लाई जा सके इस बात पर।
असीम कौशिक यूँ तो एक्टर होने के साथ-साथ रंगमंच से भी जुड़े हुए हैं लेकिन पहली बार उन्होंने फ़िल्म निर्देशन में भी हाथ आजमाया है। ‘फ़र्ज़’ (Farz) असीम कौशिक के निर्देशन में बनी यह शॉर्ट फ़िल्म कुछ दिन पहले आयोजित हुए जयपुर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में पहली बार प्रदर्शित की गई।
‘शांतिनिकेतन’ जैसी फ़िल्में यहाँ की जड़ों का सिनेमा है- नीरज सैदावत
कहानी है पेशे से एक डॉक्टर की जिसने हजारों सर्जरी करके लोगों की जान बचाई है। उसकी खुद की बीवी कोरोना के चलते मरीजों की देखभाल में ही दम तोड़ गई। अब अकेले यह डॉक्टर अपनी बेटी के साथ ख़ुशहाल जिंदगी जीने की कोशिश कर रहा होता है कि अचानक से उसकी जिंदगी में तूफ़ान आ जाता है। जैसा कि फ़िल्म अपने संवाद से ही सब तय कर देती है- फ़र्ज़ और खुदगर्ज़ी के बीच में हमेशा फ़र्ज़ चुनना चाहिए। आखिर क्या हुआ उस डॉक्टर के साथ ऐसा कि वह फ़र्ज़ और खुदगर्ज़ी के बीच में झूल रहा है। किसने किया हमला उस पर? यह सब 40 मिनट की इस कहानी में खुलता है लेकिन बीच-बीच में आते फ़्लैशबैक के साथ।
बतौर निर्देशक असीम ने जिस तरह कायदे से फ़्लैशबैक का रास्ता फ़िल्म की कहानी को फ़िल्माते समय अख्तियार किया है वह काबिलेगौर तो है लेकिन आनन-फानन में बनाई गई इस फ़िल्म में कुछ कमियाँ भी नजर आती हैं एक्टिंग के लिहाज से, तो वहीं कैमरे के लगातार हिलते रहने से जो प्रभाव यह फ़िल्म छोड़ना चाहती है उस मकसद में भी कामयाब होती है। नीरज सैदावत कुल जमा एक-दो सीन को छोड़कर प्रभाव जमाने में कामयाब हुए हैं तो वहीं उनकी बेटी के किरदार में आद्विका शर्मा गहरा असर छोड़ती है। कई धारावाहिकों में काम कर चुकी इस छोटी सी लड़की का प्रभावशाली अभिनय इसे सिनेमा की दुनिया में लंबा रास्ता कामयाबी का पाने में आसानी देगा।
बेहद कम समय में बनी और बेहद कम प्रोड्क्शन वैल्यू के साथ बनी यह फ़िल्म उन डॉक्टर्स के प्रति संवेदनशील होने का फ़र्ज़ निभाना भी सिखाती है तो वहीं डॉक्टर्स का भी अपने पेशे को लेकर गंभीर होने जैसे मुद्दे को यह छूती है। असीम कौशिक बतौर निर्देशक इस फ़िल्म को थोड़ा और पकाते, मथते ठीक इसकी कहानी की तरह तो यह माइलस्टोन हो सकती थी। फिलहाल के लिए यह इतना तो असर छोड़ती है कि उनके निर्देशन पर पूरा-पूरा यकीन किया जा सके। एडिटिंग, सिनेमैटोग्राफी, कलरिंग, मेकअप के मामले में एक दो और रंदे मारे जाते सहायक कलाकारों शनाया सैनी, बप्पी दास, दिनेश कौशिक, गगन त्रिवेदी, सौरभ सोनी, सरला दनोदिया, दीपक सारस्वत को थोड़ा सिखाया-पढ़ाया जाता तब इस फ़िल्म की चमक पूरे फ़र्ज़ के साथ निखरती।
अपनी रेटिंग… 3.5 स्टार