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रिव्यू- चू चू का मुरब्बा ‘गिन के दस’ का

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एक क्रिमिनल बाप उसके दो जुड़वाँ क्रिमिनल बेटे उधर दो जुड़वाँ बहने। पैसे का मामला, देश में साल आर्थिक उदारीकरण का, किसी अनजान, सुनसान जगह में रिहाइशी इलाका, बड़े रसूख वाले नेताओं की बातें। कितना कुछ कहने को है इस फिल्म में लेकिन फिर भी यह चू चू का मुरब्बा ‘गिन के दस’ का ही क्यों… पढ़िए गंगानगर वाला में रिव्यू

रिव्यू- चू चू का मुरब्बा 'गिन के दस' का
रिव्यू- चू चू का मुरब्बा ‘गिन के दस’ का

साल 1991 कहीं सुनसान वीराने में एक जगह कुछ लोग रहते हैं। उनमें से एक जेल में है 10 साल से दूसरा उसका जुड़वाँ अपने बाप के साथ उस घर में केयर टेकर के साथ रहता है। फिर एक दिन अतिका और सयाली नाम की जुड़वाँ बहनों के कुछ दोस्त उसके पास यहाँ आते हैं क्योंकि लड़के के बाप ने अतिका से अपने बेटे की शादी की है। लेकिन वहाँ पहुँचते ही मामला सारा उलझने लगता है। अब अतिका और सयाली एक जैसी दिखती है और उधर वो दोनों भाई भी जुड़वाँ हैं। लेकिन एक के बाद एक मर्डर हो रहे हैं… किसलिए…? कौन मार रहा है इन्हें…? बस यह सब दिमागी कसरत में ही कहानी पहले हाफ तक उलझी रहती है। फिर खुलते हैं इसके पन्ने दूसरे हाफ में और आपको लगता है कि यह तो चू चू का मुरब्बा निकली।

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निर्देशक सरेश सुधाकरण इससे पहले भी ‘द इम्पोसिबल मर्डर’ मिस्ट्री बना चुके हैं। लेकिन इस बार उन्होंने फिल्म को कुछ ज्यादा ही देर तक उलझाए रखा। जिसके वजह से यह ठहर कर, इंतजार कर देखने वालों के लायक बन गई। मर्डर मिस्ट्री वाली फिल्मों में एक के बाद एक लगातार मर्डर का होना भी दिखाया जाता है लेकिन बतौर निर्देशक सरेश ने इसमें भी काफी धीमापन रखा है। मानों उन्हें कोई जल्दी नहीं है अपने निष्कर्ष तक फिल्म को पहुँचाने की।अमजद अली और खुद निर्देशक ने मिलकर इस कहानी को लिखा है। करीब दो घंटे लम्बी इस कहानी को देखते हुए आपको पूरा ध्यान स्क्रीन पर ही रखना होगा, इस नजर से भी लेखक, निर्देशक ने आपसे खूब दिमागी कसरत करवाने की ठानी है।

रिव्यू- चू चू का मुरब्बा 'गिन के दस' का
रिव्यू- चू चू का मुरब्बा ‘गिन के दस’ का

संजना देशमुख, जाहिद खान, कैलाश पाल, अनिका आर्य, त्रिशना गोस्वामी, हिमांशु शेखर, अक्षय रवि, अविनाश गुप्ता, मुस्कान खुराना, अनिकेत जाधव, सभी मिलकर फिल्म को फिल्म नहीं लगने देते बल्कि यह एक रंगमंच बन जाता है उनके अभिनय से। कायदे से ऐसी फिल्मों को बनाने के बजाये उन्हें रंगमंच पर ही खेला जाना चाहिए ताकि उसे खेलने वालों के साथ-साथ उसे लिखने वालों को ऐसी फ़िल्में रिलीज कर पैसा कमाने से ज्यादा नाम कमाने का जरिया बन सके।

बिना कोई गाने और बढिया बैकग्राउंड स्कोर, लोकेशन, कैमरा, एडिटिंग के बावजूद भी यह फिल्म चू चू का मुरब्बा आखिर क्यों बनकर रह गई है यह आप फिल्म देखकर ही बेहतर समझ पाएंगे। फिलहाल के लिए इतना समझ लीजिए जैसे कोई कश्मीरी दम आलू में कोई कद्दू डाल दे नहीं तो रबड़ी-मलाई में कोई प्याज-लहसून का तड़का लगा दे तो आपको कैसा लगेगा…? सोचिएगा….

अपनी रेटिंग …. 3 स्टार

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