इंटरव्यू

राजू हिरानी सफल फिल्मकार हैं- अजय ब्रह्मात्मज

 

यह बातचीत वरिष्ठ फिल्म समीक्षक अजय ब्रह्मात्मज से संजू फिल्म की रिलीज के बाद की गई थी। रिलीजसे पहले की बातचीत को यहाँ पढ़ा सकता है। (सिनेमा में जायज नाजायज कुछ नहीं है) यह बातचीत का सिलसिला इंटरव्यू की शक्ल में किसी अन्य पोर्टल पर प्रकाशित होता रहा था। अब गंगानगर  वाला उन्हें आपके सामने लेकर आ रहा है।

 

सवाल- फ़िल्म रिलीज होने से पहले इतना सबकुछ कहा गया प्रमोशन इवेंट आदि में लेकिन फ़िल्म में ऐसा कुछ नया नहीं दिखाई देता तो दर्शक क्यों जाए फ़िल्म देखने ?

अजय ब्रह्मात्मज  – दर्शक तथ्य जानते नहीं हैं इसलिए उन्हें अवश्य फ़िल्म देखने जाना चाहिए। उन्होंने आजतक जो कुछ भी जाना है केवल शब्दों के माध्यम से और ये शब्द उन्हें मिले अखबारों की कतरनों से, मीडिया से चूँकि उन्होंने उस चीज़ को देखा नहीं है कभी करीब से तो इसके लिए दर्शक फ़िल्म देखने जाएगा। बाकी किसी फ़िल्म को बनाने के लिए खास करके बॉयोपिक अगर हो तो, उसके लिए उसकी जिंदगी को सम्पूर्ण रूप में आप नहीं दिखा सकते। इसलिए कुछ एक हिस्सों को चुना जाता है और यह उनकी अपनी आज़ादी है कि वे फ़िल्म में क्या दिखाए और क्या नहीं। इसमें फ़िल्म मेकर्स की या उस व्यक्ति की जिस पर बॉयोपिक बन रही है उनकी आपसी बातचीत भी होती है। रही बात प्रमोशन में कहने की और फ़िल्म में कुछ अधूरापन की तो जेल में क्या हो रहा है संजय दत्त के साथ दिन- प्रतिदिन वो सब रुओ नहीं दिखाया जा सकता ना और ना ही फ़िल्म मेकर्स उसे दिखाना चाहेंगे। निर्देशक जो हमें दिखाना चाह रहा है वही हमें इसमें देखना चाहिए। मेरे लिहाज से एक अच्छी फ़िल्म है और इसलिए दर्शक इसे देखने जाएगा।

सवाल-  क्या सच में ईमानदारी से संजय ने हिरानी को सबकुछ बताया होगा? और क्या उतनी ही ईमानदारी से हिरानी ने उसे पर्दे पर पेश किया है?

अजय ब्रह्मात्मज – ईमानदारी की बात करें तो यह उन दोनों के बीच का ही मसला है। ये तो वे दोनों ही जानते हैं या इसके अलावा संजय दत्त के परिवार और संजय दत्त के खुद के करीबी लोग ही इस पर कुछ बता सकते हैं। आप और हम जैसे तो दर्शक हैं, समीक्षक हैं। वैसे कहा गया था कि 200 घंटे की बातचीत उनके बीच रिकॉर्ड हुई है तो 200 घंटों  को 3 घंटे या उससे कुछ कम में दिखा पाना बड़ा मुश्किल काम है।  हिरानी जी इसमें पूरी तरह सफ़ल कहे जा सकते हैं औरजो उन्होंने ने दिखाया है उसमें उन्होंने कहीं भी कोई बेईमानी बरती है ऐसा नजर नहीं आता।

सवाल – फ़िल्म निर्माण की टेक्नीक, वेशभूषा, मेकअप और इसके गानों को लेकर आप क्या कहना चाहेंगे?

अजय ब्रह्मात्मज – ये थोड़ा बड़ा प्रश्न है इसे टुकड़ों में पूछा जाना चाहिए लेकिन ख़ैर फिर भी। वेशभूषा अच्छी है और किसी पीरियड फ़िल्म जैसी सी लगती है। विक्रम गायकवाड़ ने मेकअप के क्षेत्र में अच्छा काम किया है।  वे बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने संजय दत्त को रणवीर कपूर में और सुनील दत्त को परेश रावल में बख़ूबी ढ़ाला है। तारीफ़ कॉस्ट्यूम डिजाइनर की भी की जानी चाहिए। ये सभी काम कॉस्ट्यूम प्रोडक्शन की जिम्मेदारी होती है जिसमें भी वे सफ़ल दिखाई देते हैं। दूसरी बात फ़िल्म आपको हँसाती है, रुलाती है और लगातार इसका क्रम बना रहता है।

सवाल-  क्या आपको फिल्म देखने के बाद नहीं लगता कि यह फ़िल्म उनकी ईमेज बिल्डिंग के लिए बनाई गई है? इसके अलावा फिल्म रिलीज से पहले जो खबरें थी कि इसमें तथ्य होंगे अफवाहें नहीं इस सब के बारे में आपकी क्या राय है?

अजय ब्रह्मात्मज – ये सवाल थोड़ा कठिन है। अच्छी बात पूछी है आपने लेकिन जितना यह सवाल कठिन है उतना ही जवाब भी। इसमें दो बातें हैं एक संजय दत्त की छवि और दूसरा उसके साथ रेस लगाने की कोशिश, जो लोग जानते हैं उसके बीच। दरअसल फ़िल्म इसलिए है कि हमारी धारणा जो अब तक संजय दत्त को लेकर बनी हुई है उसे तोड़ा जा सके और इसमें राजू हिरानी सफ़ल होते हैं। क्योंकि राजू हिरानी एक सफल फिल्मकार हैं। संजय दत्त के साथ जो कुछ भी हुआ वह समय और परिस्थितियों का खेल था। इसके बाद हम देखते हैं उन्हें पश्चाताप भी है जो असल जीवन में भी कई बार उनके व्यवहार के रूप में दिखाई देता है। फ़िल्म के अंत में संजय दत्त खुद आते हैं और समझाने का प्रयास करते हैं कि हमें गैर कानूनी काम नहीं करना चाहिए। तो ये सब कहीं न कहीं वे खुद भी महसूस करते ही हैं। मुझे इस फ़िल्म में जो सबसे ज्यादा नागवार गुजरा वो ये कि मीडिया द्वारा आरोप लगाना, प्रश्नचिंह लगाना और गन रखने के बाद उनका कानूनी दांव-पेंच में फँसना। हालाँकि मीडिया भी वही सब काम करता है उसने भी तथ्य तो जुटाए ही हैं। शायद इसीलिए फ़िल्म के आखिर में मीडिया को लेकर गीत लिखा गया है जो निर्देशक या संजय दत्त की अपनी कला है। पूरी फ़िल्म में एक बात है कि असल खलनायक की कमी है और जो खलनायक स्थापित होता है वह है मीडिया।

 

सवाल-  इस तरह की आधी अधूरी हकीकत के साथ बायोपिक बनाना क्या आने वाली बायोपिक पर प्रश्नचिंह नहीं लगाएगा?

अजय ब्रह्मात्मज – दो घंटे में भले बॉयोपिक हो या इतिहास। सभी में फ़िल्म मेकर्स यही करते हैं और यही सब आप और हम लोग किसी लेख को लिखते समय करते हैं। जिस तरह किसी लेख के लिए शब्द सीमा होती है उसी तरह फिल्मों की भी समय सीमा होती है। उसी के चलते इस फ़िल्म में विशेष रूप से दो ही पहलू हैं। हाँ अगर यह कोई टी०वी० शो होता तो शायद समय सीमा जैसा कोई बंधन नहीं होता और तब हम पूरा जीवन देख पाते। फ़िल्म में उनके फिल्मी करियर को भी तरजीह दी गई है। पहली फ़िल्म रॉकी की शूटिंग और उसके रिलीज से लेकर अन्य कुछ एक फिल्मों पर चर्चा ये सब मेरे ख्याल से इतना जरूरी नहीं था लेकिन इसे भी दिखाया है। कुलमिलाकर फ़िल्म अच्छी है। देखने लायक है और निर्माता, निर्देशक से लेकर अभिनय तक सभी कुछ अच्छा है। ख़ास तौर पर राजू हिरानी ने बतौर फिल्म निर्देशक अच्छा काम किया है। मनीषा कोइराला भी नरगिस की भूमिका में फिट हैं इसी तरह परेश रावल, रणवीर कपूर और अन्य सहयोगी अभिनेताओं ने भी अच्छा काम किया है।

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गंगानगर वाला

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