रिव्यू- लड़खड़ाती पार लगाती ‘धारा 498A’
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राजस्थानी सिनेमा पिछले कुछ समय से ठीक इस रिव्यू के टाइटल जैसा ही रहा है। स्टेज एप्प कई बार इस क्षेत्रीय सिनेमा के लिए मरहम लगाने का काम करता दिखाई पड़ा तो कभी खुद ही इसने राजस्थानी सिनेमा की हत्या भी की। लड़खड़ाती पार लगाती ‘धारा 498A’ किस तरह इस क़ानून से पार पाती है चलिए बताते हैं-
साल 1983 में भारतीय संसद द्वारा क़ानून में संशोधन करते हुए ‘धारा 498 A’ जोड़ी गई। लेकिन बदलते समय के साथ आज तक इस धारा का दुरपयोग हजारों दफ़ा उन्हीं महिलाओं के द्वारा किया गया जिनकी सुरक्षा के लिहाज से यह बनाई गई थी। अब पिछले कुछ सालों में कई हाईकोर्ट ने इस धारा पर पुनर्विचार करने पर भी जोर दिया है। लेकिन क्या सचमुच वे बदलाव संभव हो सकेंगे? इसकी चिंता तो क़ानून के रक्षाविदों और कोर्ट को करनी चाहिए। लेकिन आज स्टेज एप्प के ओटीटी प्लेटफार्म पर आई ‘धारा 498A’ (Dhara 498A) राजस्थान राज्य के एक इलाके में सरकारी मास्टर की शादी के बाद के जीवन को दिखाती है। शुरुआत में तो इस मास्टर के घर में सब ठीक चल रहा था फिर एक दिन उसकी बीवी ने उस पर दहेज़ और प्रताड़ना का केस दर्ज कर दिया। क्या सच में दहेज़ माँगा गया? क्या सच में उसे प्रताड़ित किया गया ससुराल में? फ़िल्म सिर्फ़ इतनी सी कहानी को दिखाती है पर उसमें साथ ही कई और ऐसे केस से लड़ रहे लोगों की कहानियाँ और इस सरकारी मास्टर के परिवार की कहानी भी नजर आती है। अब इस केस का परिणाम क्या होगा? उस लड़के के परिवार को क्या न्याय मिल पायेगा? फ़िल्म गनीमत है कि इस धारा पर ज्यादा भाषण नहीं पेलती लेकिन
एक सच हमारी क़ानून व्यवस्था का यह भी है जो यह फ़िल्म दिखाती है कि किस तरह इसका दूरूपयोग किया जाता रहा है। महिलाओं को बेतहाशा कानूनों में छूट देने के दुष्प्रभाव भी यह फ़िल्म दिखाती है। राजस्थान ही नहीं बल्कि पूरे देश में ऐसे कई परिवारों की कहानियाँ सच में घटित हो चुकी हैं लेकिन बावजूद इसके इस क़ानून में कुछ विशेष बदलाव नहीं देखने को मिले।
एक परिवार की लड़ाई में कैसे लड़के-लड़की के माँ-बाप दो-चार होते हैं और कैसे उनके अपने दिखने वाले लोग ही उनके दुश्मन के रूप में खड़े होते हैं इसकी भी यह बानगी फ़िल्म है। कहानी के लिहाज से यह फ़िल्म एक अच्छी और जरुरी कहानी के रूप में नजर आती है। लेकिन जब इसे फ़िल्म की स्क्रिप्ट की नजर से देखने चलें या निर्देशन की नजर से तो इसमें कई खामियां भी नजर आती हैं। जिसके चलते आप कह सकते हैं फ़िल्म की कहानी अच्छी थी किन्तु इसे और बेहतर ट्रीटमेंट दिया जा सकता था।
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आपकी बाइक में जब पैट्रोल पूरा हो पर कभी उसके गियर खराब हो जाए या फिर बैटरी बैठ जाए तो उसे धक्के लगाकर स्टार्ट करना मजबूरी हो जाती है। यह फ़िल्म भी ठीक उसी बाइक के जैसी है जिसमें पैट्रोल तो पूरा है लेकिन फिर भी इसमें कभी स्क्रिप्ट के गियर टूटे नजर आते हैं तो कभी इसमें एक्टिंग की बैटरी बैठी हुई नजर आती है। इतना ही नहीं यह फ़िल्म उस मलाई पनीर की तरह भी लगती है जिसे चखना तो हर कोई चाहता है पर इसका स्वाद अलग होने के चलते कभी उसमें मिर्च कम लगती है तो कभी नमक तेज।
यह फ़िल्म उस मलाई-पनीर की तरह भी नजर आती है जिसमें गाने तो अच्छे हैं लेकिन इसके डबिंग में तीखेपन की कमी है तो कभी उसमें बैकग्राउंड तेज नमक जैसा लगता है। एक्टिंग, कहानी-पटकथा, छायांकन, गीत-संगीत के लिहाज से यह फ़िल्म लड़खड़ाती हुई तो चलती दिखती है लेकिन उम्मीद भी जगाती है कि एक दिन राजस्थानी सिनेमा संभलेगा, सुधरेगा। स्टेज एप्प पर आई ऐसी फ़िल्में अपनी गलतियाँ तो सुधारती दिखाई पड़ती है, खुद की भी और स्टेज ओटीटी की भी किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं की उन्हें यूँ सस्ते में बख्श दिया जाए।
सुष्मिता राणा, हर्षित माथुर, क्षितज कुमार, संगीता सिंह राव, अंजली पारिक, उषा जैन, योगेन्द्र वर्मा, राकेश कुमावत, तोशी आदि के औसत अभिनय और अनिल भूप शर्मा के ठीक-ठाक लेखन, निर्देशन, स्क्रिप्ट को एक बार टाइम पास के लिए देखा जा सकता है। सुरेन्द्र राज, अनुज कुमार का डी.ओ.पी संजीव कुंतल की एडिटिंग, करण का म्यूजिक, राजवंश नरुका, रुबीना खान, शिव कुमावत के गाये गीतों से यह फ़िल्म जरुर कई जगह संभली है। लेकिन स्टेज एप्प पर आज आई यह राजस्थानी फ़िल्म इतने मुकम्मल रूप में नहीं बन पाई है कि जिसे देखते हुए आप तारीफें देने लगें, हाँ कम-से-कम संतोष जरुर प्रकट कर सकते हैं। कभी-कभी कम मिर्च-मसाले को भी चख लीजिए तो कभी-कभी गाड़ी को भी धक्का स्टार्ट बनाये रखिए यही है जो आपको सुधार सकते हैं और बेहतर बनाने के लिए।
अपनी रेटिंग .... 3 स्टार