रिव्यू- इंसानी मन के स्याह अंधेरों में लिपटी ‘ईप्सा’
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भारतीय शास्त्र कुलर्णव में शिव अपनी पत्नी पार्वती से कहते हैं- देवी, जिस व्यक्ति ने दिव्य अमृत पी लिया है वह संतुष्ट है। और उसे किसी अन्य भोजन की आवश्यकता नहीं है इसलिए जिस व्यक्ति ने सत्य का अनुभव किया है उसे किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता नहीं।
फिल्म की शुरुआत में यह लिखा मिलता है और फिर कहानी शुरू होती है एक लड़की ईप्सा से। ईप्सा का अर्थ होता है किसी वस्तु को पाने की इच्छा या अभिलाषा। ईप्सा की इच्छा है उसके पति से बच्चा चाहने की। वह बाँझ रह गई इसलिए उसके पति ने दूसरा विवाह कर लिया है। अब भी वह अपने पति से इच्छा रखती है बच्चे की या कोई और भी इच्छा है उसकी?
यह सब स्पष्ट होता है करीब 20 मिनट लम्बी इस फिल्म में। उस आर्य की दूसरी पत्नी स्वधा एक बच्चे को जन्म देने वाली है और इसी बात से ईप्सा के भीतर द्वेष भाव उत्पन्न हो गया है। एक सीन में जब वह चक्की पिसती नजर आती है तो वह दरअसल चक्की नहीं पीसती। बल्कि उस चक्की पर पीसती है अपनी इच्छाओं को, अभिलाषाओं को, लालसाओं को, कामनाओं को।
प्राचीन समय की कथाओं जैसे संवाद इस फिल्म को दर्शनीय बनाते हैं। साथ ही इसकी कैमरागिरी, एडिटिंग और अभिनय भी इसे बल प्रदान करता है। किन्तु यह फिल्म खत्म होते-होते इंसानी मन के भीतर छिपे स्याह अंधेरों को भी बाहर लाती है। इंसानी मन के वे स्याह अँधेरे जिसमें लिपट कर मनुष्य स्वयं तो कलुषित होता ही है साथ ही अपने आस-पास के वातावरण को भी दूषित करता हैं।
फिल्म के अंत में जिस तरह के मोंटाज इस्तेमाल हुए हैं और बीच में दो-एक जगह इस्तेमाल हुए हैं वे एकदम कहानी को सटीक समझने में सहायक तो होते हैं साथ ही इन मोंटाज के सहारे इंसानी मन के स्याह अंधेरों को भी यह फिल्म बाहर लाती है। अपने समय की यह एक जरुरी फिल्म इस मोर्चे पर भी साबित होती है कि यह उन सभी के चेहरों को बेनकाब करती है जो अपनी दमित इच्छाओं, वासनाओं, कामनाओं और कुंठाओं से ग्रसित है।
पिछले दिनों राजस्थान इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखाई और बेस्ट डायरेक्टर से नवाजी गई इस फिल्म में शांतनु बने ‘हितेश’ अपने अभिनय से एक मंझे हुए थियेटर के कलाकार की भांति नजर आते हैं। ईप्सा के किरदार में पूजा भामरह अपने किरदार से एक साधारण मनुष्य के इंसानी व्यक्तित्व को भरपूर जीती नजर आती हैं। तो वहीं स्वधा और काली माँ के रूप में रुषिता वैद्य प्यारी एवं मासूम लगी हैं।
फिल्म की सबसे बड़ी खासियत इसकी सिनेमैटोग्राफी है और उससे भी प्यारा है इसका बैकग्राउंड स्कोर और लोकेशन। प्राचीन समय की गुफाओं और अन्य लोकेशन के मुताबिक़ की गई इसकी एडिटिंग भी काबिल-ए-तारीफ़ है। सबसे अधिक तारीफों के हकदार इसके निर्देशक पवित्र वर्मा हैं, जिन्होंने प्राचीन समय के अनुसार इस कहानी को बखूबी ढाला है। इसका संगीत, कॉस्टयूम, वी.एफ़.एक्स आदि सभी मिलकर इस फिल्म को बनाने वाली टीम को दाद दिलाते हैं।
करीब दो दर्जन से अधिक देश-विदेश के फेस्टिवल्स में दिखाई-सराही गई तथा एक दर्जन से अधिक अवार्ड अपने नाम कर चुकी इस फिल्म को अपने आस-पास कहीं किसी फिल्म फेस्टिवल में नजर आये तो इसे देखिए नहीं तो इंतजार कीजिए कहीं रिलीज होने का। इस फिल्म को इसलिए भी देखिए की अपनी दमित और स्याह कामनाओं का हश्र आखिर में क्या होता है। और जब तक आप उन्हें जान पाते हैं तब तक देखिएगा कहीं बहुत देर ना हो चुकी हो।
इस फिल्म को इसलिए भी देखिए कि कैसे एक स्त्री जिसे बाँझ का तमगा यह समाज सदियों से देता आया है किस तरह वह अपने ममत्व को भीतर छुपाये घुमती है और उस बाँझ के तमगे के साथ तड़पती नजर आती है। क्योंकि प्रकृति के नियमों के मुताबिक़ एक स्त्री को माँ बनने का पूरा अधिकार भी तो इसी प्रकृति ने दिया है किन्तु मनुष्यों ने उस प्रकृति के साथ कैसा व्यवहार किया है, इसलिए भी यह फिल्म देखी जानी चाहिए।
अपनी रेटिंग .... 4 स्टार
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