रिव्यू: I Am No Queen ख़ाली फ़िल्म नहीं है।

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सैन फ्रांसिस्को, कैलिफ़ोर्निया में एक फर्जी यूनिवर्सिटी चलाने के कारण एक महिला को 16 साल की सजा सुनाई गई है। करीबन 1800 भारतीय छात्रों का भविष्य दांव पर लगा हुआ है। उसी समय उच्च अधिकारियों ने केवल 435 छात्रों को अन्य यूनिवर्सिटी में स्थानांतरित करने की अनुमति दी है। बाकियों को वापस भारत लौटना पड़ा। एक एजेंट को कथित तौर पर फर्जी कॉलेज का प्रवेश पत्र जारी करके छात्रों से हजारों डॉलर की धोखाधड़ी करने के बाद कनाडाई सीमा सेवा एजेंसी द्वारा गिरफ्तार किया गया है। फर्जी प्रवेश पत्र घोटाले में पकड़े गए 700 छात्रों की दुर्दशा न केवल छात्रों के लिए, बल्कि उनके माता-पिता के लिए भी अत्यधिक मानसिक पीड़ा का कारण बनी हुई है, जिन्होंने अपने जीवन की कुल जमा पूँजी को दांव पर लगाया हुआ है। जिस वजह से रिकॉर्ड 20 फ़ीसदी तक पढ़ाई के लिए लेने वाले लोन में इजाफ़ा हुआ है।

यह कोई फ़िल्म की कहानी नहीं है बल्कि यह हकीकत है, किन्तु उतरी है पर्दे के जरिये। भारत से हर साल लाखों छात्र पढ़ने और सुनहरे भविष्य के सपने लेकर विदेशों में पढ़ने जाते हैं। फिर वहाँ उन्हें कितनी मुश्किलें झेलनी पड़ती है यही यह फ़िल्म दिखाती, बताती है।
एक लड़की है रानी जो ऐसे ही छात्रों में से एक है और अपनी जमीन-ज़ायदाद सब बेच कर माँ-बाप ने उसे कनाडा तो भेज दिया है पर वहाँ वह जिन हालातों से दो-चार होती है उसे पर्दे पर देखते हुए आपको विदेश में रह रहे भारतीयों के प्रति करुणा उपजती है किन्तु साथ ही आप उन्हें दोष भी देते हैं। रानी कनाडा में रूपये-पैसे की दिक्कत के चलते जिस तरह वेश्यावृत्ति में डूबती चली जाती है उसे देखना भयावह लगता है। ऐसा नहीं है कि वेश्याओं की कहानी हमारे हिंदी पट्टी के सिनेकारों ने हमें नहीं सुनाई, दिखाई। गाहे-बगाहे उनके मुद्दे उठते ही रहे हैं। किन्तु यह फ़िल्म जब भारत से बाहर गये छात्रों के बहाने वहाँ कि मुश्किल जिंदगी को टटोलती है तो आप इस फ़िल्म के अंत तक आते-आते कुछ बोलने, सोचने, समझने लायक नहीं रह जाते।

करीब डेढ़ घंटे यह फ़िल्म पूरी अंग्रेजी में होने के बावजूद भी अपनी आसान अंग्रेजी के चलते जिस तरह आपको पकड़े और बांधे रखती है उसके खातिर यह तारीफों की हकदारतो बनती ही है। कनाडा की खूबसूरत लोकेशन्स भी जब आपको फ़िल्म में घट रही घटनाओं के चलते चुभने लगे तो समझिए फ़िल्म बनाने वालों ने अपना काम बखूबी किया है। हालांकि कुछ जगहों पर रानी की मालकिन का अभिनय बेहद चलताऊ किस्म का लगता है किन्तु बावजूद इसके बाकी सभी कलाकार ख़ास तौर से रानी के किरदार में फ़ातिमा अल्वी जिस शिद्दत से अपने किरदार को जीवंत करती है वह काबिले-गौर हो जाता है।

कुछ समय पहले आई फ़िल्म राबिया एंड ओलिविया के निर्देशक शादाब खान ने इस फ़िल्म का भी निर्देशन काफ़ी कसा हुआ तो रखा ही है। साथ ही डी.ओपी, कलरिंग, बैकग्राउंड स्कोर जैसी तकनीकी चीजों में बरती गई कसावट और आसिफ़ खान की चुस्त एडिटिंग फ़िल्म को मजबूत आधार प्रदान करती है। मीनू बस्सी और खुद निर्देशक की लिखी इस कहानी में फ़ातिमा अल्वी के अभिनय की जमकर तारीफ़ करने के इतर नरीन बस्सी, वैभव शर्मा, अफ़ऱोज खान आदि के अभिनय को भी नजर-अंदाज नहीं किया जा सकता।

नवादा, अरावली, सेन डियागो, जयपुर, न्यू यॉर्क, टोरंटो, क्राउन वुड, शिकागो इंडी, लोस एंजलिस इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल्स में कई तारीफें और इनाम बटोर चुकी ऐसी फ़िल्में उन लोगों को ख़ास तौर से देखनी चाहिए जिन्हें भारत से बाहर की दुनिया सुनहरी नजर आती है। ऐसी फ़िल्में उन लोगों को ख़ास तौर पर भाएगी जो भारत से बाहर मुश्किल हालातों में जी रहे हैं। फ़िल्म फेस्टिवल्स की राह में दौड़ रही इस फ़िल्म को इसके अंग्रेजी नाम के चलते देखने से हिंदी पट्टी के दर्शकों को भी चूकना नहीं चाहिए, क्योंकि (I Am No Queen) ख़ाली फ़िल्म नहीं है। एक कमी विशेष तौर पर उभरकर आती है इस फ़िल्म में की कई जगहों पर संवादों को आसानी से हिंदी में भी रखा जाता तो इस फ़िल्म का प्रभाव और गाढ़ा ही होता।
हाल में आयोजित हुए 17 वें जयपुर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में दिखाई गई इस फ़िल्म को गंगानगर वाला कि ओर से 3.5 स्टार
उम्दा फिल्म की उम्दा समीक्षा, ऐसे ही लिखते रहिए