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रिव्यू- ‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग

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8 दिसम्बर को सिनेमाघरों में ‘कस्तूरी’ फ़िल्म आ रही है। ‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग कैसे अपने रास्ते तलाश करते हैं।  और क्यों एक ही फ़िल्म में आपको कई सारे रंग देखने को मिलते हैं उसकी यह बानगी है। विनोद कांबले निर्देशित इस पहली ही फ़िल्म को नेशनल अवॉर्ड समेत कई नेशनल-इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल्स में सराहा तथा पुरुस्कृत किया गया था।तो चलिए शुरू करते हैं गंगानगर वाला (तेजस पूनियां) के साथ इस फ़िल्म की यात्रा को-

कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि।
ऐसे घटी-घटी राम हैं दुनिया जानत नाँहि॥

कबीरदास के लिखे इस दोहे से आप सब वाकिफ़ हैं कि कैसे हिरण जंगलों में भटकता रहता है उस चीज के लिए जो उसी के शरीर में समाई है। उसी तरह मनुष्य ईश्वर को खोजने के लिए भटकता फिरता है जबकि वह भी नहीं समझ पाता कि ईश्वर हर कण में व्याप्त है। कबीर के लिखे इस दार्शनिक दोहे को जब ‘कस्तूरी’ फ़िल्म के माध्यम से आप देखेंगे तो पाएंगे कि फ़िल्म का मुख्य नायक एक 14 साल का बच्चा अपनी शिक्षा की आज़ादी को पाने में कस्तूरी ख़ोज रहा है। वो कस्तूरी यहाँ इस रूप में नजर आती है जिसे आप दलितों, पिछड़ों के मनोभावों के रूप में देखते हैं।

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फ़िल्म कस्तूरी एकमात्र शिक्षा की ख़ुशबू फैलाने की जद्दोजहद नहीं बल्कि यह उस कस्तूरी की ओर भी इशारा है जहाँ से सब मुश्किलों का हल पाया जा सकता है। कहानी है एक 14 साल के दलित बच्चे की जिसे स्कूल में जातिगत शब्द कह कर घृणित नजरों से देखा जाता है। अपने शराबी बाप और उस पर गरीबी रेखा में यातनामय जीवन जीते हुए यह बच्चा अस्पताल में कथित तौर पर अपने बाप के काम (पोस्टमार्टम) को सीखता है, लोगों की गंदगी साफ़ करते हुए मैला ढोता है। अपने शरीर से आने वाली तथा संकीर्ण समाज की उन सभी दुर्गन्ध को धो डालने की कोशिश वह इत्र, फुलेल और कस्तूरी आदि को लगाकर करना चाहता है।

‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग

‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग

लेकिन अपनी क्लास का होनहार यह बच्चा अपने ही एक साथी दोस्त के माध्यम से उस कस्तूरी तक क्या पहुँच पायेगा? क्या वह संकीर्ण समाज द्वारा आरोपित की गई दुर्गन्ध को मिटा पायेगा? क्या वह अपनी गरीबी को दूर करेगा? क्या वह शिक्षा पूरी तरह से हासिल कर पायेगा? आदि जैसे कई सवालों के हल इस फ़िल्म में कबीरदास के दोहे की तरह आप दर्शकों को खोजने होंगे।

दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़े, दबे, कुचले, मर्दित किये गये समाज, शिक्षा, गरीबी, बालश्रम आदि की कहानियाँ हजारों बार हमारी हिंदी पट्टी के निर्माता, निर्देशक हमें बता, दिखा, सुना चुके हैं। लेकिन इस फ़िल्म को देखने के बाद महसूस कीजिएगा कि क्या सच में उनकी कही, सुनाई, दिखाई गई कहानियों का रंच मात्र भी हमारे समाज पर असर आप देख पाए हैं? आप सोचिएगा ऐसी फ़िल्मों को देखकर की अगर लेशमात्र भी हमारे समाज में कुछ बदलाव हुआ है तो क्या सिनेमा बुरी चीज है? आप दोष देते रहें चाहे हजारों हजार की हमारे बॉलीवुड वाले अच्छी फ़िल्में नहीं बनाते। आप कहते रहियेगा उन्हें भांड, आप देते रहिएगा अपने तथाकथित समाज की दुहाईयां कि हमारी फ़िल्मों ने हमारे समाज को बिगाड़कर रख दिया है।

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लेकिन इस फ़िल्म को देखने के बाद आप पाएंगे कि आप गलत थे, आपकी सोच गलत थी, आपका समाज जो सड़ने लगा है उसे अभी भी वक्त है सम्भाल लिया जाए। ऐसी फ़िल्में हमें जगाती हैं, सचेत करती हैं, रुलाती हैं, खुद को उस जगह बैठकर देखने को मजबूर करती हैं, जहाँ से ये लोग आते हैं। आप इस फ़िल्म को देखकर महसूस करेंगे कि हजारों सालों से दबाई गई, मर्दित की गई, कुचली गई ये जातियां और ये लोग अब अपनी आज़ादी की महक को महसूस करने लगे हैं। उन्हें वह कस्तूरी हासिल हो गई है जिससे अब ये लोग अपनी आज़ादी को न केवल हासिल कर लेंगे बल्कि साथ ही आपकी सोच पर वह करारा प्रहार करेंगे जिसकी गूँज सदियों तक सूनी जायेगी।

‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग

‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग

करीब 1 घंटा 40 मिनट लम्बी इस फ़िल्म में कहीं भी आपको रूखापन नहीं नजर आता। आपको इसमें गानों की कमी नहीं खलती। ऐसी फ़िल्मों को देखते हुए आप कहेंगे कि इसमें गाने की जरूरत ही नहीं  थी। ऐसी फ़िल्में सचमुच हमारे समाज के आईने को प्रदर्शित करती हैं। ऐसी फ़िल्में सचमुच बिना कोई लड़ाई किये शांति से, अहिंसा से अपनी ‘कस्तूरी’ खोजते हुए अपने समाज को बदलने की पुरजोर कोशिश करती नजर आती हैं।

साल 2020 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरुस्कारों में बेस्ट चाइल्ड फ़िल्म का अवॉर्ड जीतने के अलावा देश-विदेश के प्रतिष्ठित एक दर्जन से ज्यादा अवॉर्ड अपनी झोली में भरने वाली इस फ़िल्म में सबकुछ है, जो एक अच्छे और सार्थक सिनेमा की बानगी है। लन्दन, बर्लिन, न्यूयॉर्क, मुंबई, धर्मशाला, औरंगाबाद आदि फ़िल्म फेस्टिवल्स में दिखाई गई, सराही गई, सम्मानित हुई यह फ़िल्म लेखक, निर्देशक ‘विनोद कांबले के पहले ही उच्च सिनेमाई प्रयास को दिखाती है।

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‘सैराट’ वाले ‘नागराज मंजूले’ और फ़िल्म उद्योग में अपनी फ़िल्मों से आला मकाम रखने वाले अनुराग कश्यप द्वारा प्रेजेंट की गई इस फ़िल्म के हर किरदार मोतियों की माला की तरह गुंथे नजर आते हैं। सच्ची घटनाओं पर आधारित इस फ़िल्म में किसी तरह का ठेठ मनोरंजन नहीं है। फूहड़ सिनेमा नहीं है, बेवजह के गाने और तडकता भड़कता संगीत, बैकग्राउंड म्यूजिक नहीं है। बावजूद इसमें बहुत से अनप्रोफेशनल लोग हैं और उनका प्रोफेशनल अभिनय है जो आपकी दाद लिए बिना आपको सीट से हिलने तक नहीं देता।

‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग
‘कस्तूरी’ से आज़ादी खोजते लोग

तमाम अभिनय कर रहे लोग विनोद कांबले निर्देशित, लिखित किरदारों को जीवंत बनाते हैं। स्क्रीनप्ले और संवाद के लिहाज से विनोद कांबले, शिवाजी करड़े द्वारा फ्रेम-दर-फ्रेम सजाई गई इस फ़िल्म के किरदारों को समर्थ सोनावाने, श्रवण उपलकर, अनिल कांबले, वैशाली केंदले, जन्नत, कुनाल पवार, जयभीम, विजय शिकारे, अजय चवाह्न, लाला शैख, राजू परदेशी, आकाश बंसोडे आदि मिलकर जीवंत करते हैं।

कई महिलाओं पायल अजय धोके, अंजली महेश अखाड़े, अस्मिता विद्याधर गायकवाड़, स्वाति शरद गुप्ता, प्रभावती बसवराज अकाशी, अमिता योगेश कामत, वैशाली लक्ष्मीकांत धोके, विजय गोपालराव धोके आदि के द्वारा मिलकर ऐसी फ़िल्मों के लिए लगाया गया धन यह दर्शाता है कि ये लोग किसी तरह के तथाकथित मसालों से दूर रहकर अपने काम को सार्थक बनाना ज्यादा उचित समझते हैं।

कस्तूरी फ़िल्म का यूट्यूब ट्रेलर लिंक

मनोज संजय काकडे का डी.ओ.पी, शोएब मनेरी का साउंड, जयभीम शिंदे का बैकग्राउंड स्कोर, श्रीकांत चौधरी की एडिटिंग, अंकुश केरीपाले, आदेश पाखरे की फ़िल्म मेकिंग और दिलीप वाघमारे का फॉली इत्यादि सब मिलकर एक ऐसे सिनेमाई संसार को रचता है। जो सच्चा है, अच्छा है, नेक है, सार्थक है और जिसकी सचमुच हमें जरूरत है। तो इंतजार किस बात का 8 दिसंबर को रिलीज हो रही इस फ़िल्म को देखिए, सराहिए और सहारा दीजिए ऐसे मेकर्स को, फ़िल्म की टीम को जो आपके समाज की भी आज़ादी ‘कस्तूरी’ से खोज रहे हैं। नहीं तो देखने के लिए हजारों-हजार फ़िल्में हैं जिनमें आप भरपूर मनोरंजन ले सकते हैं। ऐसा सिनेमा सालों में बनता है। इस जाते हुए साल में कुछ अच्छा लेकर सिनेमाघरों से जाइए ताकि नये साल के स्वागत में आप अपने आपको, अपने समाज को बदलता देख सकें।

अपनी रेटिंग .... 4 स्टार

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