बुक रिव्यू- समकालीन कविता के तंत्र में ‘रंगतंत्र’
हिंदी साहित्य में कविताओं के जन्म को लेकर एक विवाद सा रहा है। साहित्यकारों या इतिहासकारों ने अब तक जितने भी कालखंड गिनाये हैं उन सभी में कहीं-न-कहीं पहली कविता को लेकर असमंजस रहा है। आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल तक तो अवश्य ही। हाँ यह सर्वमान्य तथ्य खड़ी बोली के सम्बन्ध में कविताओं को लेकर अवश्य रहा है कि हिंदी खड़ी बोली की पहली कविता ‘अमीर खुसरो’ ने लिखी अथवा कही है। फिर हिंदी साहित्य का आरम्भ भले ही चन्द्रबरदाई द्वारा रचित ‘पृथ्वीराज रासो’ से हुआ हो। कविताओं के जन्म को लेकर कुछ पंक्तियाँ ‘शुभ्रा सिंह’ लिखती हैं- कागज के जिस्म को कुरेद कर/ कलम ने अपनी रूह बसाई थी/ शब्दों ने अपना वजूद मिटाया था/ अर्थ ने समंदर से ली गहराई थी/ व्याकरण ने भी कर्ज दिया था/ तब कहीं जाकर एक कविता उभर कर आई थी।
शुभ्रा की लिखी ये पंक्तियाँ कागज, कलम, शब्द, अर्थ आदि सभी को टटोलकर कविताओं के जन्म की व्याख्या करती नजर आती है। हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘आधुनिक काल’ हिंदी भाषा और साहित्य के विकास की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय रहा है। क्योंकि इससे पूर्व के कालखंडों में साहित्य का विकास क्षेत्रीय भाषाओं मसलन अपभ्रंश, मैथिली, राजस्थानी, ब्रज इत्यादि के तौर पर अधिक हुआ। जबकि आधुनिक कालखंड में गद्य-पद्य दोनों समान रूप से विकसित हुए। खड़ी बोली इस कालखंड के लिए वरदान बनी और साहित्य की दृष्टि से नवीनता का वाहक बनकर उसके विकास एवं समृद्धि का कारण बनी। 13वीं सदी से आरम्भ हुआ कविता का दौर 19वीं सदी में आकर अपने पूर्ण विकसित रूप में जब आया तो उसके बाद जैसी-जैसी परिस्थितियां समाज ने सजग साहित्यकारों के सामने रखीं वे उसे उसी रूप में लौटाने का प्रयास करते रहे। शायद यही वजह रही कि कहानियों के साथ कविताओं में ही इतना अधिक आन्दोलन देखने को मिला। साठोत्तरी कविता आन्दोलन , भारतेंदु, द्विवेदी इत्यादि का कालखंड, अकविता, समकालीन कविता आन्दोलन आदि।
कविताओं के हर दौर में कोई न कोई चर्चित अवश्य रहा जिसके चलते या तो अमुक कवि विशेष के नाम से आन्दोलन चला या तत्कालीन समय की परिस्थितियों के नाम पर। समकालीन कविता काव्यान्दोलन में ऐतिहासिक दृष्टि से नयी कविताओं के बाद आरम्भ हुआ। सन् 1964 के बाद से जब कविताओं ने नयी भाव-भूमि को अपनाना आरम्भ किया, नयी चेतना का विकास उनमें नजर आने लगा, नयी संवेदना और शिल्प को लेकर चलते हुए उन्होंने जब समाज को जागृत करना आरम्भ किया तभी संभवत: इसका नामकरण समकालीन कविता रखा गया होगा। हिंदी साहित्येतिहास में मुक्तिबोध, राजकमल चौधरी, धूमिल इन तीनों को समकालीन कविताओं के दौर में तीन पड़ावों की तरह देखा जाता है। शायद यही वजह रही कि धूमिल, मुक्तिबोध आदि की राह पर प्रो० डॉ० मोहसिन खान को चलना पड़ा यह बात मैं इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि जब वे अपने काव्य संग्रह ‘रंगतंत्र’ की भूमिका लिखते हैं तो उसके आरम्भ में ही कहते हैं – “मैंने सदा यही चाहा कि कविता कम और सार्थक लिखी जानी चाहिए और इस बात का ख्याल सदैव रखा भी। हर विषय कविता केन्द्रित हो जाए संभव नहीं है… कविता का भी अपना दायरा होता है… रचनाएँ अपनी भावुकता के दायरे में ढलकर बड़ी सिद्ध नहीं की जा सकती है।”
यह सच भी है कि जब व्यक्ति अपने सामने कुछ घटित होते देख इतना द्रवित हो उठे कि उसके भाव शब्द बन जाएँ तो यह लाजमी नहीं कि वह अपने उन शब्दों से पढ़ने वालों को भी उस भावबोध के धरातल पर ला पाने में कामयाब हो। जिस तरह से साहित्य के साथ-साथ सिनेमा भी समाज का आईना है लेकिन बहुधा हम साहित्य या सिनेमा को देखते हुए उन शब्दों अथवा संवादों के साथ तादात्म्य नहीं बैठा पाते हैं। किन्तु ‘मोहसिन खान’ कविताओं को लिखते समय आपको उन भावों से साक्षात्कार कराने में एक बारगी कामयाब तो होते हैं। और यही किसी कवि की विशेषता भी कही जानी चाहिए। जिस तरह ‘मोहसिन’ स्वयं कहते हैं – ‘कविता बात को सीधे नहीं रखती, अभिधात्मक्ता के बजाए व्यंजना और लक्षणा इसकी धरती है।’ तो उनकी यह बात उनकी लिखी अनेक कविताओं में नजर भी आती है।
जिस समय शहरों में
बेजा रौशनी हो रही थी,
चमचमा रहा था चौराहा,
चकाचौंध थी चारों तरफ़,
बिल्डिंगें झिलमिला रही थीं,
कोई लिफ्ट से ऊपर-नीचे जा रहा था,
चमक रहे थे हाथों में महँगे टच मोबाइल,
ठीक इसी समय, कई लोग अँधेरे के जबड़े में बंद थे।
कविता ‘इसी समय में’ अपने अभिधात्मक रूप में होते हुए भी शुरुआत से ही जो व्यंजना एवं लक्षण प्रस्तुत करती है वह समाज का एक नकारात्मक और डरा हुआ सा रूप भले ही पोषित करती हो किन्तु यही कड़वा सच भी है समाज का जिसमें एक ओर धनाढ्य वर्ग तथा दूसरी ओर आर्थिक रूप से निम्न वर्ग का तबका खड़ा है। हमारे समाज ही नहीं अपितु पूरे देश की स्थिति और उसका सच यह कविता अपने आरम्भ से ही बता जाती है। जहाँ एक वर्ग के पास इतना भंडार है कि जिससे बहुत बड़ा वर्ग अपना पूरा जीवन निर्वाह कर सकता है तो दूसरी ओर वह वर्ग है जिसके पास इतना भी नहीं कि वह अपने परिवार को एक समय भी खिला पाए। ना उसके पास तन ढांकने को है, न सोने के साधन पर्याप्त हैं। जबकि आजादी के समय से ही कहा गया है रोटी, कपड़ा और मकान हमारा अपना होगा। किन्तु यह आज भी ज्वलंत और विचारणीय प्रश्न बना हुआ है आजादी का अमृतवर्ष बीतने को है किन्तु मोहसिन जैसे समकालीन कवियों की कविताई में क्या कारण है कि आज भी यह प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा है।
सार्थक कविता का लक्षण यही होता है कि वह रचनाकार के साथ-साथ पाठक को भी बेचैन करे। इसी को मद्देनजर रखकर आलोचक, कवि, लेखक एवं कहानीकार मोहसिन लिखते हैं – “सार्थक कविता का लक्षण यह है कि वह व्यक्ति को बेचैन कर दे, उसे सुलाए नहीं, बल्कि उसके भीतर उतरकर, प्रश्नों को आक्रोश को जगा दे… कविता दो काम तो अवश्य करती है; एक तो व्यक्ति जड़ता को मिटा देती है, दूसरी समाज की जड़ता और अंधता के विरुद्ध लड़ना सीखा देती है।” किन्तु कुछ लोग हमारे समाज के ऐसे भी हैं जो जिन्हें तवायफ़ की श्रेणी में रखा गया है और वे चाहकर भी ना तो अपने भीतर की जड़ता को मिटा पाती हैं और ना ही समाज के पास इतना समय और धैर्य की उनकी पीड़ाओं को समझ समाजिक जड़ता से उन्हें मुक्त कर सके। परन्तु यह काम बतौर कवि मोहसिन करते नजर आते हैं जब वे लिखते हैं –
खरोंचे कितनी बदन पर पड़ गईं है न मालूम/ लेकिन वक्त सबको भर दिया करता है।
इस भरे बाज़ार में हैं बहुत तन्हा/ रोज बिकते हैं, रोज ख़रीदे जाते हैं।
कविता ‘जिस्म की गिरफ्त’ की ये पंक्तियाँ मात्र एक नजर से तवायफ़ के जीवन ही नहीं अपितु उस वर्ग की ओर भी इशारा करती है जो इन्हें खरीदने तो आता है परन्तु बेरहम तरीके से उनके जिस्मों को नोच, खा-पी दूसरे जिस्म की तलाश में लग जाता है। स्त्री का काम सदा प्रकृति की भांति देने का रहा है उसका अपनत्व भाव हमेशा देने में यकीन करता है शायद यह भी एक वजह इस पितृसत्तात्मक समाज की रही कि उसने प्रकृति से सदा लेने की इच्छा रखी। यहीं जब वह तवायफ़ पुरुष के इसी रवैये से खुद को सताई हुई महसूस करती है तो उसकी सांत्वना बटोरने का साहस कवि के रूप में मोहसिन कुछ इस कदर करते हैं –
मुझे खुद को मारना ताकि/ मैं जी सकूं
ये हुनर जरा मुश्किल है, लेकिन आजमाइश ने सब सीखा दिया है।
जीवन की इस आपाधापी में आजमाइशें केवल उस तवायफ़ की ही नहीं है हर मनुष्य के जीवन में किसी ना किसी तरह की आजमाइशें बिखरी पड़ी हैं। किन्तु सबको केवल अपनी मुश्किलें नजर आती हैं और कोई सहृदय व्यक्ति जब किसी दूसरे की मुश्किलों या आजमाइशों को समझ जाता है तो उसकी कलम से ही रिसती हैं ऐसी कविताएँ। ‘रंगतंत्र’ कविता संग्रह के अलावा उपन्यास ‘त्रियत’, ग़ज़ल संग्रह ‘सैलाब’ के अलावा कहानी संग्रह ‘कबरखुद्दा’ लिखने वाले प्रो० मोहसिन ने आलोचना के क्षेत्र में भी सामान्य लेखकों से इतर हटकर लेखन कार्य किया है। ‘प्रगतिवादी समीक्षक और डॉ० रामविलास शर्मा’ , ‘दिनकर का कुरुक्षेत्र और मानवतावाद’ , ‘अनुवाद का समकाल’ , ‘रहीम के काव्य में पुराख्यान’ , ‘नाटक: विवेचना और दृष्टि’ , ‘खंड-खंड अग्नि: भाव, संवेदना और शिल्प’ , कविता में औरत, औरत में कविता’ आदि इनकी सक्रिय रचनाधर्मिता के सूचक बनकर पाठकों के समक्ष आये हैं। यही कारण है कि देश-विदेश की तमाम जानी-मानी पत्रिकाओं से सदस्य, सम्पादक, संस्था सदस्य के रूप में भी प्रो० मोहसिन पहचान रखते हैं।
एक लेखक, कवि, कहानीकार अच्छा आलोचक हो यह जरूरी नहीं किन्तु एक अच्छा आलोचक एक अच्छा लेखक, कवि तथा कहानीकार भी हो सकता है यह अवश्य स्वीकार्य किया गया है। यही वजह है कि एक अच्छे आलोचक के साथ-साथ कवि के रूप में भी मोहसिन ने अपनी कविताओं में पर्यावरण, महिलाएं, हथियारों, भूख, निम्न-उच्च वर्ग भेद, लोकतंत्र, मानवीयता, समाज के अलावा मिडिल ईस्ट की चिंताओं को अपनी कविताओं का आधार बनाया है। ‘युग-चिंता’ कविता इसका एक स्पष्ट प्रमाण है। वे लिखते हैं –
कितनी पीड़ा सही होगी/ ईसा के साथ उन हाथों ने
सच को मारने के लिए!
जिन्होंने ठोंकी थीं कीलें/
झूठ, अन्याय, अत्याचार की
आतताइयों के आदेश पर
ईसा के हाथों और पैरों में।
यह कविता मात्र ईसा मसीह के साथ किये गये अत्याचारों की कहानी ही बयाँ नहीं करती अपितु उसके साथ-साथ उन तमाम लोगों को भी कटघरे में खड़ा करती है जो उस समय मूक दर्शक बने खड़े थे। ऐसे ही ‘बकरी चराने वाली औरतें, ‘ऑन-ऑफ़’ , ‘औरतें’, ‘जंगीले शब्द’, ‘चलन’, ‘बँटवारे की जंग’आदि जैसी कविताओं के शीर्षक और उनमें निहित मुद्दे प्रो० मोहसिन को संदेवनशील के साथ-साथ समकालीन एवं समाजवादी कवि के रूप में पहचान दिलाते हैं। ‘बँटवारे की जंग’ कविता इस दुनिया में बांटी जाने वाली हर चीज और उसे बाँट देने के समय तथा बाँट कर चलने वाली लुप्त होती प्रथा की ओर ध्यान केन्द्रित करवाती है।
इस दुनिया में/ रिजक के कितने दाने हैं,
तन ढँकने को कितने कपड़े हैं/ कितने घर और कितने कमरे हैं,
सिर छुपाने को।
फिर भी कितने लोग/ भूखे, नंगे और बेघर हैं!
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एक आखरी जंग होगी आपस में,
लेकिन इस जंग में चीजें तो होंगी,
बाँटने और लेने के लिए कोई बचा न होगा।
दरअसल जंगें जितनी भी हुई दुनिया में आज तलक वे सब बँटवारे को लेकर ही हुई, ज्यादातर जंगों में यही नजर आता है। बँटवारे के बहाने से अपना प्रभुत्व स्थापित करने की होड़ इंसानों में सदा रही है। यह जानते हुए भी कि इसके परिणाम बुरे ही होने हैं। इसी तरह प्रो० मोहसिन के इस काव्य संग्रह में सम्मिलित पचास से भी अधिक कविताएँ पठनीय तो हैं हीं साथ ही वे किसी भी सहृदय, संवेदनशील एवं समाजवादी अवधारणा को अपने मस्तिष्क के गर्भ में पालने वाले व्यक्ति को और अधिक सामाजिकता के धरातल पर ले जाने में कामयाब होती हैं।
लेखक – प्रो० डॉ० मोहसिन खान
काव्य संग्रह – रंगतंत्र
प्रकाशक – लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ
संस्करण – 2018
मूल्य – 150/-
समीक्षक – तेजस पूनियां
लेखक, समीक्षक, फिल्म समीक्षक एवं शोधार्थी