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बुक रिव्यू- संस्मरणों की विश्वसनीयता का अखंड स्वरूप ‘जो दिल ने कहा’

संस्मरणों की विश्वसनीयता का अखंड स्वरूप ‘जो दिल ने कहा’ आधुनिक समय के लोकप्रिय नाटककार प्रताप सहगल की लिखी संस्मरणों की पुस्तक है। इस किताब में बतौर लेखक प्रताप सहगल ने किन संस्मरणों को याद किया है आज बुक रिव्यू के बहाने से पड़ताल इस किताब की….

हिंदी साहित्य की कुछ सबसे प्रमाणिक विधाएं है जिसमें आत्मकथा, जीवनी प्रमुख हैं। आत्मकथा किसी साहित्यकार, लेखक आदि के जीवन का भोगा हुआ या कहें अब तक जिया गया जीवनवृत होता है जिसे वह कलमबद्ध करता है। जबकि जीवनी किसी अन्य चर्चित, प्रेरणादायक व्यक्ति के जीवन को समग्र रूप से समाहित करते हुए उसके जीवनानुभवों तथा जीवन जीने के ढंग को लेकर लिखी गई बात होती है। जीवनी के ही एकदम निकट की विधा है संस्मरण। संस्मरण जीवनी से थोड़ा विलग है तो इसी रूप में कि जिस व्यक्ति को लेकर स्मृतियाँ लिखी जा रही हैं उन्हें उस व्यक्ति द्वारा साहचर्य जीवन जीते हुए संजोया गया हो। हिंदी के लगभग तमाम चर्चित साहित्यकारों ने संस्मरण लिखे हैं लिहाजा यह तो कहना उचित नहीं ही होगा कि हिंदी साहित्य की यह विधा समृद्ध नहीं है। इस विधा को समृद्ध करने में सरस्वती, सुधा, माधुरी, चाँद, विशाल भारत जैसी प्रतिष्ठित तथा ख्यातनाम पत्रिकाओं ने सहारा देकर न केवल आगे बढ़ाया बल्कि उसे पूर्ण रूपेण समृद्ध भी किया। यदि हिंदी साहित्येतिहास में दर्ज सर्वप्रथम संस्मरण लेख की बात की जाए तो साल 1907 में बाबू बाल मुकुंद गुप्त ने प्रताप नारायण मिश्र को लेकर जो लिखा था उसे हिंदी का पहला संस्मरण स्वीकार किया गया।

हालांकि जब भी किसी क्षेत्र में कुछ नया जन्म लेता है या सृजन की प्रक्रिया आरम्भ होती है तो उसमें निश्चित तौर से परिपक्वता होगी ही ऐसा सम्भव नहीं है। इसी बात को मद्देनजर रखते हुए जब पड़ताल पहले संस्मरण की हो तो आलोचकों का मत प्रथम संस्मरण लेखक स्वामी सत्यदेव परिव्राजक या पद्मसिंह शर्मा ‘कमलेश’ के पक्ष में प्रबल रूप से दिखाई पड़ता है। यहाँ प्रथम संस्मरणात्मक लेख या प्रथम संस्मरण लेखक की बहस को तार्किक रूप से टटोलने के बजाए उस पर संक्षिप्त बात कर अब सीधे चर्चित साहित्यकार प्रताप सहगल के लिखे संस्मरणों की पुस्तक ‘जो दिल ने कहा’ पर शुरू करना बेहतर होगा।

संस्मरणों की विश्वसनीयता का अखंड स्वरूप ‘जो दिल ने कहा’
संस्मरणों की विश्वसनीयता का अखंड स्वरूप ‘जो दिल ने कहा’

साहित्य की कोई भी विधा हो उसे प्रताप सहगल रपटीली क्यों मानते हैं इस बात का जवाब सबसे पहले भूमिका में ही नजर आता है। इधर आज के दौर में हर पढ़ा लिखा आदमी लेखक बनने के सपने तो जरुर संजोता है भले ही वह उस दिशा में कुछ कर पाए या नहीं लेकिन यह बात मौखिक रूप से सर्वविदित है कि लेखक बनने की ख्वाहिश बहुतेरे लोग रखते हैं। इस बात का जवाब प्रताप सहगल भूमिका में कुछ यूँ कहते हुए लिखते हैं – “साहित्य की किसी भी विधा में लिखने के लिए दाखिल होते ही लगने लगता है कि यह राह दूसरी राहों से न सिर्फ अलग है, बल्कि कुछ रपटीली भी ज्यादा है।” हालांकि सहगल संस्मरण विधा को लेकर रपटीला मानते हैं लेकिन केवल यही नहीं अपितु हर किसी के लिए साहित्य की हर विधा ही रपटीली है कहा जाए तो भी कुछ गलत न होगा। यहाँ रपटीला का अर्थ उस विधा में लिखने की दूरूहता से है जबकि भूमिका इसे केवल संस्मरण के रूप में बांधती नजर आती है। चाहे जो हो इतना तो तय है कि साहित्य आपसे आपकी प्रतिबद्धता की चाहना रखता है। और इसी प्रतिबद्धता से एकबार पुन: लेखन करते हुए यह संस्मरण की पुस्तक ‘इंडिया नेटबुक्स’ से प्रकाशित हुई है।

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प्रताप सहगल साहित्य का वह चर्चित और सदैव दैदीप्यमान रहने वाला चेहरा है जो ‘संगीत नाटक अकादमी पुरूस्कार – 2022’ को भी अपनी रचनात्मकता से सदा दीप्त रखेगा। अविभाजित भारत में जन्म लेने वाले प्रताप सहगल का व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों उनके नाम रुपी प्रताप को किस तरह प्रकाशित किये है वह उन्हें पढ़ने वाले पाठकगण ही बता सकते हैं। एक अप्रतिम कवि, एक अप्रतिम नाटककार, एक अप्रतिम कथाकार, एक अप्रतिम आलोचक और बच्चों में विशेष रूप से लोकप्रिय अपनी बाल रचनाओं के माध्यम से तो हैं हीं इन सबके साथ-साथ वे बेहतरीन यात्रा-वृत लेखक भी हैं। ‘सवाल अब भी मौजूद है’ अपने पहले कविता संग्रह से सहगल की जो सशक्त लेखकीय छवि बनी वह उन्हें क्रमोत्तर आरोहीक्रम में बढ़ाती चली गई। फिर चाहे ‘आदिम आग’, ‘अँधेरे में देखना’, ‘इस तरह से’, ‘छवियाँ और छवियाँ’, ‘मुक्ति-द्वार के सामने’आदि कविता संग्रह हों या ‘अन्वेषक’, ‘रंग-बसंती’, ‘नहीं कोई अंत’, ‘मौत रात भर क्यों नहीं आती’, ‘यूँ बनी महाभारत’, ‘तीन गुमशुदा लोग’, ‘पांच रंग नाटक’, ग्यारह लघु नाटक’, ‘मेरे श्रेष्ठ लघु नाटक’, ‘कोई और रास्ता’, ‘दो बाल नाटक’, ‘हरियाली की रानी’, ‘दस बाल नाटक’ आदि कई नाटकों के संग्रह ने उन्हें वर्तमान समय के सबसे बड़े नाटककारों की श्रेणी में सबसे अग्रिम ला खड़ा किया है। प्रताप सहगल के साहित्य का प्रताप इतना विस्तृत है कि उस तक पहुँच पाना किसी भी लेखक या आमजन के लिए कैलाश चढ़ने जैसा है। साहित्य की शायद ही ऐसी विधा होगी जो इनके प्रताप से अछूती रही हो। प्रत्येक विधा में कोई इतना पारंगत भला कैसे हो सकता है? जब यह संस्मरण की पुस्तक पाठक पढ़ेंगे तो जान पायेंगें।

संस्मरणों की विश्वसनीयता का अखंड स्वरूप ‘जो दिल ने कहा’
संस्मरणों की विश्वसनीयता का अखंड स्वरूप ‘जो दिल ने कहा’

सहगल भूमिका में लिखते हैं “संस्मरण किसी भी दृष्टि से पाठक को कुछ अच्छा करने के लिए प्रेरित करे या विभिन्न समुदायों, जातियों, धर्मों अथवा वर्णों में सद्भाव जगाए तो मैं उसे एक अच्छा संस्मरण मानूँगा।” इसी में आगे वे संस्मरण लिखने वालों को नसीहत भी देते नजर आते हैं जब वे लिखते हैं– “व्यर्थ की गप्पबाजी से बचना चाहिए। संस्मरण तथ्यों पर आधारित हो। उन तथ्यों, स्थितियों, घटनाओं एवं संबंधों को देखने की दृष्टि भले ही अलग हो सकती है, लेकिन जो भी लिखा जाए, उन तथ्यों में प्रामाणिकता हो। अगर आपके पास तथ्य हैं, ब्यौरे हैं लेकिन दृष्टि नहीं है तो उस तरह का संस्मरण भी केवल जानकारी देने तक सीमित रह जाएगा। उससे आगे संस्कारित करने की भूमिका नहीं निभा सकेगा।” संस्मरणों की विश्वसनीयता का खंडित नहीं बल्कि अखंडित स्वरूप ‘जो दिल ने कहा’पाठकों के समक्ष रखती है जिसमें पाठकों को पढ़ते हुए यह ज्ञात होता है कि हालावादी कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ से लेकर ‘सुमित्रानंदन पन्त’,‘विष्णु प्रभाकर’,‘सुधीश पचौरी’,‘गिरिजाकुमार माथुर’,‘गोपालप्रसाद व्यास’,‘विजयेन्द्र स्नातक’,‘रामदरश मिश्र’ तक की उनकी सुनहरी यादें हैं जिन्हें याद करते हुए जब उन्होंने संस्मरण के रूप में पिरोया तो वे उनके पाठकों के लिए ख़ुशी का सबब तो बन ही गईं बल्कि लेखक, साहित्यकार प्रताप सहगल को उन पाठकों के बीच में इस तरह जाकर बैठ गईं कि मानों उन्हें संस्मरण के रूप में एक दस्तावेज मिल गया जिसे वे सदा सजेहकर उनकी समृतियों को न केवल अपने साथ जिलाए रखेंगे अपितु साहित्याकाश में उन्हें अमरस्थान देंगे। ‘व्यक्ति को जीना और जानना’ से लेकर ‘स्वयं को जीते हुए’ अपने को ‘बाहर से अंदर आते हुए’ देखने की प्रक्रिया रुपी क्रम से लिखे गये ये संस्मरण साहित्य के हर वर्ग को सदा संस्मरण लेखन की प्रेरणा देने का काम करेंगे। जिस तरह अपने प्रिय कवि ‘हरिवंशराय बच्चन’ से मिलने की यादों को लेखक न केवल साझा करते हैं बल्कि उनके साहित्य की गूढ़तम बात लिखते तो वह भी किसी शोध को नई दिशा प्रदान करने का ही काम करती नजर आती है। वे लिखते हैं – “लड़कपन में पड़े हुए प्रभाव ताउम्र साथ चलते हैं। हाँ, जैसे-जैसे मेरा मानसिक विकास होता गया, उनकी कविताओं के निहितार्थ भी समझ आने लगे। उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि भी सपष्ट होती गई।”

जिस तरह इस पुस्तक की भूमिका के अंत में प्रताप सहगल लिखते हैं – “इस पुस्तक का नाम ‘जो दिल ने कहा’ इस बात की गवाही देता है कि इनके पीछे कोई सुनियोजित पाठ तैयार करना नहीं है। समय-समय पर अर्जित अनुभवों के सहारे दिल में जहाँ कोई विचार उछला, संस्मरण लेखन की ओर प्रवृत हुआ।” तो उनका यह कहना आज तक उनके जिये गये निश्छल जीवन की बानगी भी प्रस्तुत कर जाता है। जिसको पाठक उनके जिये गये खट्टे-मीठे लम्हों को कागज के पन्ने पर संस्मरण के रूप में पढ़कर और करीब से जान सकेगा। यह मात्र संस्मरण ही नजर नहीं आते बल्कि अपने साथ एक पूरी बड़ी पीढ़ी को लेकर चलते नजर आते हैं ठीक वैसे जैसे हिंदी साहित्य का इतिहास आदिकाल से शुरु होकर आधुनिक काल में अब तक चला आ रहा है सतत् वैसे ही बच्चन जी लेकर वर्तमान समय के नाटककार अजहर तक इसमें सब समाहित है लेखकीय कर्म से और वहीं अपने बचपन की यादें और सीख तथा प्रेरणा प्रदान करने वाले संघर्षों से लड़कर कोई इंसान जब कुछ करने चलता है तो वह कैंसर तक को तो मात देता ही है साथ ही बचपन से ही अपने भीतर जिन सात्विक संस्कारों को भरते हुए पाता है वे इस तरह के लेखन से पाठकों को भी सात्विकता से भरते हैं। संभवत इसलिए सहगल लिखते हैं “लड़कपन में पड़े हुए प्रभाव ताउम्र साथ चलते हैं।”

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कविता में अपनी लकीर खुद खींचने की बातें और सलाहें जो बच्चन जी ने प्रताप सहगल को दीं उनका भी उन्होंने भरपूर ख्याल रखते हुए कविता जगत में भी अपना मुकाम स्थापित किया वह भी ऐसा जो हर कोई चाहेगा। सहगल एक संस्मरण में लिखते हैं – “संबंधों की उष्मा में अवधि कहीं मायने नहीं रखती। दो दिन की मुलाक़ात भी संबंधों के अजनबीपन को नहीं छांट सकती।” उनका यह कहना आम पाठक ही नहीं बल्कि आम नागरिक इस देश जो कोई हो वह हो न हो इस बात को सराहेगा ही नहीं बल्कि एक अकाट्य तर्क के रूप में भी इस्तेमाल करेगा। प्रताप सहगल के ये तमाम संस्मरण उन्हें और करीब से जानने का अवसर तो किसी पाठको को देते ही हैं साथ ही उनके पाठकों को इन्हें पढ़ने के बाद उनके जीवन में घटित अन्य घटनाओं को भी जानने की एक रुचि जागृत होगी। वर्तमान दौर के तमाम लेखकों के संस्मरणों में प्रताप सहगल के लिखे संस्मरण उनकी साहित्यिकता, मित्रता, जीवनत्व का अखंड स्वरूप है।

 

पुस्तक – “जो दिल ने कहा
लेखक – प्रताप सहगल (Partap Sehgal)
विधा – संस्मरण
प्रकाशक – इंडिया नेटबुक्स प्राइवेट लिमिटेड
मूल्य एवं संस्करण – 350/- संस्करण – 2023
समीक्षक – तेजस पूनियां

‘जो दिल ने कहा’ को अमेजन की इस लिंक से ख़रीदा जा सकता है।

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