बुक रिव्यू- हास्य, व्यंग्य से भरपूर ‘प्रेग्नेंट फादर’
अपने तेज-तर्रार एवं मुखर लेखन तथा अभिनय से कला तथा साहित्य जगत में अपनी छाप छोड़ने वाली ‘विभा रानी’ ने अब तक बीसियों किताबें लिखीं हैं। कहानी संग्रह तथा नाट्य लेखन में विशेष पहचान बनाने वाली विभा कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाजी जा चुकी हैं। किताबघर प्रकाशन से उनकी किताबें छपी हैं, किताबों के रिव्यू की कड़ी में आज पढ़िए गंगानगर वाला पर बुक रिव्यू- हास्य, व्यंग्य से भरपूर ‘प्रेग्नेंट फादर’
प्रेमचंद अपने चर्चित उपन्यास ‘गोदान’ में मेहता के माध्यम से कहलवाते हैं- पुरुष में यदि स्त्री के गुण आ जाएँ तो वह देवता बन जाता है और यदि स्त्री में पुरुष के गुण आ जाएँ तो वह कुलटा बन जाती है। लेकिन क्या हो जब कोई लेखक कथा सम्राट एवं हिंदी साहित्य के महनीय लेखक प्रेमचन्द की इस पंक्ति को आत्मसात कर उस पर एक नाटक ही लिख दे!
विभा रानी साहित्य तथा सिनेमा जगत का एक ऐसा नाम जिसे बहुत मान-सम्मान मिला अपने लेखन के चलते। लेकिन व्यक्तिगत जीवन में बहुत बार ऐसा भी हुआ की उन पर भद्दी टिप्पणियाँ की गईं। बावजूद अपने पर कसी जाने वाली उन फब्तियों के विभा ने उन्हें नजर अंदाज कर अपना काम जारी रखा। न केवल वे चलती रहीं अपनी राह पर बल्कि उन्होंने उस समाज को एक करारा तमाचा भी जड़ा अपने काम से।
हिंदी और मैथिली भाषा में समान रूप से पकड़ बनाये रखने वाली विभा रानी साहित्य तथा सिनेमा में अपने बेहतरीन योगदान के लिए कई बार सम्मान पा चुकीं हैं। लाल कप्तान, अनवांटेड, मानसून, फ़ुटबॉल जैसी फिल्मों में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवाने वाली विभा रानी थियेटर का प्रशिक्षण भी कलाकारों को देती रहीं हैं। नाट्य लेखन में वर्तमान समय में सबसे अधिक सक्रिय विभा रानी करीब दो दर्जन से अधिक किताबें लिख चुकी हैं।
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‘प्रेग्नेंट फादर’ नाटक को जहाँ नेमीचन्द्र जैन नाट्य लेखन सम्मान से नवाजा गया वहीं ‘अगले जन्म मोहे बिटिया न कीजो’ को मोहन राकेश सम्मान मिला। इसके इतर वे ‘द= देह, दरद और दिल’ ,’अजब शीला की गजब कहानी’ , कनियाँ एक घुंघरूआवाली’, चल खुसरो घर आपने’, ‘कांदुर कड़ाही’ , ‘बंद कमरे का कोरस’ , शकुन सैमुराई’ जैसे कहानी संग्रह तथा नाटक भी लिख चुकी हैं।
‘प्रेग्नेंट फादर’ नाटक पढ़ने समय जितना हास्य पाठक के समक्ष प्रस्तुत करता है उतना ही वह तथाकथित मर्दवादी समाज पर एक कटाक्ष भी करता है। इसलिए ही संभवत विभा रानी अपने इस नाटक को उन लोगों को समर्पित करती हैं जो पुरुष माँ होने की अनुभूति रखते हैं। इंसानियत का एक धर्म ममत्व का भाव रखना भी है। यह जरुरी नहीं की यह गुण केवल स्त्री में ही हों किन्तु यह जरुर है हमारे-आपके तथाकथित मर्दवादी, पितृसत्तात्मक समाज में की यदि कोई पुरुष ममत्व का भाव रखता है अथवा प्रेमचन्द के कथन की भांति किसी पुरुष में यदि स्त्री के गुण हैं तो वह इस पितृसत्तात्मक समाज के लिए हेय, उपेक्षा की दृष्टि का शिकार अवश्य होता आया है आज भी।
यह नाटक केवल एक पुरुष के गर्भवती होने तक सीमित नहीं रहता अपितु यह हमारे-आपके मिथकों को भी बीच-बीच में संवादों के माध्यम से प्रस्तुत करता है जहाँ विभा लिखती हैं- यह चमत्कारों वाला देश है! यहाँ हवा से हनुमान जन्म लेते हैं। मछली के पेट से खूबसूरत सत्यवती पैदा हो जाती है। कुंती के कान से कर्ण उत्त्पन्न हो जाता है। यज्ञ की खीर से राम सहित चारों भाई आ जाते हैं। यह अपना देश है प्यारे! कुछ भी संभव है।
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शिखंडी के गर्भवती होने पर जब शिखंडी खुद पसोपेश में उलझा हुआ है तब डॉ. का यह कहना कि- यू शुड बी हैप्पी फॉर क्रिएटिंग हिस्ट्री। इस दुनिया के आप पहले मर्द होंगे, हू इज प्रेग्नेंट एंड हू विल डेलिवर अ बेबी। ड्यूड! आ’म प्राउड ऑफ़ यू। यहाँ मुझे एक फिल्म का संवाद याद आता है (हालांकि उस फिल्म का नाम और उसमें अभिनय करने वाले कलाकारों तक को भूल चुका हूँ लेकिन बचपन की स्मृति इस नाटक को पढ़ते हुए ताजा हो उठी) जब एक अभिनेत्री कुछ अभिनेताओं पर चिल्लाते हुए खुद पर हुए अपमान की आग में जलते हुए कहती है- अगर मेरा बस चलता तो मैं हर मर्द से एक बच्चा जनवाती तब इन मर्दों को पता चलता। उस फिल्म में नायिका का जो दर्द था वह इस नाटक में साकार होकर उभरा है। भले ही कल्पनाओं के सहारे, किन्तु वर्तमान समय में वैज्ञानिकता इतनी बढ़ चुकी है कि अब यह काम असम्भव भी नहीं लगता।
यह नाटक केवल पुरुष के नजरिये से ही पाठक को पकड़ कर नहीं रखता अपितु एक सह्दय पाठक के नाते वह स्त्री के मन को भी झांकता है। जहाँ शिखंडी की माँ कहती है- आर्दश नारी सुशीला बेटा!… यही तो हमारी भारतीय संस्कृति है। सहना और कोई जवाब नहीं देना…! बहुत भली थी। मैंने उसे हनीमून पर नहीं भेजा। उसके बाप से मैंने हनीमून पर जाने के पैसे भी ले लिए थे। यहाँ विभा अपने पात्र के संवाद के माध्यम से यह दिखाती है कि किस तरह एक स्त्री ही स्त्री की खिलाफत करती है किन्तु साथ ही जब उसका दिल मोम होता है तो वह ग्लानि के भाव से भी भर उठती है। यह भी इंसानियत का एक पहलू है जब आप किसी पर बेवजह रोक लगाएं और बाद में जब आप पश्चाताप की अग्नि में जल उठें तो फिर आप मानवीय गुणों के सोते को अपने भीतर से बाहर इस तरह निकाल फेंके की उसके प्रति अथाह प्रेम फूट पड़े।
ऐसे ही एक ओर जगह शिखंडी की माँ का अजीब बर्ताव देखने को मिलता है जब वह कहती है- अच्छा खासा काम धंधा कर रही थी। मगर वह सीता से द्रोपदी बन गई। बताओ तो भला! सीता मैया धरती में समा गई, तब भी चुप रही। लेकिन यह तो द्रौपदी की तरह सवाल करने लगी। यहाँ शिखंडी की माँ का व्यवहार भी आम हिन्दुस्तानी महिला जैसा नजर आता है। आपके-हमारे घरों और पास पड़ोस में भी आप झाँक कर देखें तो यही पाएंगे कि सभी को बहुएँ सीता जैसी चाहिए फिर वे खुद भले ही शूर्पणखा जैसी क्यों न हों। इसके इतर भी माँ का एक ओर रूप नजर आता है वह ममत्व का जहाँ माँ की इच्छा अब भी है परन्तु अपने ही बेटे से बेटे की इच्छा।
विज्ञान के चमत्कार को नमस्कार करता यह नाटक विज्ञानेश्वर मंदिर, साइंसेश्वर मंदिर तक स्थापित करने की भी बात करता है। और ऐसा हो भी क्यों ना जब हमारे देश में इतने मंदिर बन रहे हैं तो साइंस ने हमें वह सब कुछ दिया है जिससे हमारा जीवन बेहतर हुआ है। लिहाजा विज्ञान का दर्जा भी तो उसी के बराबर होना चाहिए। हालांकि यह और बहस का मुद्दा हो सकता है कि विज्ञान के नुकसान भी बहुत हुए हैं।
यह नाटक प्रेग्नेंट फादर एक साथ कई मुद्दे उठाता है जिसमें एक पुरुष के गर्भवती होने कि कथा प्रमुख है तो वहीं इसके साथ-साथ पुरुष तथा स्त्री समाज कि बातें तथा हमारे मिथकों और मीडिया एवं विज्ञान कि बातें। मिथकों की कई बातें और एक महाभारत की कहानी के साथ आगे बढ़ता हुआ यह नाटक पाठकों को हास्य-व्यंग्य की पूरी खुराक देता है जिसे एक ही सिटिंग में बैठकर पढ़ा जा सकता है।
हिंदी में नाटक लेखन में कोई इतना मुखर लेखक वह भी स्त्री वर्तमान समय में कोई ओर मुश्किल से ही मिले। एक कलाकार होने के साथ-साथ विभा रानी अपने लेखनकर्म से पाठकों को भी संतुष्ट करती नजर आती हैं। कुल सात दृश्यों में लिखा गया यह नाटक एक पुरुष के द्वारा गर्भ के दिनों के समय को भी भरपूर जीता है। विभा रानी ने अपने इस नाटक से नाट्य लेखन में वह लकीर खींच दी है जो नितांत मौलिक और नई सोच का प्रतिपादन करती है। विभा रानी अपने इस नाटक से अपने प्रभावशाली एवं तेज-तर्रार लेखन को भी पाठकों के समक्ष रखती हैं जिससे पाठकगण पूरा आस्वादन ले सकें। हो-न-हो बहुतेरे पुरुषों जो इस तथाकथित सभ्य समाज के ढाँचे में फिट नहीं बैठते हों उन्होंने भी कभी प्रेग्नेंट फादर बनने की इच्छा को अपने भीतर जन्म दिया होगा। यह दूसरी बात है कि वे सफल नहीं हो पायें हों चाहे फिर कारण जो भी हों। लेकिन जरा सोच कर देखें अगर पुरुषों में यह इच्छा बलवती हो उठी कभी अथवा कभी किसी ने प्रेग्नेंट फादर बनने की इच्छा जाहिर भी कर दी तो क्या होगा? यह नाटक अपने समय से कहीं आगे कि सोच को भी लेकर चलता है यही वजह है कि इस नाटक को नेमीचन्द्र नाटक लेखन सम्मान भी दिया गया।
‘प्रेग्नेंट फादर’ नाटक को अमेजन की इस लिंक से खरीदा जा सकता है।
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