रिव्यू- बिना हड्डी का मुर्गा है ‘भवानी’
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बीस साल पहले संभु के बाबा ने भवानी के बाबा को मार दिया जोरावर के कहने पर और संभु के बाप को मरवा दिया पुलिस के हाथों। अब कुछ समय बाद भवानी को यह बात पता चली जब वह बाग़ी बन चुका है। एक पढ़-लिखकर काबिल आदमी बनने के सपने देखने वाले लड़के के यूँ बाग़ी बन जाने की कहानियाँ हिंदी पट्टी के सिनेमा कई बार हमें दिखा-सुना चुके हैं। वैसा ही कुछ भवानी में भी है। जोरावर कई लोगों को अपने में मिलाकर अपने दुश्मनों को खत्म कर रहा है। ऐसे में क्या भवानी बच पायेगा? क्या वह बाग़ी बनकर जोरावर से अपने पर हुए अपराधों का बदला ले पायेगा? कौन है भवानी और दद्दा की गैंग का मुखबिर? यह सब भवानी दिखाती बताती है।
स्टेज एप्प पर आई गजेन्द्र शंकर श्रोत्रिय निर्देशित उन्हीं की लिखी पटकथा के सहारे जैसे-जैसे आगे बढ़ती है आप चेहरों पर बिना कोई भाव लिए देखते जाते हैं। और अंत तक यह फिल्म सपाट चलती नजर आती है। किन्तु यह फिल्म गजेन्द्र की ही बनाई पिछली वेब सीरीज (वकील साहिबा) की भरपूर कमियों को ढांकती तो हैं लेकिन उनके इन सुधारों के बावजूद भवानी (Bhawani) बिना हड्डी के उस मुर्गे जैसी है जिसका चिकन बटर मसाला बनाने पर आपको लैग पीस नजर नहीं आते। और जब चिकन बटर मसाला खाते हुए आपकी थाली में लैग पीस ना आये तो उसका मजा कहाँ?
दरअसल पिछली बार ‘वकील साहिबा’ के रिव्यू में मैंने कहा था (राजस्थानी सिनेमा को ‘भोभर’ जैसी उम्दा और ‘लाठी’ तथा ‘कसाई’ जैसी अच्छी फ़िल्में दे चुके निर्देशक ‘गजेंद्र श्रोत्रिय’ जी आखिर ऐसी क्या मजबूरी रही कि आपने ऐसा कचरा परोसने के लिए स्टेज से हाथ मिलाया। उनका तो चलो मान लिया ओटीटी है उन्होंने फ़िल्में ही दिखानी है। लेकिन क्या आपको अब तक राजस्थानी सिनेमा में अपनी बनाई हुई इज्जत का जरा भी ख्याल नहीं रहा? इसके लिए भले ये दुनिया माफ कर दे लेकिन जो सिने शैदाई आपके सिनेमा में असीम संभावनाएं तलाश करता था आपने उसकी संभावनाओं और उम्मीदों को पैरों तले रौंदा ही नहीं है बल्कि उसे विश्वास दिलाया है कि आप ऐसी गलती ओह गलती नहीं अपराध भी कर सकते हैं।
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इस (वकील साहिबा) सीरीज को ऐसा ट्रीटमेंट देकर आपने जो सिनेमाई पाप किया है उसके लिए आपको धारा 151 के तहत पाबंद किया जाता है कि आप या तो पांच अच्छी फ़िल्में राजस्थानी सिनेमा को देकर अपने इस पाप से मुक्ति पा लीजिए या फिर सिनेमा बनाने की फिर से ऐसी कोशिश मत कीजिए।)
गजेन्द्र शंकर श्रोत्रिय ने उन पाँच में से एक अच्छी फिल्म बनाने की कोशिश की है। लेकिन ये इतनी भी अच्छी नहीं है। कारण गजेन्द्र शंकर तकनीकी स्तर पर तो अच्छा खेलते नजर आते हैं किन्तु कहानी को पटकथा में ढालते हुए वे भाव नहीं उपजा पाते जहाँ आपको आँखें नम करने के सीन दिखें और आपकी आँखों के कोर भीगे। ठीक ऐसे ही जहाँ हास्य का सीन दिखे वहाँ आपके चेहरे पर हँसी नहीं तैरती।
बतौर निर्देशक गजेन्द्र जी आपको अपनी ही बनाई फिल्मों को एक बार फिर से देखना चाहिए यह मुमकिन है आप अपनी कहानियों में फिर से भाव जगा पायें। चरण सिंह पथिक की लिखी इस कहानी को फिल्माते समय गजेन्द्र शंकर श्रोत्रिय कई जगहों पर ‘पान सिंह तोमर’ और ‘सोनचिड़िया’ फिल्म से प्रभावित ही नहीं दिखते बल्कि उनके सीन भी ज्यों के त्यों अपनी फिल्म में डाल देते हैं। साथ ही कई और फिल्में, वेब सीरीज से सीधा उठाकर बैक ग्राउंड स्कोर तक बनाया गया है। कम से कम इस कॉपी पेस्ट की प्रक्रिया में कुछ तो अपना भी मिला लिया होता आप लेखक-निर्देशक ने। पुनीत धाकड़ ने बतौर कैमरावर्क हमेशा की तरह उम्दा किया है।
कायदे से यह फिल्म पुनीत धाकड़ के कारण ही जो थोड़ा बहुत चिकन बन पाई है उसके लिए उनकी तारीफें की जानी चाहिए। विष्णु तोमर की काबिलेगौर एडिटिंग, विहेक के द्वारा खोजी गई उम्दा लोकेशन्स, औसत बैकग्राउंड स्कोर के साथ आयुष मेहता, प्रिथविश माजी, आदर्श मेहरा के मसालों के चलते भी यह गजेन्द्र शंकर श्रोत्रिय के ‘वकील साहिबा’ से किये गये गुनाहों का भार उठाती नजर आती है।
लव कुमार सोनी, रोहन सिंह, वैष्णवी शर्मा, शेफाली वीर, मोईन अयान, अजय जैन, देव राजोरा, किरण चौहान, दीपक, गोविन्द सिंह शेखावत आदि के ठीक-ठाक अभिनय के साथ रमन मोहन कृष्णात्रे, शुभम अमेता, अल्ताफ हुसैन के छा जाने के चलते भी यह फिल्म गजेन्द्र शंकर श्रोत्रिय की लाज को बचाने की भरपूर कोशिश करती है। अभी भी बतौर निर्देशक गजेन्द्र शंकर श्रोत्रिय को बहुत कुछ सुधारों की जरूरत है। ठीक वैसे ही जैसे स्टेज एप्प में हल्के-हल्के बदलावों की आहट अब आने लगी है, राजस्थानी सिनेमा के नाम पर। कुलमिलाकर आप फिल्म के डायलॉग की तरह कह सकते हैं निर्देशक को, कि इनके गेयर वायर खराब हैरो, या फेर भी गाड़ी चलावे की सुझरी है।
अपनी रेटिंग …. 3 स्टार