रिव्यू – बेहतर जिंदगी की तलाश में ‘बीच का रास्ता नहीं होता’
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मैं हमेशा से कहता रहा हूँ कि इंडिपेंडेट डायरेक्टर्स के लिए हमारे देश में कई दुश्वारियां हैं। ‘बीच का रास्ता नहीं होता।’ फ़िल्म भी उन्हीं डायरेक्टर्स में से एक ‘अनिल कुमार आनंद’ की फ़िल्म है। साल 2012 में बन कर तैयार हुई इस फ़िल्म की कहानी असल जीवन से भी जुड़ती है जहाँ बेहतर जिंदगी की तलाश में लोग लगे हुए हैं।
भारत का एक आदिवासी इलाका जहाँ एक आदमी को पुलिस पकड़ कर लाई है। उस पर अपराध लगा है अपने ही गाँव के मुखिया को मारने का। लेकिन क्यों मारा उसने? आखिर एक आम आदिवासी आदमी का मुखिया से क्या बैर? पुलिस ने क्या किया उसके साथ? इसके अलावा फ़िल्म की कहानी के भीतर फ्लैश बैक के रूप में एक ओर कहानी दिखाई, बताई जाती है उसी आदिवासी के बेटे को लेकर।
इधर फ़िल्म के कुछ संवाद देखिए – अध्यापक क्या किया है सरकार ने हम अध्यापकों के लिए? यह मेरी जिम्मेदारी नहीं है ये सवाल उनसे कीजिए जो देश को बेच कर खा गए।
अध्यापक – तुम्हें किसने हक दिया किसी की जान लेने का?
आदिवासी – पुलिस को किसने दिया ये हक?
यह संवाद फ़िल्म में बेशक एक साधारण बातचीत जैसे लगें आपको लेकिन इन संवादों के भीतर की गहराई आपको तभी समझ आती है जब आप भी अपने भीतर उतने गहरे उतर कर देख, सोच पायें।
यह फ़िल्म मात्र आदिवासियों के जीवन को करीब से दिखाती भर नहीं बल्कि यह उन आदिवासियों के जीवन को भी दिखाती है जिसे आपने हाल में ‘जोरम’ फ़िल्म में देखा है। आदिवासियों, दलितों, पिछड़ों, शोषितों, महिलाओं की कहानियों को हमारी हिंदी पट्टी के फ़िल्म निर्माताओं, निर्देशकों ने बहुत बार गहनता से दिखाया, बताया है। उसी गहनता की बानगी ‘बीच का रास्ता नहीं होता’ भी है।
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निर्देशक ‘अनिल कुमार आनंद’ जिस धीर, गंभीर सिनेमा को बनाने में जुटे हुए हैं उससे भले वे एक बड़े या मुख्यधारा के निर्देशकों में ना गिने जाएँ लेकिन वे उस धारा में अवश्य गिने जाने लायक काम कर रहे हैं जिसे अपार प्रशंसाएं मिलती हैं और मिलनी चाहिए। शॉर्ट फ़िल्मों का मारक होना बेहद जरुरी होता है तभी वे आपको सोचने पर विवश करती हैं और एक बहस का मुद्दा खड़ा करती हैं। अनिल इस मामले में भी आगे खड़े नजर आते हैं जहाँ से उनकी फ़िल्मों पर बहस शुरू की जा सके। यही वजह है कि यह फ़िल्म देश के कई विश्वविद्यालयों में आज भी दिखाई जाती है।
कहानी के लिए, निर्देशन के लिए जब ऐसी फ़िल्में दिखाई जाएँ तो वे अवश्य ही एक और संवेदनशील निर्देशक को भी जन्म देती हैं। ‘अब्बास अली दफादार’ और खुद निर्देशक द्वारा निर्मित इस फ़िल्म में जिस आदिवासी पुरुष का किरदार ‘अशरफ़ुल हक़’ ने निभाया है वे आदिवासियों के जीवन के बेहद करीब नजर आते हैं।
मास्टर जी के रूप में ‘हर्षा प्रसाद’ एक संवेदनाओं से भरे मास्टर नजर आते हैं। पुलिसमैन ‘विरेंदर शर्मा’ और कुछ क्षण के लिए आने वाले आदिवासी के लड़के ‘अक्षय’ सभी मिलकर फ़िल्म की कहानी को अपने अभिनय से उस स्तर पर ले जाकर छोड़ते हैं जहाँ से आप इस फ़िल्म के खत्म होने के बाद भी कुछ क्षण विचारों में डूब जाते हैं। आपका मन-मस्तिष्क कुछ क्षण के लिए थम सा जाता है। और यही इस फ़िल्म की खासियत भी है कि थमी-थमी सी यह फ़िल्म अपने किरदारों के थमे-थमे से अभिनय के चलते प्रशंसाओं की हकदार बनती है।
‘द गेस्ट’ ‘अल्बर्ट कामस’ की लिखी इस कहानी को अडेप्ट करते हुए इसके निर्देशक तथा इस फ़िल्म की कहानी, स्क्रीनप्ले, संवाद लिखने वाले ‘संदीप सिंह बजेली’ भी आपको आदिवासियों के जीवन की कहानी के बहाने से उस दिशा में ले जाते हैं जहाँ आप सोचते हैं- बेहतर जिंदगी की तलाश में ‘बीच का कोई रास्ता नहीं होता।’
अच्छे साउंड डिजाइन, आर्ट डायरेक्शन, डी.ओ.पी, कैमरा, एडिटिंग, कलरिंग और खूबसूरत लोकेशन के साथ बनी यह फ़िल्म जब जहाँ मौका मिले देख डालिए। और कुछ कर ना सकें तो थोड़ा अफ़सोस ही जता लीजिए उनके लिए जो अपने बलबूते ऐसी गंभीर फ़िल्में, गंभीर मुद्दों के साथ लेकर आते हैं जिन्हें आप नहीं जानते। साथ ही थोड़ा अफ़सोस खुद के लिए भी बचाकर रखें क्योंकि ऐसी फ़िल्में ना देखना भी एक किस्म का अपराध है।
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