रिव्यू- कारसेवकों की हत्या का सच दिखलाती ‘गोधरा’
कल सिनेमाघरों में ‘गोधरा’ फ़िल्म रिलीज होने जा रही है। गोधरा ट्रेन हत्याकांड के 22 सालों बाद आई यह फ़िल्म क्या सचमुच कारसेवकों की हत्या का सच दिखलाती ‘गोधरा’ है या नहीं। आज गंगानगर वाला इसी बात की पड़ताल करने आया है- पढ़िए गंगानगर वाला पर Featured In IMDb Critic Reviews में ‘Accident or Conspiracy: Godhra’ फ़िल्म का रिव्यू।
गोधरा नाम सुनते ही आज भी हम भारतीयों का मन गोधरा ट्रेन हादसे/साज़िश की ओर दौड़ पड़ता है। साल 2002 के मार्च में होने वाले दंगों की विभीषिका का ही यह असर है कि आज भी इस पर फ़िल्में बनाई जा रही हैं। ढेरों किताबें और फ़िल्में बन जाने के बाद भी बहुतेरे लोग इसे हादसा मानते हैं तो बहुतेरे इसे साज़िशन कारसेवकों की हत्या। आज तक गोधरा में हुए उस कांड के सच की पड़ताल किसी ने कायदे से की या नहीं? यह भी विचारणीय पहलू है जो यह फ़िल्म ‘एक्सीडैंट और काँस्पिरेसी- गोधरा’ हमें और आपको दिखाती है।
यह सही है कि- सच हमारे सामने होता है बस हम लोग उसे देख नहीं पाते। और यही सच यह फ़िल्म हमें दिखलाती है। जब साल 2002 की 27 फरवरी की अल-सुबह 7.43 पर गुजरात के गोधरा रेलवे स्टेशन पर साबरमती एक्सप्रैस ट्रेन आई तो वहाँ से उसके चलते ही कुछ लोगों ने ट्रेन की चैन खींचकर उसे रोक दिया, और ट्रेन के कोच एस-6,7 पर पथराव करने लगे। जिनमें कारसेवकों का जत्था यात्रा कर रहा था। अयोध्या में भगवान राम का मंदिर बन सके इस उद्देश्य से ये कारसेवक (जिनमें 27 महिलाएँ, 22 पुरुष और 10 बच्चे थे) 100 दिवसीय पूर्णाहुति महायज्ञ का आयोजन कर लौट रहे थे। कुल जमा इन 59 कारसेवकों के ट्रेन में जलकर मरने के बाद जब उच्च स्तरीय जांच कमेटी बैठी तब उस कमेटी को भी यह सत्यापित करने में बरसों लग गये कि यह एक हादसा था या साज़िश के तहत किया गया।
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एक लड़का जो गुजरात के गोधरा में हुए इस कांड पर रिसर्च कर रहा है उसके माध्यम से यह कहानी आगे बढ़ती है तो मालूम होता है कि किस तरह कई सारे सबूत और गवाहों के बाद यह साबित हो पाया कि यह साज़िशन किया गया घोर अमानवीय कृत्य था। यूँ एक बारगी इस फ़िल्म को तथाकथित सेक्युलर व बुद्धिजीवी लोग एक तरफ़ा करते हुए कह सकते हैं कि यह फ़िल्म किसी प्रोपेगैंडा के तहत बनाई गई लगती है। किन्तु फिर भी इस तरह की फ़िल्मों को लिखना-बनाना-फ़िल्माना इतना आसान कहाँ? यह फ़िल्म दोनों पक्षों को खुलकर अपनी बात कहने का मौका देती है ताकि दर्शक और जो आज की पीढ़ी है, जिसे इस कांड की रत्तीभर जानकारी नहीं वह इसे देखकर अपनी जानकारी पुष्ट कर सकें।
ऐसी फ़िल्में हमारे इतिहास का कड़वा सच सामने लाती हैं। जिन्हें देखते हुए आप महसूस करते हैं कि हमारे अपने ही देश का मीडिया उस समय अपने उत्तरदायित्वों को किस तरह निभा रहा था। ऐसी फ़िल्में देखते हुए आप महसूस करते हैं उन मारे गये लोगों को मिलने वाली यातनाओं का दर्द। ऐसी फ़िल्मों को देखते हुए आप महसूस कर सकते हैं उन मारे गये लोगों के पीछे बचे लोगों के जीवन को। ऐसी फ़िल्में देखते हुए आप महसूस कर सकते हैं इतिहास में बिखरी पड़ी उन किरचों को जिन्हें समेटकर यह आपके सामने एक महत्वपूर्ण दस्तावेज की तरह आती हैं। यह फ़िल्म उन तमाम इतिहासपरक फ़िल्मों की भांति ही है जिनमें कोई एक आदमी इतिहास की गहराई में गोते लगाता हुए अपने शोध से उस इतिहास को कुरेदता है और परत-दर-परत उन कड़ियों को मिलाते हुए आप दर्शकों को समझाता है।
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ऐसी फ़िल्में कहीं इधर-उधर भटके बिना अपनी पटरी पर सीधा चलती हैं। फ़िल्म के निर्देशक एम. के. शिवाक्ष इस बात के लिए तारीफ़ के काबिल हैं कि उन्होंने इसे केवल तथ्यों पर आधारित बनाते हुए न केवल लिखा बल्कि उसी तथ्यात्मक तरीके से इसे पर्दे पर प्रस्तुत किया। फ़िल्म चूँकि एक कोर्टरूम ड्रामा भी है लिहाजा इस बात की भी सतर्कता यह लोग बरतते हुए नजर आते हैं कि कोर्ट के सीन यथावत दिखें। हालांकि जजों को देखते हुए और कुछ एक सीन देखते हुए यह भी महसूस होता है कि इन्हें और बेहतर किया जा सकता था। रणवीर शौरी, मनोज जोशी, हितु कनोडिया, देनिशा घुमरा, राजीव सूर्ती, स्वाती वर्मा, मोनिका चौधरी इत्यादि तमाम कलाकार अपने अभिनय के दम से इस फ़िल्म को निखारते हैं।
फ़िल्म का सबसे मार्मिक पक्ष इसका क्लाइमैक्स है जहाँ पहुँच कर आप दर्शक अपनी आँखों को बहने से रोक नहीं पाते। ऐसी फ़िल्में देखते हुए अगर आपकी आँखें बहने लगें तो उन्हें बहने दीजिएगा कम-से-कम उस समय जो काम मीडिया या अन्य लोग नहीं कर पाए वह काम आप दर्शक लोग सिनेमाघरों में कर लीजिएगा। ऐसा करने से आपकी आँखों का कचरा ही साफ़ नहीं होगा बल्कि आप उस सच को भी जान पाएंगे जिसे लेकर आपके मन में कोई शंका रही होगी। यह फ़िल्म आपकी शंकाओं का समाधान ही करने आई है इसलिए इसे देखिए और दिखाइये दिल खोलकर और रोईये दिल भरकर।
अपनी रेटिंग..... 4 स्टार
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