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बुक रिव्यू- सहअस्तित्व की यथार्थ जीवनदृष्टि ‘आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन’

पुनीता जैन का यह ग्रन्थ आदिवासी कविता को प्रस्तुत करने वाला हिन्दी में पहला गम्भीर और आत्मीय प्रयास है। चिन्तन के अंतर्गत जहां पुनीता जैन ने आदिवासी जीवन-दर्शन और विचार की आधारभूमि को कायदे से समझा है, वहीं हिन्दी में आदिवासी लेखन की भूमिका व परिदृश्य को भी करीने से उजागर किया है। आज गंगानगर वाला पर पढ़िए सहअस्तित्व की यथार्थ जीवनदृष्टि ‘आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन’ बुक रिव्यू।

 

आचार्य शुक्ल अपने इतिहासग्रंथ में लिखते हैं- प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चितवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है। यही संचित प्रतिबिंब हम आदिवासी कथा साहित्य एवं काव्य में देखते हैं। अपने आरम्भिक काल से सदा उपहास का पात्र बनाई गई एक जाति जिसने प्रकृति को न केवल जिया अपितु उसे बचाए रखने के साथ-साथ अपनी लोक संस्कृति एवं सभ्यता को भी बचाए रखने का भरपूर एवं सफल प्रयास किया है वह निर्विवाद रूप से आदिवासी लोग हैं। एक समय तक केवल जंगलों में भटकने के बाद जब यह मनुष्य विकास करने लगा बौद्धिक रूप से, सामाजिक रूप से, सांस्कृतिक एवं धार्मिक रूप से तो इसने सर्वप्रथम अपने उसी जंगल का त्याग किया, उसी प्रकृति का त्याग किया जिसके सहारे उसने जीवन का आरम्भ किया था।

बौद्धिक रूप से प्रगति करते हुए जब आदिवासी लोग जागृत हुए तो उन्हें जल, जंगल, जमीन की चिंता होने लगी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने पहले इसके बारे में विचार नहीं किया लेकिन अब उन्होंने प्रयास लेखन के स्तर पर भी आरम्भ किये। लेकिन बावजूद इसके पहली आदिवासी कवयित्री ‘सुशीला सामद’ के साल 1935 में ‘प्रलाप’ नामक काव्य संग्रह तक को विस्मृत कर दिया गया। इसके पीछे भी एक बड़ा कारण उस गैर आदिवासी बौद्धिक वर्ग तथा दूसरे वर्ग रहे। यही स्थिति अमूमन पचास के दशक में आदिवासी कथाकार ‘एलिस एक्का’ की रही लेकिन इन सबकी परवाह किये बिना यह समाज एवं इसकी संस्कृति तथा इसका साहित्य शनै:-शनै: चहुँ ओर फैलने लगा। यही वजह है कि आदिवासियों के जीवन में आज भी प्रकृति की विरासत नजर आती है। भले दूसरी ओर मनुष्य चाँद तक पहुँच गया हो ये आदिवासी उनका विरोध नहीं करते अपितु वे अपने जल, जंगल, जमीन को बचाए रखने के साथ-साथ स्वयं की प्रगति भी करते आ रहे हैं।

सहअस्तित्व की यथार्थ जीवनदृष्टि 'आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन'
सहअस्तित्व की यथार्थ जीवनदृष्टि ‘आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन’

संभवत आदिवासियों के इतने सुदृढ़ इतिहास ने ही लेखिका ‘पुनीता जैन’ को आकर्षित किया और उन्होंने आदिवासियों के इतिहास, उनकी विरासत के साथ-साथ कई आदिवासी कवियों एवं कवयित्रियों पर जमकर अपनी पुस्तक “आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन” में लिखा है। पुनीता का यह प्रयास सार्थक ही नहीं बल्कि इतिहासपरक दस्तावेज के रूप में उभरकर सामने आया है जिसमें उन्होंने आदिवासियों की विरासत, उनके सबाल्टर्न इतिहास, छायावाद की अनचीन्ही प्रतिभा सुशीला सामद के साथ-साथ तमाम महत्वपूर्ण हस्ताक्षरों को शामिल करते हुए लिखा है। दुलाय चन्द्र मुंडा, रामदयाल मुंडा, रोज केरकट्टा, ग्रेस कुजूर, निर्मला पुतुल, महादेव टोप्पो, वंदना टेटे, सरिता बड़ाइक, फ्रांसिस्का कुजूर, जंसिता केरकट्टा, चंद्रमोहन किस्कू, आदित्य कुमार मांडी, हरिराम मीणा, वाहरू सोनवणे, भगवान गव्हाडे, अन्ना माधुरी तिर्की, विश्वासी एक्का, पूनम वासम, जमुना बीनी तादर, तारो सिन्दिक के साथ-साथ कई जाने-अनजाने किन्तु महत्वपूर्ण लेखकों को शामिल करते हुए पुनीता अपनी इस पुस्तक की भूमिका में लिखती हैं- सामान्यत: हम अपने सबसे निकट के परिवेश, चरित्र अथवा स्थितियों को सूक्ष्मतापूर्वक कम ही देख पाते हैं। मध्यवर्गीय चेतना में रचा-पगा हिंदी-जगत अपने आस-पास की आदिम उपस्थिति आदिवासी समाज को एक निश्चित चश्मे से देखता रहा है। वह ‘अनुसूचित जनजाति’ शब्द से परिचित है, किन्तु आदिवासी जीवन-दृष्टि और आदिवासियत के मूल स्वरूप से प्राय: अनभिज्ञ है।

आदिवासियों की मूल भाषा भले हिंदी ना हो किन्तु अधिकाँश आदिवासी लेखक वर्तमान दौर में समय के अनुसार चलते हुए अपनी बात को अधिकाधिक पहुँचाने के खातिर हिंदी भाषा को भी लेखन के रूप में स्वीकार कर रहे हैं। इसके साथ ही इनके यहाँ दलित अथवा अन्य साहित्य की भांति वह विरोधाभास देखने को नहीं मिलता जिसमें दलितों के लिए , दलितों के द्वारा लिखा गया साहित्य की उनका अपना माना गया हो अथवा इस तरह के वितंडे खड़े किये गये हों अथवा उन गर्मागर्म बहसों की आग पर राजनीतिक रोटियां सेकीं गईं हों। आदिवासी कविताओं पर बात करते हुए पुनीता लिखती हैं- हिंदी कविता प्राय: मध्यवर्गीय चेतना की कविता है, किन्तु आदिवासी कविता की आस्वाद-भूमि सर्वथा अलग और स्वतंत्र है।

आदिवासी कथा साहित्य एवं कविता के साथ-साथ उनके दैनन्दिन जीवन में प्रकृति की रक्षा, आदिवासी जीवन की सुरक्षा के साथ अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को बचाए रखने की पुरजोर कोशिशें नजर आती हैं। वर्तमान अत्याधुनिक एवं आभासी समाज की तीव्र गति की विकास यात्रा के क्रम में पूरे विश्व में कोई समुदाय यदि अपनी मूलभूत आवश्यकताओं के साथ-साथ प्रकृति, समता, न्याय, बराबरी, स्त्री स्वतन्त्रता, यौन-शुचिता, समान अधिकारों को लेकर जागरूक नजर आता है तो वह केवल आदिवासी समुदाय। जो दलितों, स्त्रियों एवं तृतीय लिंगी समाज के बरक्स अपनी मूल पहचान को बनाये-बचाए रखने की जद्दोजहद में जुटा हुआ है। आदिवासियों के लिए पहला संघर्ष तो उनके अपने स्वयं की पहचान के रूप में नाम का ही नजर आता है जिसमें वे स्वयं को आदिवासी बताते हैं। जबकि इस लेखिका पुनीता लिखती हैं- इस शब्द को संवैधानिक मान्यता नहीं है, संवैधानिक शब्द है, अनूसूचित जनजाति यानी (शिड्यूल्ड ट्राइब)।

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कायदे से आदिवासी इस दुनिया के प्रथम निवासी हैं लेकिन उन्हें गंभीरता से कभी नहीं लिया गया। आदिवासी शब्द आदिम अवस्था एवं आदिम समय का भी द्योतक है जिसमें ये लोग कबीलों में रहते हुए जंगल में शिकार करते थे और अपना भोजन वहीं पर मांसाहार के रूप में खाते थे। किसी क्षेत्र विशेष में यदि कोई इंसान ज्ञात समय से पूर्व से बसा हुआ आ रहा है और अपने जीवन-यापन के संसाधनों के मायने में वह आत्मनिर्भर है जिसमें उनकी अपनी शासन व्यवस्था, अपना धर्म, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति है तो वे आदिवासी कहे जाने योग्य हैं। प्रकृति भी इन आदिवासी समुदायों की स्वभाविक शरण-स्थली के रूप में दिखाई पड़ती है जहाँ ये प्रकृति के साथ तालमेल बैठाते हुए अपने जीवन को जीते हैं।  आदिवासियों में संस्कार प्रकृति के प्रति इतने कूट-कूट कर भरे होते हैं कि ये अपने पूर्वजों की बनाई हुई व्यवस्था का पालन करते हुए कोई भी फल, फूल तोड़ने, उसे खाने से पूर्व अथवा दूध दुहने से पूर्व भी बछड़ों से क्षमा याचना करते नजर आते हैं। इनके गीत-संगीत, गृह सज्जा, नाच-गाना, धार्मिक आयोजन, प्रकृति पूजा, मृतकों के संस्कार इत्यादि सभी सहज रचनात्मक अभिव्यक्ति लिए हुए नजर आते हैं। यहाँ पुनीता लिखती हैं- आदिवासियों के जीवन-दर्शन में श्रम की महत्ता है। आदिवासियों के जीवन में नैतिकता है, न्याय है, सामूहिकता है, श्रम-आधारित सामुदायिक एकता और समानता है, जो हम उनके रोजाना के व्यवहार और छोटी से छोटी गतिविधियों में भी पाएंगे। जबकि इसके उल्ट देखा जाए तो वर्तमान समाज में हर जगह केवल पूँजी का बोल-बाला नजर आता है अथवा भौतिकता की अंधी दौड़ में खोया हुआ विचार हीन, संवेदना हीन एवं मनुष्यता से परे मनुष्य नजर आता है। जब कथित सभ्य समाज लोकतंत्र, समता, स्वतंत्रता के ढकोसले को जीते हुए उसके सिद्धांतों का पालन कड़ाई से करने की दुहाई देता है तो ऐसे में आदिवासी समाज की नैसर्गिक जीवन शैली सामने दिखाई पड़ती है, जिसमें वे सहज ढंग से इन सभी मूल्यों को यथार्थ के धरातल पर पिरोये हुए नजर आते हैं।

सहअस्तित्व की यथार्थ जीवनदृष्टि 'आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन'
सहअस्तित्व की यथार्थ जीवनदृष्टि ‘आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन’

यहाँ महाश्वेता देवी का एक कथन जरुरी हो जाता है, वे लिखती हैं- लेकिन भारत में जो कुछ भी बचा है, वह भारत का आम आदमी है। इस आम आदमी में ही आदिवासी समाज है। ऐसा मैं मानती हूँ, क्योंकि मेरा विश्वास है कि हम लोगों से ये लोग कहीं अधिक सभ्य हैं। उनके समाज में विधवा विहाह की प्रथा है। इनके यहाँ दहेज़ की परम्परा नहीं है अलग-अलग क्षेत्र में, अलग-अलग समाज में होने पर भी आदिवासी मूलत: प्रकृति के पुजारी हैं। महाश्वेता देवी के इस कथन से आदिवासी समुदाय के जीवन को भली भांति समझा जा सकता है। इसके साथ ही इनके समाज में लैंगिक समानता, जाति-मुक्ति, जीव-जंतु प्रेम, मानवीय संवेदनशीलता,सामजिक व्यवस्था जैसे मुद्दे भी वैर-विरोध से परे के नजर आते हैं। हालांकि कुछ एक जगहों पर मुंडा, उरांव, संथालों, मीणाओं, भीलों आदि के भीतर श्रेष्ठ एवं निम्न होने के भाव भी नजर आते हैं। किन्तु बावजूद इसके क्या इस बात की सराहना इस समाज की नहीं कि जानी चाहिए कि ये भारतीय सामाजिक संरचना में जहाँ जाति व्यवस्था गहरे पैठी हुईं हैं और जिन्होंने धर्म, जाति, सत्ता अधिकार, लैंगिक भेदभाव को इतना विस्तृत कर दिया है कि बाकी सब उसकी छाँव तले विश्राम से पाते नजर आते हैं, उनके विरुद्ध इस कथित मुख्यधारा से परे रहकर आदिवासी सामन्ती व्यवस्था, लैंगिक भेदभाव, असमानता को उपेक्षित करते हुए मानवीय मूल्यों, सहअस्तित्व और समानता के भाव को प्रमुखता दे रहे हैं।  क्योंकि इन मूल्यों को बचाए रखना ही असल आदिम मनुष्यता की पहचान है।

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आदिवासी प्रकृति के अतिशय दोहन से परे रहते हुए उनके साथ साहचर्य का भाव एवं रिश्ता कायम करते हुए समस्त प्राणी जगत के हितार्थ भी कार्य करने में सदियों से संलग्न हैं। यहाँ लेखिका पुनीता जैन का यह कहना सर्वथा उचित है कि- आदिवासियों के गाँव-घर, नदी, जल, जंगल का अतिक्रमण करके उनका विकास संभव नहीं है। वे सवाल करती हैं कि- सवाल है विकास किसका और कैसे? कौन सा विश्व दृष्टिकोण? घृणा, भेद और लूट पर आधारित सौन्दर्यबोध या कि इंसानी गरिमा की पक्षधरता वाला सांस्कृतिक मूल्य? यह अजीब बात है कि धरती, स्त्री, समष्टि को रंग, नस्ल, धर्म, लिंग और जाति में विभाजित करने वाला भारतीय समाज व साहित्य, जो खुद को मुख्यधारा घोषित करता है, वह समताजीवी आदिवासी समाज को इंसानियत की सीख दे रहा है। हालांकि यह भी एक तथ्य महत्वपूर्ण है कि आदिवासियों के जीवन दर्शन को समझने के लिए उनके जीवन जीने के तरीकों, उनकी संस्कृति, उनके व्यवहार, उनके समस्त मानवीय मूल्यों को समझे बगैर उनसे जुड़ना और उन्हें ठीक से पहचान पाना भी मुश्किल है और इन सबमें सबसे आश्वयक तत्व है प्रकृति की भांति निश्चल होना।

भारतीय सामाजिक व्यवस्था में जिन तथाकथितों ने सम्भोग की विवाह पूर्व यौन शुचिता जैसी बातें कहीं हैं उनसे भी आदिवासी समाज कोई सरोकार नहीं रखता। इसका स्पष्ट उदाहरण पुनीता देते हुए लिखती हैं- मुरिया व्यक्ति का सैक्स के प्रति सहज, सरल और नैसर्गिक दृष्टिकोण है। घोटुल में इसकी पुष्टि होती है, जहाँ सेक्स अपराध बोध और बाहरी हस्तक्षेप से स्वतंत्र है। मुरिया विश्वास करते हैं कि सम्भोग एक अच्छी चीज है। यह तुम्हें अच्छाई देता है। यह स्वस्थ और सुंदर है। जब सही लड़के और लड़की (जिनका सम्भोग वर्जित नहीं है) द्वारा किया जाए, जब सही समय पर किया जाए (महावारी के दिनों से बाहर और वर्जित दिनों को छोड़ते हुए) और सही स्थान पर (घोटुल चहार दीवारी के अंदर जहाँ कोई पाप नहीं किया जाता), यह जिंदगी में अधिकतम प्रसन्नता देने वाली चीज है। यह सच ही है कि स्त्री के यौन-शुचिता और अनेक वर्जनाओं के बंधन में उसे बाँध देने वाले समाज से ऐसे सभ्य विचार मिलने अत्यंत दुर्लभ हैं।

आदिवासी समुदाय के लिए अपने को सुरक्षित बचाए-बनाये रखने की कोई सीमित मुश्किलें नहीं है उनके समक्ष भाषा का भी एक बड़ा राक्षस नजर आता है जहाँ आर्थिक और राजनैतिक शक्तियों का गठजोड़ किसी समुदाय विशेष पर ही आक्रमण नहीं करता अपितु वह उन मुगलों और अंग्रेजों की भांति अपने कार्य को सम्पन्न करता-कराता है जिससे इनकी भाषा पर भी सदा खतरा मंडराता रहे, क्योंकि किसी भी समुदाय की यदि भाषा ही समाप्त कर दी जायेगी तो उसे किसी और तरह से समाप्त करने की आवश्यकता नहीं होगी। एकमात्र भाषा से ही वही सभी काम संभव कर लिए जायेंगे जिससे पूरे समुदाय को आसानी  से समाप्त किया जा सकेगा। अपनी भाषा के साथ-साथ अपनी जातीय अस्मिता को बचाए रखने के लिए ही संभवत: आदिवासी लेखक राँची में साल 2014 की 14-15 जून को “आदिवासी साहित्य का राँची घोषणा- पत्र” जारी करते हैं और कहते हैं आदिवासी लेखन के केंद्र में आदिवासी जीवन-दर्शन के अतिरिक्त कुछ नहीं रखा जा सकता।

जिस तरह आदिवासी संस्कृति व परम्परा में उनकी कलाएं, गीत-संगीत, गायन, वादन, नृत्य, चित्रकला, आदिवासी जीवन दर्शन के साथ-साथ एक दर्जन से अधिक आदिवासी लेखकों के रचनाकर्म आदि को समाहित करते हुए लेखिका ने इस किताब को वर्तमान दौर में आदिवासी साहित्य की महत्वपूर्ण आलोचनात्मक रचना के रूप में पिरोया है वह बिला किन्तु-पंरतु काबिले-गौर है। आदिवासी जीवन-दर्शन और विचार की आधार-भूमि, हिंदी में आदिवासी लेखन की भूमिका व परिदृश्य, मध्य प्रदेश का आदिवासी पुरखा साहित्य, आदिवासी कविता, छायावाद, आदिवासी दृष्टि परम्परा की प्रारम्भिक उपस्थिति से लेकर आदिवासी संस्कृति, दमन और वंचना के विरुद्ध आदिवासी विरासत और संस्कृति के मौलिक स्वरों के साथ इस किताब में उनकी सांस्कृतिक विरासत और जीवन के यथार्थ की झलक नजर आती है। जिसमें उनके सहअस्तित्व की यथार्थ परक जीवनदृष्टि समाहित है। आदिवासियों के जीवन-मूल्यों एवं उनके संघर्षों, विश्व दृष्टि में आदिवासियों के स्वर जिस नयी सुबह का इंतजार कर रहे हैं वह पुनीता जैन की इस किताब से अवश्य ही उस नयी सुबह को आलोचनात्मक नजरिये से पुष्टता के साथ हासिल कर पाएंगे। आदिवासियों के जीवन पर ही नहीं अपितु आलोचना की विधा में जब किसी भी विषय पर इस तरह की आलोचनात्मक दृष्टि किसी आलोचक द्वारा डाली जाती है तो वह अपने समय का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बनकर सामने आता है। जिसमें परम्परा के साथ आधुनिकता के स्वर भी गीत लहरियां बन सहृदय पाठक को पूर्ण ज्ञान से पूरित कर जाती हैं।  बस्तर, अरुणाचल प्रदेश, मध्यप्रदेश से होते हुए पूरे भारत के महत्वपूर्ण आदिवासी लेखकों पर इससे बेहतर आलोचनात्मक रचनाकर्म और कोई क्या ही कर सकेगा।

किताब- आदिवासी कविता: चिंतन और सृजन

लेखिका- पुनीता जैन

प्रकाशक- सामयिक प्रकाशन

संस्करण- प्रथम 2023

समीक्षक- तेजस पूनियां

मूल्य- 795/- पेपर बैक 

विधा- आलोचना

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