बुक रिव्यू- समाज, परम्परा और स्त्री चेतना का गुम्फ़न है ‘सीता पुनि बोली’
नोट- यह लेख आज से पाँच साल पहले किसी के लिए लिखा गया था। वह किताब अथवा पत्रिका जिसमें यह प्रकाशित हुआ आज तक मुझे नहीं मालुम खैर छोड़िये कुछ चीजों को और पढ़िए इसे। इसे लेख से बदल कर पुस्तक समीक्षा का रूप दे दिया गया है- समाज, परम्परा और स्त्री चेतना का गुम्फ़न है ‘सीता पुनि बोली’ गंगानगर वाला पर प्रस्तुत है।
सीता जिसे आप और हम ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया माता सीता के नाम से जानती हैं। जी मैं मर्यादा पुरुषोत्तम की धर्मपत्नी और राजा जनक की मानस पुत्री तथा धरती से जन्म लेने वाली बेटी माता सीता की बात कर रहा हूँ। जिसे अयोनिजा भी कहा जाता है। मिथिला की उसी बेटी, पुत्री पर गोवा राज्य की राज्यपाल रही चुकी राजनेता एवं लेखिका मृदुला सिन्हा ने सीता पर उपन्यास लिखा जिसे माता सीता की आत्मकथा, जीवनी भी कहा जा सकता है। हालांकि मैं इस तरह के किसी भी विवाद में नहीं फंसना चाहता कि इसे किस तरह की कृति माना जाए या किस तरह की नहीं। जिसकी जो इच्छा हो उस तरह की कृति इसे मान सकता है। खैर इस उपन्यास की शुरुआत में लेखनी के बोल शीर्षक से भूमिका में स्वर्गीय मृदुला सिन्हा लिखती हैं “जनकपुर के विदेह राजा जनक की दुलारी, राम की सहधर्मिणी, दशरथ और कौशल्या की अत्यंत प्रिय पुत्रवधु, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न की माँ सदृश भाभी, राजमहल से लेकर वन और आश्रम जीवन में अनेक सामाजिक सम्बन्धों में बंधी सीता की स्मृति त्रेतायुग से प्रवाहित होती हुई आज भी जन-जन के हृदय और भारतीय मानस में रची-बसी है। उसके सत को अपनी पूँजी के रूप में संजोकर रखा है।”
यह सच है कि त्रेतायुग की इस पुत्री को आज भी विश्वभर ने अपने हृदय से लगाकर रखा है उसका कारण एकमात्र सीता का व्यक्तित्व है। जिसके सामने एक बार के लिए श्री राम जो मर्यादा पुरूषोत्तम कहलाते हैं वो भी उनसे व्यक्तित्व में बौने दिखाई देने लगते हैं। हालांकि कुछ वामपंथी विचारधारा के या कहें मतिभृष्ट तथा नास्तिक लोग श्री राम के अस्तित्व को ही नकारने में लगे हुए हैं। नास्तिक लोग अगर श्री राम के व्यक्तित्व या उनकी त्रेतायुग में उपस्थिति को नकार भी दे तो एकबारगी मान लिया जाएगा। क्योंकि उनके भीतर आस्तिकता का वास नहीं है और जो व्यक्ति आस्तिक ही नहीं वह राम या उनकी पत्नी सीता ही नहीं अपितु ईश्वर की सत्ता को ही नकार रहा होता है। जिस तरह पश्चिम के विद्वान ने घोषणा की थी कि “ईश्वर मर चुका है।” वह घोषणा करने वाले विद्वान थे ‘नीत्से।’
इस उपन्यास को लेखिका ने उत्सवों के रूप में बाँटा है। उनके लिए सीता के जीवन का हर एक पहलू या उनका सम्पूर्ण जीवन एक नए आश्रम में प्रवेश करने जैसा है। इसकी शुरुआत वे सीता के जन्म से करती हैं और नाम देती हैं ‘मिथिलोत्सव’ इन उत्सवों को भी आगे अध्यायवार बांटा गया है। मिथिलोत्सव से शुरू हुआ सीता का जीवनवृत उनके धरती में समाने तक चलता है। धरती की पुत्री धरती में ही महाप्रयाण कर जाती है सम्भवतः इसीलिए इस खंड का नाम महाप्रयाण रखा गया है। सीता के जन्म लेने, उनके प्रतिपल बड़े होने, राज दरबार में जाने, अपने सुझाव वहाँ प्रस्तुत करने, घुड़सवारी करने, युद्ध कौशल में पारंगत होने आदि जैसे कई चित्रण इस कृति में है जो पढ़ते हुए साकार हो उठते हैं और लगने लगता है जैसे हम भी माता सीता के दौर में विचरण कर रहे हैं। उनके साथ वे सब काम कर रहे हैं या उनके कामों में शरीक हो रहे हैं जो वो कर रही हैं। इस उपन्यास में नायक कल्पना, स्त्री विमर्श, पारिवारिकता एवं उसका समृद्ध समायोजन, राज दरबार, युद्ध का मैदान, विभिन्न मूल्यों की अवधारणा आदि शामिल हैं।
सीता के ममत्व और करुण हृदय का परिचय भी हमें इस कृति में मिलता है। जब ऋषि वाल्मीकि के श्लोक जिसे अनुष्टुप छंद भी कहा जाता है, का उच्चारण वे करते हैं।
“मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः ।
यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधी काममोहितम् ।।”
इस श्लोक को कहने कारण यह है कि उपन्यास में निहित कथा के अनुसार जब आश्रम में उनके बच्चे लव और कुश बड़े हो रहे होते हैं तब ऋषि वाल्मीकि राम के जीवन चरित को रामायण का नाम देकर उसे पूर्ण करने में जुटे हुए होते हैं। उस समय सीता और वाल्मीकि में संवाद होता है और वाल्मीकि अपनी कृति को लेकर कहते हैं कि जब श्री राम आपको ससम्मान अपने दोनों पुत्रों सहित आपको अयोध्या ले जाएंगे तो मेरी कृति पूर्णता को प्राप्त हो जाएगी। उस समय सीता के मन में विचार उठता है और वे कह कर भी ऋषि वाल्मीकि से नहीं कह पाती। वे कहना चाहती हैं कि आपकी ये रामायण कभी पूरी नहीं होगी। ऋषि वाल्मीकि को राम की जीवन यात्रा के भीतर धैर्य, साहस, ममता, क्रांति, वीरता, कृतज्ञता आदि सभी के गुणों का प्रस्फुटन दिखाई देता है। इस संवाद के दौरान और उससे पूर्व भी हमें सीता के भीतर ममत्व के दर्शन होते हैं। खास करके तब जब वे वेदों के ज्ञाता, महान भक्त किन्तु आततायी लंकेश्वर रावण के महल में अपहृत करके लाई जाती हैं। उस समय अशोक वाटिका में भी वे राक्षसियों के बीच रहती हुई अपना ममत्व बरकरार रखती हैं। इसका प्रभाव कुछ राक्षसियों पर भी पड़ता है और वे द्रवित हों उठती हैं।
समाज में, परिवार में किस तरह का आचरण करना चाहिए उसकी झलकी भी इस कृति में दिखाई देती है। जब राजा जनक धनुष प्रत्यंचा जैसा कठिन व्रत, संकल्प लेते हैं तब श्री राम उस शिव धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाते हैं और राजा जनक की प्रतिज्ञा ही नहीं बल्कि स्वयं की वीरता एवं आचरण व्यवहार का परिचय भी कराते हैं। विवाह के पश्चात जब सीता राम से ब्याहकर अवध में आती हैं तो वहाँ भी उत्सव मनाया जाता है। लेकिन कुछ दिनों बाद जब राजा दशरथ अपने बड़े पुत्र राम को राजा बनाने की घोषणा करते हैं तो राज्याभिषेक से पहले रात को मंथरा द्वारा कैकयी को दिग्भ्रमित करने पर कैकयी राजा दशरथ के पास जाती है और उनसे उस वचन को पूर्ण करने का कहती है जो कभी दशरथ ने उसे दिया था। फिर अगले दिन भरे मन से राजा दशरथ राम के बजाए भरत को राजगद्दी सौंप देते हैं और अपने बेटे राम को वनवास पर भेज देते हैं। हालांकि आज्ञापालक राम उस आज्ञा का उलंघन नहीं करते और सीता तथा लक्ष्मण सहित वनवास चले जाते हैं। उस समय श्री राम के साथ-साथ सीता का आचरण भी लक्षित होता है। राम अच्छे पुत्र ही नहीं अच्छे पति के रूप में भी अपना व्यक्तित्व हमारे सामने पेश करते हैं तो सीता भी अपना व्यक्तित्व उसी रूप में पेश करने से पीछे हटती हुई नहीं दिखाई देती। श्री राम अपने संकल्प को सरयू नदी के जल को हस्तांजल कर सीता के समक्ष दोहराते हैं – “सरयू नदी का यह निर्मल जल, इसके किनारे अवस्थित ये वृक्ष, लताएँ, तोता-मैना, भृंगराज और सबसे ऊपर आपकी जन्मदातृ, पृथ्वी साक्षी है कि मैंने एकपत्नीव्रत लिया है। मैं आपके अतिरिक्त किसी नारी की ओर मात्र उनके स्त्री होने के नाते नहीं देखूँगा। माँ, बहन और अन्य रिश्तों के रूप में वे मेरी पूजनीया रहेंगी। आपको विश्वास दिलाने के लिए सरयू का जल हाथ में लेकर मैं पुनः एक बार अपना संकल्प दुहराता हूँ।”
यहाँ हम देखते हैं कि राम जिन्हें भगवान मानती है दुनिया, उनके व्यक्तित्व को इस संदर्भ से भली-भांति जाना जा सकता है। उनके इसी संकल्प की प्रतिक्रिया देते हुए सीता कहती है कि मुझे आपके संकल्प पर गर्व है। मैं भी सहयोगिनी बनूँगी। तो उनके ऐसा कहने पर हमें सीता के व्यक्तित्व तथा व्यवहार एवं संकल्प की दृढ़ निश्चयता पर मान, अभिमान होता है। यहाँ राम के संकल्प में सीता भागीदारी निभाकर अपना समर्पण राम के प्रति जाहिर करती हैं। इसके बाद जब सीता राम के साथ वनगमन पर जाती हैं तो वहाँ वन में भी उनके व्यक्तित्व को देखें तो वह समाज के समक्ष सकारात्मक रूप में परिलक्षित होता है। राज पाट छोड़कर जब सीता राम के साथ जाती है तो वे वहाँ भी ब्रह्मचर्य का ही पालन करती हैं और उनका यह व्रत पूरे वनवास के दौरान बना रहता है। एक गृहस्थ स्त्री के लिए चौदह वर्ष ब्रह्मचर्य का पालन करना दर्शाता है कि समाज में उसका व्यक्तित्व किस तरह का आचरण प्रस्तुत कर रहा है। इसी संदर्भ में लेखिका लिखती हैं – “स्त्री के हृदय में इतनी ममता होती है कि वह जगत् की सभी संतानों पर उसे उड़ेल सके, सबको सन्तानवत् समझ सके। परंतु मातृत्व भी एक अनुभूति है, भाव है; ममता को विस्तार देने के लिए अनुभूति आवश्यक है।”
स्त्री ममता की प्रतिमूर्ति ही नहीं होती अपितु उसके ममत्व की गहराई इतनी अधिक होती है कि उसमें पूरी सृष्टि को समाया जा सकता है या कहें उसका समायोजन किया जा सकता है। इतना ही नहीं वन में राम स्वयं सीता से करणीय-अकरणीय का ज्ञान समय-समय पर लेते रहते हैं। इसके अलावा सीता कुशल गृहणी भी दिखाई देती हैं जब वे वन में भोजन बनाती हैं , कुटिया की सजावट अपनी चित्रकला से करती हैं। ये सब हमारे तत्कालीन समाज की रीति-नीति,आचरण,व्यवहार, रहन-सहन, जीवन यापन की प्रक्रिया को दर्शाते हैं। इसके अलावा कुछ लोगों द्वारा मिथकीय कही जाने वाली इस कहानी में परम्परा के भी दर्शन होते हैं। जब वह में माता सीता कुटिया बनने के दौरान चौकाघर को बनाने के बारे में दिशा-निर्देश देती हैं तो वे एक तरह से स्त्रियों की परंपराओं का निर्वहन ही कर रही होती हैं। स्त्रियों के लिए रसोईघर हमेशा से उनका अपना एक व्यक्तिगत कोना रहा है। जहाँ से वे भांति-भांति के व्यंजन बनाकर परिवार तथा मेहमान आदि को परोसती है तथा इस प्रक्रिया में उन्हें खिलाती हुई खुद अघाती जाती हैं। इसके अलावा जब सीता का स्वयंवर होता है तब भी हमें वहाँ तत्कालीन समय की परंपराओं का बोध होता है, उनकी जानकारी हासिल होती है। तत्कालीन समय में यह भी रख परम्परा ही थी जब कोई न कोई राजा या राजा की पुत्री कुछ शर्त के साथ या संकल्प के साथ स्वयंवर का आयोजन करते थे और तत्पश्चात राजा या उसकी पुत्री विवाह के लिए सहमति प्रदान करते थे। उसी परम्परा के दर्शन हमें इस कृति में भी होते हैं। इसके साथ ही जब राम द्वारा शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी जाती है तब वहाँ उपस्थित महिलाओं द्वारा मंगलगान भी गाया जाता है। यह परम्परा आज भी हमारे भारतीय समाज में चलती आ रही है। हालांकि सीता के स्वयंवर के समय जो मंगलगीत गाए गए थे उनका आधार वह धनुष था। वर्तमान में स्वयंवर की परंपरा तो नहीं है किंतु मंगलगीत गाने की परंपरा आज भी विद्यमान है। इन्हें लोकगीत भी कहा जाता है।
परम्परा के दर्शन के अलावा इस कृति में हमें स्त्री चेतना के स्वर भी कहीं कहीं परिलक्षित होते हुए नजर आते हैं। मसलन एक जगह लेखिका सीता की माँ सुनयना से कहलवाती हैं कि – “यही तो बात है। स्त्री कई मायने में पुरुष से बलवती होती है। फिर भी उसकी गिनती जड़ (धन-संपत्ति) और जमीन के साथ ही की जाती है। जिस प्रकार धन, सम्पति और धरती के टुकड़ों के लिए दो राजाओं के बीच लड़ाईयां होती हैं उसी प्रकार स्त्री के लिए भी होती हैं। पुरुष अपनी जान देकर भी इन तीनों की रक्षा करता है। तुम्हारे पिता और हमारी तेजोमय सेना के आगे वह सुधन्वा टिक नहीं सकता। वह मारा जाएगा। उसका राज भी अब अपने राज में मिला लिया जाएगा। पर क्षति तो हमारी सेना की भी होगी। कितने सैनिक मारे जाएँगे, कितनी स्त्रियाँ विधवा होंगी, कितने बच्चे अनाथ होंगे। बेटी, युद्ध करना राजा का धर्म होता है, मगर यह मानव-धर्म नहीं है। और जब युद्ध हम महिलाओं, किसी राजा की बेटी, बहन या पत्नी के लिए होता है, तो मुझे सुनकर बड़ा दुःख होता है। क्या हम स्त्रियाँ इसी के लिए हैं?”
यहाँ हम देखते हैं कि जब सांकाश्य नगर का राजा सुधन्वा राजा जनक को संदेश भेजकर कहलवाता है कि शिव धनुष और पुत्री सीता उसे सौंप दे तो यह बात बताते हुए सीता की माँ सुनयना के भीतर स्त्री चेतना और स्त्री के अधिकार, उसके जीवन पर अधिकार एवं उसके निर्णयों को नगण्य कर उस पर पुरुषों द्वारा जो अपने निर्णय थोपे जाते हैं उन पर वह प्रमुखता से जोर देती है। और कहीं न कहीं वे यही विचार सीता को भी सम्प्रेषित कर रही होती हैं। उन्हें लगता है कि यह स्त्री के अधिकार हैं जिनके बारे में कम से कम उसे जानकारी होनी ही चाहिए।
समाज में किस तरह माताएँ अपने बच्चों को पुकारती है उसका भी सन्दर्भ हमें इस कृति में मिलता है। जब सीता को अपनी मां के वे शब्द याद आते हैं जो कभी सुनयना ने सीता से कहे थे। “मेरी माँ कहती थीं, ‘क्रोध में भी अपने बच्चों को कभी चोर, उच्चका, शैतान, झूठा आदि विशेषणों से संबोधित नहीं करना चाहिए। जब माँ ने ही वैसा मान लिया, फिर बच्चे साधु, सदाचारी और सत्यवादी बनने का प्रयास क्यों न करें। इसलिए माँ अपने बेटे को सदा ‘राजा बेटा’ , ‘रानी बेटी’ कहती हैं, चाहे वे रंक ही क्यों न हों।”
यहाँ हम उस समाज से रूबरू होते हैं जो समाज स्त्रियों ने अपने परिवार के लिए गढ़ा है, निर्मित किया है। यह वह समाज है जिससे आगे जाकर उनकी संतति द्वारा न केवल अच्छे संस्कार वाले मनुष्य के रूप में परिणत होती है अपितु उसकी इस परिणति से अच्छे समाज की नींव भी रखी जाती है। इस तरह के भाव समाज में मातृत्व भावों से परिपूर्ण स्त्री के भीतर ही देखने को मिलते हैं। इसके अलावा जब रावण सीता का हरण करके लंका ले आता है और उन्हें अशोक वाटिका में रखता है तब वहाँ भी वे रावण को लताड़ लगाती है उस लताड़ में भी हमें स्त्री चेतना के स्वर प्रमुख स्थान पाते हुए दिखाई देते हैं। “मेरा साहस बढ़ गया था। मैंने कहा, ” किसने तुम्हें पंडित बनाया? तुम तो महामूर्ख हो। राक्षस विवाह किसी की पुत्री का हरण करके किया जाता है, किसी प्रतापी पुरुष की पत्नी का हरण करके नहीं। मैंने तुम्हारी सारी गालियाँ सुन लीं, तुम्हारे लंपट वचन को सहन कर लिया, तुम्हारी यातनाओं को सहते हुए भी कभी आत्महत्या का विचार मेरे मन में नहीं आया- केवल इसलिए कि मुझे श्री राम की शक्ति पर विश्वास है। वे अवश्य आएंगे। अब अधिक देर नहीं है। मुझे श्री राम की पत्नी होने पर गर्व है। परंतु तुम्हें अपनी धर्मावम्बी सती पत्नी मंदोदरी का पति होने का अभिमान नहीं है। तुमने उनके साथ छल किया है। तुमने पति होने का धर्म नहीं निभाया। तुम नीच हो, अधर्म हो!”
स्त्री चेतना से पूरित सीता के स्वर, उसके भाव, उसके विचार यहाँ इस तरह देखे जा सकते हैं कि वे रावण जैसे प्रतापी, विद्वान, मूर्धन्य व्यक्ति, ऋषि तक को सही-गलत की पहचान करवाती हैं। यहाँ वे केवल स्वयं के लिए ही नहीं अपितु लंकेश्वरी जो परितप्त है, आहत है और कहीं न कहीं रावण के आतंक से भयभीत है उनके लिए भी आवाज उठाती है। वे रावण से ये जो संवाद करती हैं उसमें यह भाव भी नजर आता है कि वे मंदोदरी को भी किसी न किसी रूप में प्रताड़ित दिखाती हैं और रावण जो विद्वान है, चारों वेदों का ज्ञाता है बावजूद उसके उसका ये एक आचरण, एक कृत्य ही उसे महामानव, महापंडित से क्रूर, आततायी, निरकुंश, स्त्री लोलुप बन जाता है।
समाज में किस तरह व्यवहार किया जाना चाहिए इसके बारे में सीता अशोक वाटिका में मौजूद राक्षसियों से वर्णन करते हुए कहती हैं – “तुम लोगों ने पिछले सप्ताह सौगंध खाई थी कि आपस में गाली-गलौज नहीं करोगी। तुम लोग ऐसे व्यवहार के कारण ही राक्षसी कहलाती हो। आपस में प्रेम से रहोगी, अच्छे शब्दों का प्रयोग करोगी, ईश्वर के बारे में सोचोगी, केवल भोजन और संभोग के बारे में सोचना छोड़ दोगी तो सभ्य हो जाओगी। आपस में तुम्हारी यही प्रतिस्पर्धा रहती है कि कौन कैसे सोई, उसे क्या उपहार मिला आदि। छिह! तभी तो तुम असभ्य और राक्षसी कहलाती हो। सभ्य और असभ्य में यही तो अंतर है। यह सभ्य स्त्रियों का काम नहीं है। तुममें जो विवाहित हैं, वे भी दूसरे पुरुषों को लुभाने में लगी रहती हैं। दूसरे पुरुष का उनपर मोहित होना अपने स्त्रीत्व की उपलब्धि लगती है। छिह-छिह! लज्जा आनी चाहिए। तुम्हारे अपने पति के बिना कोई दूसरा पुरुष तुम्हारे शरीर का भोग करता है तो तुम्हें मर जाना चाहिए। तुममें से किसी ने यदि विवाह नहीं किया तो उसे विवाह अवश्य करना चाहिए, ताकि वह एक पुरुष के साथ रहकर ही अपनी भोगेच्छा पूरी करे। कई पुरुषों के साथ संभोग करने से तुम्हें तरह-तरह के रोग होते हैं। छिह! तुम लोग स्त्री जाति पर कलंक हो। जाओ यहाँ से, भागो। मुझे ऐसी व्यभिचारिणियों के संग-साथ की आवश्यकता नहीं है।”
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सीता समाज में किए जाने वाले व्यवहार का आदर्श रूप हमें इस संवाद के माध्यम से प्रस्तुत कराती हैं। सीता स्वयं आदर्श की प्रतिमूर्ति हैं इसीलिए वे जगतजननी भी कहलाती हैं। आदर्श व्यवहार के कारण ही वे व्यवहार कुशला, आदर्श पत्नी, बहू, माँ, बेटी आदि बनती हैं तथा समाज में अपने चरित्र से एक सम्मानजनक स्थान की उत्तराधिकारिणी बनती हैं। श्री राम के समक्ष सीता के द्वारा समाज में किए गए ये श्रेष्ठ आचरण एवं व्यवहार ही उन्हें श्री राम से भी ऊंचा स्थान, दर्जा प्रदान करते हैं। इस कृति में सीता के आचरण व्यवहार के साथ-साथ लंकेश्वरी के भीतर की स्त्री चेतना तथा मानवीय हृदय के साथ-साथ ममत्व एवं आदर्श स्त्री का रूप परिलक्षित होता है। जब लंका की प्रजा भयभीत होकर पूरे राजमहल के इर्दगिर्द घिर जाती है तब वे समूह में रावण को अपशब्द कहते हैं, गालियाँ देते हैं। एक स्त्री को अपहरण करने के कारण क्योंकि उसी वजह से लंका आज खतरे में दिखाई देती है उन्हें। तो उसी समय मन्दोदरी भी विलाप करती है। उसके विलाप से सभी उपस्थित जनसमुदाय के हृदय दहल उठते हैं। मन्दोदरी अपने पति रावण पर चिल्लाते हुए कहती हैं – “अब तुम्हारी इच्छा पूरी हो गई। मेरी बहू विधवा हुई। तुम सीता को जीत लेना। उसके साथ सुख-भोग करना। पापी कहीं के! नीच! अधम! दूसरे की पत्नी का अपहरण कर लाया। सारा वंश नष्ट हो गया! मैं सिर धुनती रही, कहती रही कि सीता को लौटा दो; किंतु मेरी एक न सुनी। एक निर्दोष सती नारी की आह प्रज्वलित अग्नि के समान होती है। दावानल, बड़वानल। जंगल और जल को जला डालती है। तुझे क्या पता पुण्य की बातें!”
सीता पुनि बोली कृति सीता के जीवन का सच्चा चरित गान कहा जा सकता है। इस कृति में हम समाज, परम्परा, स्त्री चेतना के अलावा पारिवारिक समायोजन, ग्रामीण जीवन दर्शन, नायक कल्पना, स्त्री त्रासदी, समर्पण, प्रेम, त्याग , मानवीय मूल्य आदि की झलक भी पाते हैं। सीता अपनी इस जीवन गाथा को सुनाते हुए अंत में जीवन का सार एवं उसमें आने वाले दुःखों तथा सुखों पर भी चर्चा करती हैं। वे यह भी बताती हैं कि जैसा उन्होंने परिस्थितियों के अनुसार किया वैसा यदि वे न करती तो उसका परिणाम क्या होता, उसकी परिणति किस तरह प्रतिफलित होती, उसका परिणाम क्या होता। ये सब बातें जब वे बताती हैं तो निश्चित ही उनके व्यवहार कुशलता , आचरण आदि पर गर्व, अभिमान, रश्क होने लगता है। वे कहती हैं – “यदि मैं राम के साथ वन नहीं जाती, रावण का प्रस्ताव स्वीकार कर उसकी अंकशायिनी बन जाती, लंका से अयोध्या चले आने के पूर्व अग्निपरीक्षा नहीं देती, राम द्वारा निर्वासित होकर नदी में डूब मरी होती, उनके पुत्रों को युवराज के योग्य न बनाया होता तो निश्चय ही मिथिलावासियों का सिर नीचा होता। मुझे हर पल अपने पिता, ससुर और पति के मान का भान रहा। अपनी पुत्री के जीवन में आए सारे दुःखों की सीढ़ियाँ मिथिलावासियों के लिए संसार में गौरवान्वित होने के साधन और आधार बन गईं। दुःख का अंत सुख में ही होता है। सुख-दुःख के गर्भ से ही पैदा होता है। दूसरा दुःख आने तक अपना कोई अस्तित्व नहीं होता। सुख की पहचान ही नहीं होती, यदि दुःख न होता। सुख का परिचय दुःख ही करवाता है।”
इस प्रकार इन संदर्भों के माध्यम से हम सीता के ही नहीं अपितु उससे जुड़े उन सभी व्यक्तित्वों से भी परिचित होते हैं जो समाज में अपने व्यवहार को श्रेष्ठ बनाए हुए हैं तथा दूसरों को भी श्रेष्ठ आचरण तथा व्यवहार करने की सीख देते हैं। इसके अलावा इस मिथकीय तथा सत्य कही जाने वाली घटना में हमें परम्पराओं को निभाने के साथ-साथ अपनी भारतीय एवं लोक परम्पराओं के भी रूबरू होने का अवसर हासिल होता है। स्त्री चेतना की बात करें तो कदम-कदम पर यह कृति स्त्री चेतना तथा उसके स्वर प्रमुखता से तथा प्रबलता से हमारे सामने प्रस्तुत करती है।
उक्त बुक रिव्यू – समाज, परम्परा और स्त्री चेतना का गुम्फ़न है ‘सीता पुनि बोली’ आपको कैसा लगा अवश्य कमेन्ट करके बताएं। आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा।
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