रिव्यू- प्रेम की आंच पर तपती ‘रीस’
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एक तरफ सुसाइड की रिपोर्ट, दूसरी तरफ मामले को ऑनर किलिंग का मोड़ देने की कोशिश और तीसरी तरफ दो नंबर के कामों का झमेला लेकिन इस सबके बीच एक चौथी चीज भी थी। लेकिन क्या? आज स्टेज एप्प पर रिलीज हुई राजस्थानी फिल्म ‘रीस’ को आप देखते हैं तो कई सारी कड़ियों के बीच उलझते जाते हैं। और अंत में आकर नतीजा निकलता है कुछ और। अब क्या है इस कुछ और के पीछे….?
राजस्थान का एक ग्रामीण इलाका जहाँ दीपक किसी नीची जाति की लड़की से प्रेम कर बैठा है। वह लड़की भी दीपक को उतना ही चाहती है। लेकिन दुनिया समाज में इज्जत और जातिगत भेदभाव को जानते हुए भी ये लोग प्रेम की आंच पर तपने को तैयार हैं। लड़के ने किसी तरह परिवार को मनाया और शादी की तारीख तय हुई कि इसी बीच एक दिन गाँव के चौराहे पर दीपक और उसकी प्रेमिका की लाश बरामद हुई। किसने मारा उन्हें? या आत्महत्या की उन्होंने? क्या माँ-बाप-बहन जो इस प्रेम के खिलाफ थे वही तो हत्यारे नहीं?
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बहुत कुछ है इस फिल्म में एक कहानी पुलिस इंस्पैक्टर की भी है। जिसे तबादला करवाना है लेकिन नहीं हो रहा। बीवी उसकी तलाक देने पर आमादा है। क्या है इस पुलिस इंस्पैक्टर की कहानी का पेंच। इस फिल्म में एक कहानी मिर्च मसालों के धंधे की आड़ में नशे के कारोबार की भी है। करीब पौने दो घंटे लम्बी इस फिल्म में राजस्थानी सिनेमा के लिए असली प्रतिबद्धता भी दिखाई देती है।
जोधपुर के फिल्म निर्देशक ‘पंकज सिंह तंवर’ ने इससे पहले कायदे से पहली राजस्थानी वेब सीरीज ‘सरपंच’ बनाकर जो उपकार यहाँ के सिनेमा पर किया है उसका एक प्रतिबिंब ‘रीस’ में भी नजर आता है। पंकज यह साबित करने पर तुले हुए हैं कि जो लोग राजस्थानी सिनेमा के नाम पर आये दिन बस हँसी-मजाक या यहाँ की लुप्त हो चुकी कुप्रथाओं को उघाड़ने का काम कर रहे हैं, उन्हें जगाया जा सके। देखिए ‘रीस’ को और समझ जाइए अब तो कि यहाँ के सिनेमा के नाम पर अब केवल कुप्रथाएं, गढ़-किले, महल और सूखे रेगिस्तान को दिखाने से काम नहीं चलेगा।
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बतौर लेखन, निर्देशन और पटकथा लिखने का काम पंकज ने ‘हैदर अली’ के साथ मिलकर मुकम्मल किया है। वहीं अपने अभिनय और कलाकारी से शम्भू काका बने ‘शैलेन्द्र शर्मा’ ‘अंगूठो’ फिल्म के बाद फिर से चमके हैं। दीपक के किरदार में ‘निर्मल चिरानियाँ’ अपने सहज अभिनय के साथ जो भाव दर्शकों तक पहुँचाने में कामयाब हुए हैं उसे देखकर आप इस लड़के में असीम संभावनाएं खोज सकते हैं। सिनेमा को जीने की एक भूख निर्मल में नजर आती है। रेशमा के किरदार में प्रियंका दवे हों, आशा बुआ के रूप में पूनम शर्मा या फिर कर्मवीर बने जितेन्द्र सिंह राजपुरोहित सभी राजस्थानी सिनेमा को जीते हुए अपनी प्रतिबद्धता दिखाते हैं। सेठ राजपाल के रूप में शैलेन्द्र व्यास ने पुराने जमाने के राजस्थानी सिनेमा को अपने किरदार से जीवंत कर देने का भरपूर प्रयास किया है। इंस्पैक्टर के रोल में नेमीचंद जब तब केस और परिवार की उलझनों में उलझे नजर आते हैं तो उस किरदार को देखते हुए आप असल जीवन के पुलिसिया तंत्र के प्रति भी रहम दिल होते जाते हैं। अपने बेटे को खोने के गम वाले सीन में नेमीचंद आपकी आँखों को नम किये बगैर आपको हिलने नहीं देते।
राजस्थानी सिनेमा में नेमीचंद जैसे कलाकारों का भरपूर फायदा राजस्थानी सिनेमा के लोग ही क्यों आज तक नहीं उठा पाए इसका अफसोस भी होता है। हजारी सिंह चौहान, अविनाश कुमार, त्रिलोक गोस्वामी, भरत वैष्णव, चंद्र भान सिंह, सरिता, संदीप आदि कलाकारों की पूरी टीम फिल्म को अपने सहयोगी किरदारों के सहारे जो मजबूती प्रदान करती है तारीफें तो उसकी भी की जानी चाहिए।
आयुष चंद का डी.ओ.पी पंकज व्यास, पातांजली व्यास की एडिटिंग और कलरिंग पी. निम्बार्क का म्यूजिक और गीत, अदम्य परिहार, सौरभ हजारे का बैकग्राउंड स्कोर, कास्ट्यूम, कास्टिंग सब मिलकर जब मुकम्मल तौर से राजस्थानी सिनेमा के लिए प्रेम की आंच पर तपते हैं तो बनती है ‘रीस’। इस फिल्म को देखने के बाद आपकी राजस्थानी सिनेमा को लेकर हो रही उपेक्षाओं और इसे निम्न दर्जे का मान चुकने जैसी बातें और यहाँ के निर्माताओं, निर्देशकों, कलाकारों, लेखकों पर जो ‘रीस’ यानी गुस्सा भरा हुआ था उसे भी यह फिल्म मिटाती है काफी हद तक और एक सूकून दिलाती है कि जब तक ‘पंकज सिंह तंवर’ जैसे निर्देशक इस क्षेत्रीय सिनेमा में खड़े हैं तब तक आपको नाउम्मीद होने की जरूरत नहीं। हाँ कुछ एक छोटी-मोटी चूक को छोड़ दिया जाए तो ‘रीस मत कर’ गाना आपको आखिर में यही सिखाकर जाता है कि राजस्थानी सिनेमा के नाम पर ‘रीस मत कर’
अपनी रेटिंग – 4 स्टार