रिव्यू- गले पड़ता ‘टाइगर ऑफ़ राजस्थान’

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पाँच लाख का एक ऐसा ईनामी गैंगस्टर एक वक्त में जिसको सरकार हो, मंत्री हो, विधायक हो, बड़े-बड़े पुलिस अफ़सर हो उन सबका एक ही मानना था कि वो अगर पकड़ में नहीं आता तो उसका एनकाउंटर कर दो। वजह ये थी कि वो हर एक के लिए खतरा बन चुका था, वजह ये थी कि उस पर पाँच लाख का ईनाम था लेकिन हाथ नहीं आ रहा था। और वजह ये भी थी कि उसे पकड़ने के लिए पुलिस 300 से ज्यादा ठिकानों पर दबिश डाल चुकी थी। करीब 10 करोड़ रूपये पुलिस प्रशासन उस समय उसे पकड़ने में खर्च कर चुकी थी। आख़िरकार जिस बेसब्री से पुलिस नागौर के रहने वाले इस गैंगस्टर को ढूंढ रही थी, जिसके हजारों फैन सोशल मीडिया में तैर रहे थे, उसका एक सुराग मिलता है… और उसका एनकाउंटर कर दिया जाता है। अब इस पर कोई फ़िल्म बनाएगा तो दिलचस्प तो होनी ही चाहिए लेकिन तिस पर कोई राजस्थानी ही फ़िल्म बनाये तो समझो सत्यानाश ही होगा। बेहतर होगा आप जी फाइव की वेबसीरीज ‘रंगबाज फिर से’ देखिए नहीं तो झेलिए इस कचरे को…

बता दूं कि राजस्थान में पिछले कुछ दशकों में सबसे ज्यादा खौफ़ किसी का रहा तो वह था आनंदपाल का। गरीबों का मसीहा कहे जाने वाले गैंगस्टर आनंदपाल के जीवन में कितना कुछ घटित हुआ होगा तभी तो उस पर सिनेमा बन रहा है। लेकिन क्या अमीरों तथा सत्ता के खिलाफ़ खुद हथियार उठाकर सफ़ाई करने निकल पड़ना जायज है? क्या यह जायज है कि अमीरों तथा कालाबाज़ारी करने वालों को लूटकर उनके पैसे गरीबों में बाँट दिए जाएँ? यों 24 जून 2017 में आनंदपाल का जब एनकाउंटर हुआ तो उसी के परिवार वालों ने इसे फ़र्जी करार करते हुए 18 दिनों तक उसके शरीर के अंतिम संस्कार से इनकार कर दिया। गैंगस्टर आनंदपाल की कहानी से आज की पीढ़ी भी अच्छे से वाकिफ़ है।
राजस्थानी सिनेकारों के नाम शोक संदेश
लेकिन उसे नहीं मालूम तो वो यह कि क्या सच में वो गैंगस्टर खराब किस्म का था अथवा गरीबों का मसीहा! आनंदपाल को लेकर तब भी उतनी ही सुर्खियाँ बनती थीं जितनी की आज भी उसकी बातें राजस्थान में होती नजर आती हैं। एक ऐसे लड़के का बाप जो अपने बेटे को शिक्षा से नए इतिहास लिखने को प्रेरित करता रहा हो उसी का बेटा पढ़ाई लिखाई को बकवास और धत्ता बता देश के हालातों पर ज्ञान बघारने लगे तो यह कहाँ की तार्किकता है?

जब कहीं राजस्थान के किसी कोने में खारे और मीठे पानी की समस्या के विवाद उठे तो कोई आनंदपाल वहाँ आकर पुलिसकर्मी को ही मारे यह कहाँ का मसीहा? जब राजनीति जिसमें भटके हुए लोग प्रवेश करते हैं या भटकाने वाले तो उसी राजनीति को गंदा बताने वाला गैंगस्टर मसीहा सच में इतना भोला था कि वो आसानी से किसी की भी बातों में आ जाए? लोगों की आनंदपाल को राय मिलती है कि नेता बन जाओ या लूटेरा पैसा इसी में है तो वही आनंदपाल पावर चाहता है ताकि वो इस देश-समाज को बदल सके। इसलिए चुनावों में वह प्यार बाँट कर जीतना चाहता है दूसरों के जैसे शराब बांटकर नहीं। इतने पर तो ठीक था लेकिन ऐसी फ़िल्मों की कहानियों को कायदे के निर्देशक, कायदे के कलाकार मिले तो वह देखने योग्य होती है अन्यथा दुत्कारने योग्य…

एक बात बताइए मुझे कर्म वेद हैं, शास्त्र हैं, भूत है, भविष्य है, वीरों का आभूषण है बताने वाली फ़िल्म के निर्देशक खुद के सिनेमाई कर्म को कैसे भूल गए ? फ़िर विपक्ष सत्ता में आने के लिए उसी गैंगस्टर का सहारा भी लेती है तो जब उसी गैंग्स्टर के केस में नए मोड़ आ गये हों तो उसे इसे बनाने वालों ने शामिल करना ज़ायज क्यों नहीं समझा? और तो और जब पर्दे पर ख़ून लाल रंग की बजाए किसी और रंग में नजर आये तो समझ लीजिए उस क्षेत्र में सिनेमा बनाने वालों का मानसिक गर्भपात हो चुका है।
एक चौथाई गाने थोड़े जमते हैं लेकिन तीन चौथाई कहानी का कचरा दो चौथाई कलाकारों की घटिया एक्टिंग और कुलमिलाकर अढ़ाई दिन तक सिर में दर्द देने वाली इस फ़िल्म के शुरू से अंत तक कुछ भी ऐसा नहीं है जिसके लिए इसे देखा जाना चाहिए। ऐसी फ़िल्में सिनेमा बनाने वाले संसाधनों की सरासर बर्बादी है साथ ही ऐसी फ़िल्में राजस्थानी सिनेमा ताबूत में ठोकी गई आखरी कील जैसी है जिसे इसे देखकर आप लिखित में दे सकते हैं कि अगली एक शताब्दी तक यहाँ के सिनेमा को देखने के लिए पहले सी भीड़ नहीं उमड़ने वाली। फिर कोई राजस्थानी फ़िल्म बनाने वाले अपनी ही फ़िल्म के एक आध शो में अपने ही लोगों को बुलाकर हाउसफुल का टैग भले ही पाते रहें। जीने दीजिए इन्हें मुग़ालते में कि ये सिनेमा बना रहे हैं और आपके गले पड़ रहे हैं ठीक जैसे गले पड़ता टाइगर ऑफ़ राजस्थान…
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