फिल्म रिव्यू

लेख-राजस्थानी सिनेमा: निर्देशक, ओटीटी, बाजार एवं फिल्म फेस्टिवल भाग- एक

गणराज्य देश भारत में क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़ा राज्य राजस्थान, कई राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं से सटा हुआ। जिसकी स्थापना हुई साल 1949 में तथा भाषाओं के मामले में भी काफी समृद्ध इस राज्य में प्रमुख रूप से छह भाषाएँ मारवाड़ी, राजस्थानी, बागड़ी, मेवाती, हाड़ौती और ढूंढाड़ी हैं किन्तु इसके इतर भी अन्य भाषाएँ बोली जाती हैं। प्राकृतिक रूप से भी समृद्ध यह राज्य राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, पर्यटन तथा साहित्य आदि मामलों से भी सदा समृद्ध रहा है। इतना ही नहीं किसी समय में सिनेमा के मामले में भी यह राज्य अपने उरूज पर रहा है। वर्तमान समय में भी कई बड़े निर्माताओं, की जड़ें  राजस्थान राज्य से ही जुड़ी हुई हैं मसलन के.सी. बोकाड़िया, दीपक मुकुट, सूरज बडजात्या, सोहम शाह, आर बी चौधरी राम राज नाहटा, भारत नाहटा, नवल माथुर, इत्यादि। इस राज्य की धोरों वाली धरती से सिनेमा की स्वर्णिम किरणें बड़े पर्दे पर पहली बार साल 1942 में ‘नजराना’ नाम से बनी पहली राजस्थानी फिल्म से बिखरी। बस यहीं से ‘राजीवुड’ यानी राजस्थानी सिनेमा का उद्भव हुआ। 

              सिने-विशेषज्ञ, समीक्षक एवं राजस्थानी सिनेमा के इतिहासकारों की एक जमात उसे एक मारवाड़ी फिल्म का दर्जा देते  हुए अपने तथ्यों को पुष्टि प्रदान करते हुए कहते आये हैं कि – उस समय राजस्थान आस्तित्व में नहीं था और ना ही केन्द्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड। यहाँ तत्कालीन समय में ब्रिटिश सरकार के नियम मान्य होते थे इसलिए उस फिल्म को राजस्थानी फिल्म नहीं कहा जा सकता। लिहाजा राजस्थान के गठन के पश्चात ही राजस्थानी सिनेमा का आरंभ माना जाना चाहिए। इन तथ्यों के आधार पर साल 1961 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘बाबासा री लाडली’ ही पहली स्वतंत्र रूप से राजस्थानी फिल्म मानी गई। किन्तु बॉक्स ऑफिस सफलता पहली बार साल 1988 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘बाई चाली सासरिए’ को मिली। इस समय में और इसके कुछ दो-तीन दशकों में ढेरों राजस्थानी फ़िल्मों का निर्माण हुआ। गोया कि ‘नानी बाई को मायरो’, ‘बाबा रामदेव’ ‘गणगौर’, ‘धणी-लुगाई’, ‘गोगा जी पीर’, ‘लाज राखो रानी सती’, ‘सुपातर बिनणी’, ‘म्हारी प्यारी चनणाा’, ‘देराणी-जेठाणी’, ‘आच्छो जायो गीगलो’, ‘ढोला-मारू’, ‘बाई रा भाग’, ‘रमकुड़ी-झमकुड़ी’, ‘बवंडर’ आदि। इनमें से अधिकाँश फ़िल्में मूल रूप से राजस्थानी भाषा में ही बनी। ‘बवंडर’ राजस्थानी सिनेमा के इतिहास की पहली फिल्म रही जिसे देशभर में ही नहीं बल्कि विदेशों तक में भी प्रदर्शित किया गया था। इसके अलावा भी कई फ़िल्में रिलीज हुईं , साल भर में भले एक-आध फ़िल्में बनती रहीं लेकिन उनके दर्शक भी तत्कालीन समय में पर्याप्त थे। इन्हीं में ‘हुकुम’ नाम से बनी पहली राजस्थानी फिल्म रही जो एक साथ राजस्थान के पचास से अधिक सिनेमाघरों में रिलीज होने का रिकॉर्ड अपने नाम करने में सफल रही हालांकि बावजूद इसके बॉक्स ऑफिस पर इस फिल्म को उतनी सफलता नहीं मिल पाई कि यह बॉक्स ऑफिस के लिहाज से भी कोई रिकॉर्ड बना पाती।

              साल 1990 तक आते-आते राजस्थानी फिल्मों के दर्शक एकदम लुप्त प्राय: से होने लगे और इस बीच कोई भी फिल्म आती उसकी खबर तक यहाँ के सिने-रसिकों के इतर किसी को न लग पाती। यही वजह रही कि ‘चुंदडी ओढासी म्हारो वीर’ जैसी फिल्म जिसे कई सारे सम्मानों से भी नवाजा गया। यहाँ तक कि ‘टाइम्स ऑफ़ इंडिया’, जयपुर ने इसे राजस्थानी सिनेमा के अब तक के 100 वर्षों के इतिहास में सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित किया। उसके रिलीज होने की खबर भी शायद ही किसी आम राजस्थानी दर्शक को लगी होगी। यही कारण है कि वर्तमान दौर में भी राजस्थानी सिनेमा बन रहा है किन्तु दर्शकों की तरफ से उन्हें वह प्यार नहीं मिल पा रहा। दर्शकों की तरफ से बनी यह उदासीनता इसलिए भी जायज लगती है कि राजस्थानी सिनेमा में अब उनकी रुचि का सिनेमा बनाने में निर्देशक भी विफल हो रहे हैं। इसी समय में ‘हरियाणवी स्टेज’ ने एक कोशिश अवश्य की है। यह ओटीटी प्लेटफार्म राजस्थानी कैटेगरी में भी फ़िल्में लेकर आ रहा है। आलम यह है कि राजस्थानी भाषा में वेब सीरीज भी बनने लगी हैं। किन्तु पांच बरस पहले आये इस ओटीटी से ज्यादा उम्मीदें भी नजर नहीं आती। हालांकि इस ओटीटी प्लेटफार्म को लेकर आने वाले सिंगल बंधु इसे ‘बोलियों की क्रान्ति’ का दर्जा देने की कोशिश में लगे हैं साथ ही वे इसे बोलियों का ‘नेटफ्लिक्स’ भी कहते नजर आते हैं तो लगे हाथ इसे राजस्थान का पहला ओटीटी प्लेटफार्म भी कहा गया है। किन्तु सनद रहे कि यह राजस्थान का पहला ओटीटी प्लेटफार्म नहीं है।

              कायदे से राजस्थान का पहला ओटीटी प्लेटफार्म ‘सिनेमास्थान’ है जिसे ‘राजस्थान इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल’ के आयोजक ‘सोमेन्द्र हर्ष’ ने बनाया। हालांकि कोरोनाकाल के दौरान बना यह ओटीटी प्लेटफार्म कोरोना की भेंट ही चढ़ गया। ना कायदे से इसे दर्शक मिले और ना ही इसका प्रचार हो पाया। यह भी वजह रही कि मार्केटिंग तथा आपाधापी के इस दौर में तेजी से चर्चा में आकर राजस्थान का पहला ओटीटी बनने का गौरव ‘स्टेज एप्प’ के नाम लिखा गया। फिर इस ओर भी ध्यान देना जरूरी है कि इक्कसवीं सदी के आधुनिक से उत्तरआधुनिक हो रहे भारत देश में जब तकनीक हर मामलों में इतनी बढ़ चुकी है कि हमारा देश विश्व की पांच सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार है तब भी यह प्रश्न सिनेमा के मामले में बेहद चिंतित करता है कि जिस प्रदेश के सिनेमा ने इतनी ऊँचाईयाँ देखीं हैं तो अब वह पतन में क्यों नजर आ रहा है। असल हकीकत तो ‘राजीवुड’ की यह हो चली है कि यह अपने आस-पास के क्षेत्रीय सिनेमा से भी पिछड़ा हुआ नजर आता है। फिर दूसरा कारण यह भी कि यहाँ के निर्माता भी यहाँ की फिल्मों पर अपना समय और धन लगाकर उसे जाया करना नहीं चाहते। जब किसी प्रदेश का सिनेमा इस कदर उन्हें दिवालिये की कगार पर ले जाकर छोड़ दे तो उसमें कोई दिलचस्पी क्यों ही दिखाएगा भला। ‘स्टेज एप्प’ पर लगभग एक-दो साल के भीतर एक दर्जन से अधिक राजस्थानी फ़िल्में तथा वेब सीरीज प्रदर्शित की जा चुकी है किन्तु उनमें भी अँगुलियों पर गिनने लायक कुछ ही स्तरीय कही जा सकने वाली फ़िल्में तथा वेब सीरीज मौजूद हैं।

              किसी भी क्षेत्रीय सिनेमा को आगे बढ़ाने का मतलब यह नहीं हो सकता कि आप एक के बाद एक फ़िल्में प्रदर्शित करते चले जाएँ अपितु उसके साथ यह बात भी लागू होती है कि वह स्तरीय हो, कम से कम इतना तो अवश्य हो कि जिसे सब राजस्थानी या कुछ गैर राजस्थानी भी देखने के लिए दिलचस्पी लें। ‘औलाद रो रंग’, ‘सरपंच’, ‘घूँघरू’, ‘परीक्षा’, ‘मुकलावो’, ‘आटा-साटा’, ‘कर्ज रो घूँघट’, ‘बिंदौरी’ जैसी कुछ फ़िल्में और सीरीज अवश्य अकेले राजस्थान प्रांत की नजर से चर्चित रहीं। हालांकि उनके चर्चित होने का कारण उनका स्तरीय होने के साथ-साथ बेहद निम्न स्तर का होना भी रहा। राजस्थान के क्षेत्रीय सिनेमा में अब तक विशुद्ध रूप से राजस्थानी कही जा सकने वाली मात्र 200 फ़िल्में रिलीज हो पाई हैं। सौ साल के इस सिनेमाई इतिहास पर नजर दौडाएं तो प्रत्येक वर्ष में दो फिल्मों के ही रिलीज होने का औसत नजर आता है। इधर कुछ राजस्थान की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर बॉलीवुड में भी सैंकड़ों फ़िल्में बनती रहीं किन्तु वे सब हिंदी भाषा में रिलीज होने के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँच बनाने में कामयाब हो पाई। फिर दूसरा कारण उनमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचाने जाने वाले कलाकारों ने काम किया। ‘शाहरुख खान’ की ‘पहेली’ फिल्म को कौन भूल सकता है भला। इसके अलावा ‘धनक’, ‘आई एम कलाम’, ‘रूदाली’, ‘मनोरमा सिक्स फीट अंडर’, ‘स्केटर गर्ल’ जैसी चर्चित फ़िल्में और वेब सीरीज भी पूरी तरह से राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी और सारा परिवेश तथा उनकी लगभग पूरी टीम भी राजस्थानी होने के बावजूद उन्हें राजस्थानी फिल्मों का दर्जा नहीं दे पाई।

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