साहित्य

विज्ञापनों का सामाजिक सन्दर्भ – भाग एक

 

रक्षा गीता दिल्ली विश्वविद्यालय में पिछले एक दशक से भी लम्बे समय से अध्यापन का कार्य कर रही हैं। साहित्य, सिनेमा, समाज के विभिन्न पहलूओं पर अपनी गंभीर दृष्टि रखने वाली रक्षा गीता सिनेमा में अपने लेखन की एक नई दृष्टि रखती हैं। फिल्मों पर ख़ास करके वे लिखते समय उनके हर एक पहलू को पाठकों के सामने लाना नहीं भूलती। विभिन्न राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाओं में लेखन करने वाली रक्षा गीता कहानियों को कहने की कला भी बखूबी जानती हैं। उनके लेखन की अपनी ही एक विशिष्ट पहचान उन्होंने स्थापित की है। समय-समय पर कई प्रतिष्ठित मंचों पर वे साहित्य, सिनेमा, समाज के बिन्दुओं पर बोलती हैं तो बुद्धिजीवी वर्ग को भी एक बारगी सोचने पर मजबूर करती हैं। विज्ञापनों के सामाजिक संदर्भ को लेकर रक्षा गीता के लेख की सीरीज का पहला भाग लेकर गंगानगर वाला हाजिर है। हमारा सौभाग्य है कि हम उन्हें सहयोगकर्ता के रूप में पाकर ज्ञानवृद्धि कर पा रहे हैं। 

प्रारंभ में विज्ञापन सूचना देने वाले हुआ करते थे लेकिन संचार मीडिया के बढ़ते क्षेत्रफल में यह अवधारणा अब पूरी तरह से फिट नहीं बैठती। आज के विज्ञापन व्यापार का अभिन्न अंग है, ‘जो दिखता है वही बिकता है’ के तर्ज पर चल रहा है। माँग और आपूर्ति के समीकरणों के परे अब माँग पैदा करना उसका उद्देश्य है। विज्ञापन का कार्य उत्पाद विशेष के लिए बाजार तैयार करना है। विज्ञापन के महत्त्व को इस ऐतिहासिक सत्य को बताते हुए ‘संजय बघेल’ अपनी किताब ‘विज्ञापन और ब्रांड’ में कुछ यूँ लिखते हैं – “महात्मा गाँधी की हत्या की खबर को ‘द हिन्दू’ समाचार पत्र में अंदर के पृष्ठ पर प्रकाशित किया, कारण उसके मुख पृष्ठ पर विज्ञापन छपा था।”

आज का आधुनिक युग तो विज्ञापन का युग है। विज्ञापन हमारी जीवन-शैली तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसके लिए विज्ञापन किसी भी तरह की सही-गलत अपील को अपना रहे हैं। यहाँ पुन: संजय बघेल का कथन सत्यापित करता है कि – “स्त्री/पुरुष सम्बन्धी अपील का प्रयोग स्त्री, पुरुष के सौंदर्य को निखारने और उन्हें परफेक्ट मैन और वीमेन बनाने के रूप में की जाती है (और उपभोक्ता इसके बहकावे में तुरंत आ जाता है)… साहसिक अपील में कल्पना का एक साहसिक संसार रचा जाता है कि इसके बाद आपकी जिन्दगी बदल जाएगी। कोल्डड्रिंक के विज्ञापन ऐसे ही होते हैं। …रोमांस अपील विपरीत सेक्स को प्रभावित करने के लिए होता है विज्ञापनों का 50%हिस्सा इसी अपील पर आधारित है।” यह सच है कि आम उपभोक्ता इन अपीलों के चंगुल में फंस जाता है लेकिन बुद्धिजीवियों की आलोचना से विज्ञापनकर्ता बच नहीं पाते। उन पर सामाजिक पतन के आरोप भी लगते रहते हैं, साथ ही यह भी कटु सत्य है कि विज्ञापन उभोक्तावाद को बढ़ावा देते हैं, व्यक्ति के अंदर भोग की प्रवृत्ति पैदा करते हैं।

संजय बघेल लिखते हैं – “विज्ञापनों का प्रभाव न सिर्फ हमारे रहन सहन रीति-रिवाज पर पड़ता है अपितु ये हमारे सामजिक-सांस्कृतिक मूल्यों में बदलाव के कारक भी होते हैं, जैसा कि कहा जाता है कि- विज्ञापन समाज का दर्पण होता है इससे हमारे समाज की सांस्कृतिक विरासत और मूल्य का भी प्रदर्शन होता है। …विज्ञापन का एक उद्देश्य होता है व्यक्ति और समाज को जड़ मन से तोड़ना। …इतना ज़रूर है कि यह मनुष्य अथवा समाज की संरचना और संस्कृति में बदलाव नहीं कर सकते तो इसमें परिवर्तन तो ज़रूर ला सकते है” जैसे कि हमने कहा कि आधुनिक  युग विज्ञापन का युग हैं, समस्त उद्योग, धंधे एवं व्यापार विज्ञापनों पर निर्भर है। अब तक सूचना प्रेषित करने वाले तथा जानकारी देने वाले विज्ञापन, आधुनिक औद्योगिक जगत के  प्रतिस्पर्द्धात्मक युग में विस्तृत फलक पर कार्य कर रहे हैं। आज विज्ञापन की परिभाषा में हम उन सभी साधनों का समावेश करते हैं जिनके द्वारा विक्रेता एवं उपभोगकर्ता को नवीन वस्तुओं की उत्पत्ति गुण एवं मूल्य आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती ही है तथा उपभोक्ता भी मिले इसका भी विश्वास विज्ञापन  दिलाता है संक्षेप में किसी वस्तु अथवा सेवा की उपयोगिता का जनता के ऊपर प्रभाव डालने से संबंध रखती हैं।

आज उत्पादक उत्पाद को बाज़ार में बेचने के लिए विज्ञापनों का सहारा लेकर अपने उत्पाद के लिए उपभोक्ताओं का निर्माण करता है। “विज्ञापन उद्योग आज मीडिया उद्योग का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन चुका है विज्ञापन उद्योग में किस तीव्र गति से बढोतरी हो रही है। इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिस विज्ञापन जगत का आकार वर्ष 2006 के अंत में 1994 करोड़ रुपये था वह 15 मार्च 2007 तक पहुँचते-पहुँचते 16300 करोड़ हो गया था। (आज 2018 चल रहा है) यह 10 गुना बड़ा है।” संजय बघेल संजय बघेल विज्ञापन और ब्रांड सस्ता साहित्य मंडल प्रथम संस्करण -2016  विज्ञापन आज जीवन शैली का महत्त्वपूर्ण अंग बन चुका है इसलिए इसके विविध पक्षों पर विमर्श करना अनिवार्य हो गया है। यह जानना ज़रूरी हो गया है कि विज्ञापन की दिशा किस ओर जा रही है, उसे कैसा होना चाहिये, मानव समाज के विकास में ये किस प्रकार सहायक हो सकते हैं। इनको ध्यान में रखते हुए अध्ययन करना होगा। विज्ञापन जगत को इससे नई दिशा-दृष्टि में लाभ मिलेगा इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। परन्तु व्यावसायिकता की इस दौड़ में सामाजिक उत्तरदायित्वों को विज्ञापनकर्ता नज़रंदाज़ कर देता है।

फोटो साभार- गूगल

स्पर्धा-प्रतिस्पर्धा के रणक्षेत्र में विज्ञापन उत्पादक एवं उपभोक्ता दोनों के लिए ही सामान रूप से महत्वपूर्ण हो चुके  हैं। एक ही वस्तु का उत्पादन अनेक उत्पादक कर रहे हैं। ऐसे में व्यावसायिक सफलता प्राप्त करने के लिए, वस्तु के प्रति विश्वसनीयता पैदा करने के लिए और उपभोक्ता को वस्तु को खरीदने के लिए विवश करने के लिए विज्ञापन जी-जान लगा देता है। इसी संघर्ष में एक मीडिया जनित नवीन संस्कृति ने जन्म लिया है जो लोकप्रिय संस्कृति (पॉपुलर कल्चर) के नाम से जानी जाती है। मीडिया जनित इस विज्ञापन की बात करते हुए संजय लिखते हैं- “उपभोक्तावादी संस्कृति के विकास से, इस मेल जोल की संस्कृति से एक नई संस्कृति का उदय हुआ जिसे हम मीडिया संस्कृति अथवा पापुलर संस्कृति के नाम से भी जानते है। इस संस्कृति के उदय का कारण आधुनिक जन संचार माध्यम है विज्ञापन जिसका एक हिस्सा ही है।” यह संस्कृति बचत करना नहीं खर्च सिखाती जैसे अभी हाल ही में “पिज़्ज़ाहट” एक विज्ञापन में  पिज़्ज़ा खाने के लिए दो युवा म्यूच्यूअल फंड को तोड़ कर पिज़्ज़ा खरीदने की बात कर रहे है। इसलिये देखा जाये तो ‘डिजिटल युग में मासकल्चर और विज्ञापन’ पुस्तक में ‘जगदीश्वर चतुर्वेदी’ और ‘सुधा सिंह’ लिखते हैं- “फैंटेसी के प्लेग ने सभी को चिंतित कर दिया पुराने मूल्यों मान्यताओं नीतियों और जीवन शैली के मानक धड़ाधड़ टूट रहे है बाज़ार का आकर कई गुना बड़ा है। …जीवन के जो मूल्य बुरे माने  जाते है, विज्ञापन में ध्यानाकर्षण और प्रेरणा के स्रोत माने जाते हैं मसलन ईर्ष्या या डाह को जीवन में बुरा माना जाता है लेकिन विज्ञापन में ईर्ष्या के बिना तैयार नहीं कर सकते।” (जैसे एक टीवी का बहुत पुराना विज्ञापन जिसमें कहा जाता था neighbor envy owners pride.

विज्ञापन के मूल में आर्थिक उद्देश्य निहित हैं यानी विज्ञापन को व्यावसायीकरण से अलग नहीं किया जा सकता। संचार माध्यमों के विस्तार ने विज्ञापनों की पहुँच को और भी बढ़ाया। विज्ञापन समाज और संस्कृति से प्रभावित होते गये, प्रभावित करते गये। लेकिन विज्ञापनों की भोग-संस्कृति को बढ़ावा देने  वाली तथा पूंजीवादियों के लाभ कमाने का अस्त्र, साथ ही यथार्थ विमुख मानकर  इसकी निंदा भी की गयी। ‘जगदीश्वर चतुर्वेदी’ और ‘सुधा सिंह’ लिखते हैं- “विज्ञापन में व्यक्त सौन्दर्य या सुन्दरता वस्तुतः यथार्थ से पलायन है। उसके तृप्तिदायक चित्र एक औषधि की तरह होते हैं। विज्ञापन का समाज अभिजात्यों का समाज है जिसमें भावुकता और मिथ्या भावमयता का बोलबाला है। यह पूंजीवादी बाज़ार और व्यवस्था से उपजे अंतर्विरोधों और तनावों से ध्यान हटाने का आज सबसे प्रभावी पूंजीवादी कलारूप है

रक्षा गीता     

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रक्षा गीता

डॉ. रक्षा गीता एक दशक से भी अधिक समय से कालिंदी महाविद्यालय, दिल्ली यूनिवर्सिटी में सहायक प्रोफेसर है। सिनेमा, साहित्य, समाज पर विशेष रूप से गहन अध्ययन, लेखन करती रही हैं।

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5 Comments

  1. धन्यवाद तेजस जी
    2818में लिखा मेरा यह लेख अब आपके मंच के माध्यम से जिज्ञासु पाठकों तक पहुँचेगा।

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