समाज में विज्ञापन फैला रहे अश्लीलता
दिल्ली विश्वविद्यालय में एक दशक से भी लम्बे समय से अध्यापन कार्य कर रही डॉ. रक्षा गीता के द्वारा लिखी गई यह शोधपरक सीरीज विज्ञापन लेखन के सम्बन्ध में शोध कर रहे छात्रों के लिए निश्चित तौर पर मार्गदर्शन एवं शोध में संदर्भ के रूप में सहायक होगी। अभी तक हमने विज्ञापनों के बारे में भाग एक और भाग में जाना कि विज्ञापन क्या होते हैं? और कैसे यह समाज को प्रभावित करता है? इसके साथ ही हमने इसकी विभिन्न विद्वानों के द्वारा दी गई महत्वपूर्ण परिभाषाओं से भी रूबरू हुए। तथा इसके तीसरे भाग में हमने विज्ञापनों के सामाजिक उत्जतरदायित्वों को जाना। इस सीरीज के चौथे भाग में विज्ञापन समाज में अश्लीलता फैला रहे हैं, और ऐसा वे किस वजह से कर रहे हैं अथवा उनके द्वारा फैलाई जा रही अश्लीलता के पीछे की वजहें क्या हैं उन पर चर्चा होगी। हम आये दिन अपने घरों में टेलीविजन चलाते हैं तो झट से विज्ञापनों की ऐसी बाढ़ नजर आती है जिस पर किसी की लगाम नहीं है। अपने घरों में बच्चों के सामने टेलीविजन तक चलाना दूभर लगता है। आखिर यह समाज में विज्ञापनों द्वारा फैलाई जा रही अश्लीलता हमें किस ओर लेकर जायेगी यह एक विचारणीय तथ्य है-
टेलीविजन पर आने वाले आजकल के विज्ञापनों में उत्पाद की जानकारी देने के अलावा बाकी सब कुछ बताया जा रहा है। फिर चाहे वो किसी महिला के नंगे बदन की नुमाइश हो, किसी कंडोम के विज्ञापन में अलग अलग फ्लेवर का बिम्ब प्रस्तुत करना हो और तो और उनके ब्रांड विशेष के उत्पाद को इस्तेमाल न करने वाले को पिछड़ा बताया जाता है। कई बार तो विज्ञापन के माध्यम में उन्हें बरगलाया या उकसाया तक जाता है। एक परफ्यूम के विज्ञापन में दिखाया जाता है कि कैसे एक नवविवाहिता किसी ख़ास परफ्यूम से कुछ यूँ मदहोश हो जाती है कि घर बार की सभी मर्यादाओं को लाँघकर उसके पास कामेच्छा हेतु दौड़ पड़ती है, जो किसी भी शादीशुदा महिला के चरित्र पर ही प्रश्नचिन्ह लगाती है हालाँकि विज्ञापन कह रहा है कि नैतिकता के मानदंड तोड़ने में कोई बुराई नहीं।
विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ भाग एक पढ़ने के लिए यह देखें
एक अन्य परफ्यूम के विज्ञापन को देखे जिसमे माँ अपनी बेटी के दोस्त पर आकर्षित हो जाती है उस पर कहती है कि मुझे आंटी नही मेरे नाम से पुकारो और यह कहने में उसका हाव-भाव उसकी लालसा को बता रहा है कि वो अपने से आधी से ज्यादा उम्र के लड़के वो भी उसकी बेटी का ख़ास दोस्त, पर मोहित हो चुकी है। ‘मीनाक्षी , मीनाक्षी कहो मुझे।’ रिश्तों की गरिमा का गला घोंटकर जाने क्या स्थापित किया जा रहा है। आने वाली पीढ़ी क्या सीखेगी इस तरह के विज्ञापनों से जो यह बता रही है कि सुगंध किसी भी रिश्ते की मर्यादा को तोड़ सकती है और वह गलत नहीं है। यह एक असामाजिक विज्ञापन है यद्दपि इसमें भौतिक अश्लीलता नहीं लेकिन फिर भी समाज की मर्यादाओं के खिलाफ है। यह संस्कारों को ताक़ पर रखते हुए माँ के द्वारा ही संस्कारों को विश्रृंखलित होते दिखाया गया है। सुगंध ने तमाम नैतिक सामजिक रीति रिवाज़ आदि को हवा में उड़ा दे रहे हैं। संजय बघेल लिखते हैं- वास्तव में “सेक्स अपील ..सबसे सफल और प्रभावी अपीलों में मानी जाती है यह लोगों के अवचेतन और सुप्त अवस्था में पड़ी हुई जिज्ञासाओं को जगाने में सबसे कामयाब अपील होती है। इस अपील का सबसे बड़ा उपभोक्ता युवा वर्ग होता है जो विश्व बाज़ार का सबसे बड़ा उपभोक्ता भी होता है।”
इसी तरह अगर आपके टूथपेस्ट में कुछ ख़ास चीज़े नहीं है, तो फिर आप का बेकार ही ब्रश करते हो, ऐसा जताया जाता है। इसी तरह “अपना लक पहन कर चलो” कहकर एक बनियान के विज्ञापन में यह प्रमाणित करने का प्रयास है कि बनियान नहीं आपकी किस्मत है, जिसकी कीमत 100 रूपए से भी कम यानी खुद अपनी किस्मत चमकाने के लिए इतना बड़ा अभिनेता जो अब फ्लॉप हो रहा है ऐसे विज्ञापनों का सहारा ले रहा है। वो आपकी किस्मत कैसे चमकाएगा। मगर इसे विज्ञापन आपको भ्रमित कर अन्धविश्वासी बना रहे है जैसे एक साबुन के विज्ञापन में बच्चे से यह कहलवाना कि “आपका चेहरा मेरे लिए लकी है ।” आज अगर हम देंखें तो विज्ञापनों में नैतिकता पुरुषों, महिलाओं, बच्चे बूढ़े हरेक के उत्पाद के विज्ञापनों में ध्वस्त हो रही है। खाने-पीने से लेकर मोबाइल, बाइक, कपड़ा, कार, बैंक आदि कहीं भी नज़र डाले वहां हमें पुरुष से ज्यादा ‘महिला-मॉडल’ कामुकता परोसती नजर आयेंगी पता नहीं क्यों बगैर (सेक्सी) लडक़ी को दिखाए विज्ञापन पूरा ही नहीं होता है। संजय बघेल अपनी किताब में लिखते हैं कि- “विज्ञापन का शायद ही कोई सेगमेंट रहा हो जहाँ सेक्स के माध्यम से उसे बेचने की कोशिश न की गई हो। इस तरह के विज्ञापन सामाजिक और नैतिक पतन के रूप में में व्याख्यित किया जाता है तो कभी यह कहकर उसकी आलोचना की जाती है कि समाज में जो दुराचार छेड़छाड़ की घटनाएँ बढ़ रही है उसके लिए इस प्रकार के विज्ञापन जिम्मेदार हैं।”
विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ भाग दो पढ़ने के लिए यह देखें
विज्ञापन की प्रभावशाली प्रस्तुति समाज में व्याप्त बुराइयों और कुरीतियों को उनके नकारात्मक परिणाम के साथ समाज में सजगता बनाये रख सकती है मगर आर्थिक लाभ के लोभ में वह अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रहा है। मैगी, पिज़्ज़ा, कोका-कोला आदि जंक फ़ूड ऐसे खाद्य पदार्थ हैं, जो पाश्चत्य संस्कृति की देन है इनका प्रयोग दिन-प्रतिदिन बढता जा रहा है। परिणामस्वरूप हमारी संस्कृति और स्वास्थ्य पतन की ओर जा रहे हैं। लुभावने विज्ञापनों के मायाजाल, फ्री उपहार, एक के साथ एक फ्री जैसे झांसो में समाज का हर आयु वर्ग का व्यक्ति आसानी से इसमें फंस कर नये-नये रोगों को मोल ले रहा है और लोभ का कारोबार खूब फल-फूल रहा है। भारत में विदेशी कंपनियों के समान थोक के भाव आ रहे हैं। स्वदेशी वस्तुए पिछड़ती जा रही हैं। विज्ञापनों की चकाचौंध में भारतीयता विलीन होती जा रही है रोजमर्रा की मामूली चीज़ों, दलिया, उपमा, इडली सब कुछ रेडीमेड हो गया है।
हमारे खान-पान पर अब विदेशों का आधिपत्य हो गया है। हम अंग्रेजी मानसिकता के वशीभूत होकर मैगी पास्ता पिज़्ज़ा को अपना कर अपनी सेहत खराब कर रहें है और सोचते हैं कि विदेशियों की तरह हम अपने ही देश में विदेशी होते जा रहे हैं। अपने समाज को हेय तुच्छ मानकर उन विचारों को, दर्शन को भूलते जा रहें हैं। आज सेक्स अपील से भरपूर विज्ञापनों ने बच्चों के विकास की रूपरेखा नकारात्मक ढंग से बदल दी है। उसे खाने से लेकर खेलने तक, सब में बदलाव आ रहा है उनकी जिंदगी उन तमाम भौतिक वस्तुओं से घिर गयी है, जिन्हें विज्ञापनों ने उनकी अनिवार्य जरूरत बना दिया है, वे उन वस्तुओं के आदी हो रहे हैं जिनका उनके जीवन पर नकारात्मक परिणाम पड़ रहा है, ध्वंसात्मक वीडियो गेम्स, जंक फ़ूड के साथ उटपटांग फ्री के खिलौने जिनके जरिये बच्चों के जीवन मूल्यों को ही बदल कर रख दिया है। इसी का नतीजा है कि बच्चों के स्वभाव में ज़रूरत से ज्यादा उग्रता जिद्दीपन आ गया है उन्हें इस बात की समझ नहीं विकसित हो रही कि उनके लिए क्या ज़रूरी है क्या गैर ज़रूरी। छोटे बच्चों की मानसिकता के साथ खिलवाड़ करना उन्हें अपने उत्पाद के लिए ललचाना,जाल में फंसाना बहुत ही अनैतिक है।
एक विज्ञापन आपको दो मिनट में खुशियों का वादा करता है, माँ अपने बच्चों को बड़े प्यार दुलार से मैगी बनाकर खिला रही है जबकि वो किसी भी भारतीय स्नैक्स से ज्यादा अस्वस्थकर है लेकिन मैगी ने सम्पूर्ण भारत को कश्मीर से कन्याकुमारी ही नहीं कारगिल में बैठे सैनिकों के लिए भी वरदान की तरह दिखाई जाती है मातृभक्ति से लेकर देशभक्ति जैसी भावनाओं का शोषण किया जा रहा है जोकि विडंबना पूर्ण है। इसकी गुणवत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगने के बाद भी विज्ञापन के तिलिस्म से कोई नहीं बच पाया है।
विज्ञापनों का सामाजिक संदर्भ भाग तीन पढ़ने के लिए यह देखें
हद तो तब हो जाती है जब एक बच्चा कार्टून देख रहा है और वहां पर उसे सैनेटरी नैपकीन या कंडोम का विज्ञापन देखना पड़ता है उसका बचपन छीना जा रहा है। समय से पहले उसे बड़ा बनाकर मानो उसे अपने उत्पाद के प्रयोग के लिए जिज्ञासु बनाकर खरीदने और उपयोग करने को विवश किया जा रहा है। बच्चे की खेलने कूदने की उम्र में बड़ो के उपयोग की चीज़ का विज्ञापन दिखाकर यह कम्पनियाँ सिर्फ अपना लाभ देख रहीं हैं उन्हें समाज की नैतिकता से कुछ लेना देना नहीं। बच्चों के खिलौनों ने भी विज्ञापनों ने भेदभाव पैदा किया जैसे अमेरिका की बार्बी डॉल और भारत की गुड़िया। भारत में लोग सर्दियों में भी कपड़ों के अभाव में नंगे बदन घूमतें हैं वहीं इन बार्बी डॉल के डिज़ाइनर कपडे हेयर स्टाइल खेल भावना और बचपने को पीछे छोडकर दिखावे और बनावटी दुनिया को बढ़ावा देती है। ये विज्ञापन हमारी छिपी हुई अतृप्त इच्छाओं को भड़काते है हमारे धैर्य और विवेक को कुचलने में माहिर होते है।
हम सिनेमाहाल में जो विज्ञापन देखतें हैं वे सभी सेंसर से पास होकर काट छंट के साथ ही प्रसारित हो सकते हैं। लेकिन घर-घर में आने वाले विज्ञापनों पर सेंसर की कोई नजर नहीं जाती यह आश्चर्यजनक है। यदि किसी विज्ञापन पर उसके अश्लीलता की वजह से प्रतिबन्ध लगता भी है तो वो भी किसी जनता की शिकायत के बाद लगाए गये हैं जब कोई जागरूक दर्शक या स्वयंसेवी संस्था शिकायत दर्ज करवाती है तब जाकर उसका प्रसारण बंद किया जाता है । एक समय पर मार्क रॉबिंसन और पूजा बेदी के एक विज्ञापन पर उसकी अश्लीलता को लेकर, काफी शोरशराबा हुआ था। पेप्सी के विज्ञापन में एक नाबालिग बच्चे को कोल्ड ड्रिंक की ट्रे को खिलाड़ियों के लिए ग्राउंड में ले जाते हुए दिखाया गया था। बाद में ह्यूमन राइट्स ग्रुप ने शिकायत दर्ज करते हुए कहा कि इससे बालश्रम को बढ़ावा मिलता है। नतीजन बोर्ड को यह विज्ञापन प्रतिबंधित करना पड़ा। इसी तरह मिलिंद सोमण और मधु सप्रे ने एक ‘शू कंपनी’ का विज्ञापन किया जो उनकी नग्नावस्था के लिए चर्चा में रहा जिस पर खूब बहस, वाद विवाद हुए तब इस पर बैन लगया गया लेकिन तब तक वो इतना चर्चित हो चुका था कि बैन के कोई मायने नहीं रह गये थे। लेकिन आज भी ऐसे सैकड़ों विज्ञापन हिंसा और अश्लीलता को बढ़ावा दे रहे हैं और सेंसर बोर्ड सुप्तावस्था में है।
पिछले कुछ वर्षों में विज्ञापनों ने व फिल्मों ने भी हमारे समाज के लगभग हर वर्ग का एक टेस्ट कुरुचि विकसित कर दी जो बाज़ार के मनमुताबिक थी उन्हें जो सामन बेचना था वो तो बेचा ही लेकिन उन विज्ञापनों के साइड इफेक्ट के रूप में मानसिक कुरूपता को बढावा मिला इसे हर सिरे से नज़रंदाज़ किया गया जिसके दुष्परिणाम अब नज़र आ रहे है। आजकल सभी न्यूज़ चैनलों पर हर ब्रेक में सनी लियोनी का कंडोम का एक विज्ञापन आता है, जिसमें एक गाना चलता है “मन क्यों बहका रे बहका आधी रात में” या “अभी ना जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं” और वह अश्लील ढंग से कपडे उतरती है और पलंग पर लेट जाती है, यह विज्ञापन परिवार व बच्चों के बीच बैठे एक सभ्य परिवार के के साथ बैठकर नहीं देखा जा सकता। आखिर क्यों हमें परिवार के बीच में बैठ कर पोर्न देखने को मजबूर किया जा रहा है? क्या हम किसी भी वस्तु के प्रचार को सभ्य ढंग से नही दिखा सकते? क्या हर सामान को बेचने के लिए (चाहे वह एक पानी का बोतल हो या अंडरवेयर और बनियान, चाहे वह परफ्यूम हो या शेविंग ब्लेड) इनके विज्ञापनों में अधनंगी लड़कियों, किसिंग सीन का होना, भद्दे तरीके से लिपटा लिपटी दिखाना आवश्यक है। हम जान रहे होते हैं कि इन विज्ञापनों में, सेक्स एजूकेशन या एड्स या सावधानी जैसी तो कोई जानकारी या सूचना तो होती नहीं जैसे कि पहले के विज्ञापनों में हुआ करता था, जब डीलक्स निरोध का विज्ञापन आता था उसमें बताया जाता था कि “यौन रोग एवं एड्स की रोकथाम में लाभदायक।”
अभी जो एड आ रहे हैं इनका एड से कुछ लेना देना नहीं है। सेक्स एजूकेशन जैसा भी कुछ नहीं है सिर्फ अपना माल बेचना है। नंगई दिखाने के बजाय जानकारी दिखाए उन सेलिब्रिटीज को इस विज्ञापनों में शामिल करे जिन पर लोग भरोसा करते हैं। बच्चे, जवान, बुजुर्ग सबको इस बहस का हिस्सा बनाएं। संस्कृति का ढोल पीटने से अश्लीलता का बाजारू व्यापार बंद नहीं होगा और न ही एड्स और न सेक्स से जुड़ी बीमारियां। डॉक्टर के पास जाकर कोने में चुपके से अपनी बीमारी दिखाने से बेहतर है हम अपनी पीढ़ियों को जागरुक करें।
इसके अतिरिक्त जो भी विज्ञापन आरामदायक और विलासिता संबंधी वस्तुओं के संबंध में किये जाते हैं उसके कर्इ सामाजिक दुष्परिणाम निकलते हैं जैसे जब भी कोई व्यक्ति को किसी विज्ञापन से प्रभावित होकर किसी विशेष चीज के उपभोग का आदी हो जाता है तो उसका छूटना बहुत कठिन हो जाता है, जैसे गुटखा ,शराब, पान मसाला या जंक फ़ूड आदि। इसका एक कारगर उपाय तो यही है कि जिस प्रकार फिल्मों के लिए सेंसर बोर्ड है उसी प्रकार से विज्ञापनों का भी सेंसर बोर्ड होना चाहिये|फिल्मों को ‘ए’ सर्टिफिकेट देकर एक खास वर्ग को देखने से रोका जा सकता है, लेकिन विज्ञापनों में सेंसर न होने की वजह से सभी उम्र वर्ग के लोग साथ-साथ उसे देख रहें है ये जानते समझते हुए कि सबकी सोच, मानसिक सत्र अलग-अलग होता है, अलग-अलग प्रभावित होता है, अलग-अलग प्रतिक्रिया भी करता है। केबल और डीटीएच के इस दौर में दिन-रात विज्ञापनों से ही टीवी चैनल्स की कमाई का गन्दा धंधा समाज में अनैतिकता अश्लीलता को बढावा दे रहा है, इस बाड़ को रोक पाना असंभव लग रहा है। ऐसे में सभी तरह के अनसेंसर्ड कमर्शियल विज्ञापन दिन-रात प्रसारित होते रहते हैं।