रिव्यू- ‘रांडा रामफल’ की दिलचस्प दास्तां
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कुंवारा होना यानी भदेस भाषा में रांडा/रंडवा रह जाना, हमारे-आपके तथाकथित भारतीय समाज में अभिशाप माना जाता रहा है। बात हो हरियाणा, राजस्थान जैसे राज्यों की तो यह बात और गंभीर रूप धारण कर लेती है। पिछले दिनों स्टेज ओटीटी (Stage App) पर आई ‘रांडा रामफल’ (Randa Ramphal) की कहानी है ऐसे ही एक कुंवारे लड़के की। जो अब अधेड़ हो चला है।
रामफल के माँ-बाप अपनी बहू की शक्ल देखने से पहले ही दुनिया से चल बसे। फिर रामफल का भी मोह खत्म हो गया ब्याह से और जब फिर उसका मन हुआ तब तक उस पर रांडा होने का टैग लग चुका था। हरियाणा में कहते हैं किसी का एक बार टाइम से ब्याह हो गया तो ठीक नहीं तो टाइम निकलने के बाद ब्याह नहीं होता। फिर उस आदमी पर रांडा होने का टैग चस्पा हो जाता है। शरीफ और साफ़ मन के रामफल के पास बस अब एक ही ऐसी चीज बची है जो कहीं और नहीं, और वो है उसका दोस्त। क्या अब रामफल सारी उम्र यूँ कुंवारा ही रहेगा? या उसके भी दिलों के तार झनझनाने आएगी कोई? क्या कोई ऐसी लड़की होगी रामफल के जीवन में जो उसके सूने आंगन में अपने पायलों की सुमधुर धुन छेड़े?
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रामफल इतना शरीफ है कि उसने किसी लड़की से आज तक कोई सम्बन्ध भी नहीं बनाया। ऐसे में उसके दोस्त ने एक जगह भेजा और वहाँ पहुँचते ही लड़की होटल में मर गई। अब एक मुसीबत खत्म नहीं होती रामफल के जीवन में दूसरी पहले ही उसके सर आ पड़ती है। खैर क्या हुआ रांडा रामफल के इस नाटकीय जीवन का उसकी जानकारी आपको स्टेज ओटीटी से ही मिलेगी।
अव्वल तो हरियाणा में कायदे का सिनेमा बन नहीं रहा और अगर बन भी रहा है कुछ सार्थक तो वह आम दर्शक तक अपनी पहुँच बा-मुश्किल बना पा रहा है। फिर भी एक चीज अच्छी है यहाँ के सिनेकार लगे हुए हैं हर तरह से अपने सिनेमा को आम जनता तक पहुँचाने के लिए। पिछले दिनों स्टेज पर चुपके से आने वाली इस फिल्म की कहीं कोई ज्यादा चर्चा भी नहीं हुई। वजह साफ़ है कि अच्छे सिनेमा को देखना कौन चाहता है?
प्रवेश राजपूत और फ़िल्म के निर्देशक मनोज असोदिया की लिखी इस कहानी में दम तो भरपूर है किन्तु यह दम अगर थोड़ा और भरा जाता या इसकी पटकथा लिखते समय इसमें थोड़ी और कसावट की जाती तो यह उम्दा फेस्टिवल सिनेमा हो सकता था। प्रवेश राजपूत अपनी दिलचस्प और प्रेरक कहानियों के लिए जाने जाते हैं और उनकी लिखी कई कहानियों ने नेशनल अवार्ड तक हासिल किये हैं।
मनोज असोदिया का निर्देशन बेहतर है। उन्हें जरूरत है तो कुछ और अच्छे कलाकारों के साथ अच्छे बजट की। फिलहाल आप संतोष अवश्य कर सकते हैं उनके बनाये सिनेमा पर। रामफल कुरैशी, वी हाउस, बेनाम कहानी जैसे बनाये उनके सिनेमा की तो आप आम दर्शकों को जानकारी तक नहीं होगी।
स्टेज एप्प और अम्बर भटनागर निर्मित इस फ़िल्म को देखते हुए आपके चेहरे पर कई दफ़ा मुस्कान उतरती है तो कई दफ़ा रामफल के साथ-साथ अपने आस-पास के बिन ब्याहे लड़कों की दास्ताने तैर जाती हैं। क्या कुंवारा आदमी आदमी नहीं होता? क्यों आखिर उसकी यह समाज इज्जत उस नजर से नहीं करता? यह सवाल खुद से भी पूछियेगा कि आपके कुंवारे रह जाने में दोष क्याआपके इसी समाज का नहीं है? बीते कुछ वर्षों में हुई बेतहाशा कन्या भ्रूण हत्याओं ने आपके ही लड़कों को कुंवारा रहने को क्या मजबूर नहीं किया? यह फ़िल्म कायदे से आपको सोचने पर मजबूर तो करती है लेकिन आपके दिलों में इतनी नहीं बैठती की आप इसे देखने के बाद कई दिन तक विचारों में डूबें रह जाएँ।
सोनू सीलन हरियाणवी सिनेमा का यह कलाकार अपने अभिनय के दम पर हरियाणा का मनोज वाजपेयी बनता जा रहा है। हाल के समय में सोनू सीलन के बिना किसी हरियाणवी फ़िल्म की आप कल्पना तक नहीं कर सकते। सतीश कुमार, आरजू आहूजा, लवकुश कुंडू, संगीता देवी, दीपक सिंह आदि जैसे तमाम कलाकार मिलकर फ़िल्म के स्तर को ऊँचा उठाए रखने में कामयाब तो हुए हैं। लेकिन जब पटकथा में कुछ एक छेद हों तो भला कलाकार भी क्या करें?
गीत-संगीत, एडिटिंग, सिनेमैटोग्राफी, साउंड इत्यादि सभी विभागों में थोड़ा और रंदा मारा जाता तो यह फ़िल्म देश-विदेश के कई फ़िल्म समारोहों की शान बनते हुए नजर आती। कई जगहों पर किसी साहित्यिक नाटक सरीखी इस फ़िल्म को फिलहाल के लिए स्टेज ओटीटी पर देख आइये थोड़ा तो अपने दिलो-दिमाग को विचलित भी होने दीजिए ऐसे सिनेमा से अन्यथा आप जंक और फास्ट-फूड वाला सिनेमा तो देख ही रहे हैं।
अपनी रेटिंग- 3.5 स्टार