साहित्य

मीडिया की स्वतन्त्रता और जनतन्त्र

वर्तमान दौर टीवी और टीआरपी की दुनिया के लिए अंधी दौड़ के रूप में शामिल नजर आता। जहाँ एक ओर अभिव्यक्ति की आजादी पर पूर्णतया छोट हुआ करती थी वहीं आज हरेक इंसान सोच-समझकर बोलने लगा है। फिर इसी क्रम में मीडिया की स्वतन्त्रता और जनतन्त्र उसमें भागीदारी कहीं खो सी गई है। मीडिया की जब स्वतंत्रता खोने लगी तो आरम्भ में उसे इस बात का भान ना रहा लेकिन जब उन्हीं पर घोषित या अघोषित रूप से बैन लगने लगा तब यह बात कुछ लोगों के जेहन में अवश्य आई। फिर राजनीति की आड़ में पत्रकार समुदाय ही सबसे पहले निशाना बनाए जाते रहे हैं। पिछले दस सालों की राजनीति ने मीडिया के साथ-साथ कई सरकारी और निजी संस्थानों तक तालाबंदी कर देने की हदें पार की हैं।

हमने हमेशा से पढ़ा है कि लोकतंत्र की गाड़ी के तीन पहिए होते हैं- विधायिका, कार्यपालिका, न्याय पालिका। इसके बाद चौथा स्तम्भ आता है, जिसे मीडिया कहते हैं। लेकिन लोकतंत्र की गाडी को चलाने वाला गाड़ीवान बना- संविधान। संविधान की आत्मा बनी- न्याय भाव। भारत में इसी तरह जीवन के चार पुरुषार्थ भी बताये गए। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष। इनका संचालक बना धर्म। धर्म की आत्मा है मंगलभाव। लेकिन संविधान साधुमत होता है, जो लोकमत को अनुशासित रखता है। धर्म, नैतिक मूल्य होता है जो अर्थ और काम को नियंत्रित रखता है। जिसे हम साहित्य, कथा-दर्शन इत्यादि कहते हैं, उनका संबंध ‘साधुमत’ और ‘नैतिक मूल्य’ से जुड़ता है।

21वीं सदी सूचना तंत्र की है और 22 वीं सदी का दौर ए.आई का। सूचना के नवीन उपकरण सामाजिक आधिपत्य, सायबर साम्राज्यवाद एवं सामाजिक संरचनाओं तथा उत्तर आधुनिक सामाजिक क्रियाकलापों के वाहक हैं। 21वीं सदी की केंद्रीय धूरी ही जब जनसंचार है जो एक ऐसा कौशल तथा भौतिक उपक्रम है; जो सूचना को एकत्र करके उनका प्रसंस्करण, हस्तांतरण व सृजन करता है तथा पुरानी सूचनाओं को सुरक्षित रख नवीन सूचनाओं के पुनः उत्पादन का कार्य करता है। तब उसी में इतने हस्तक्षेप का बढ़ना रुचता नहीं। आधुनिक मीडिया ने बढ़ते वैश्विक बाजारों को देखते हुए विश्व स्तर पर अमेरिकीकरण की प्रक्रिया को प्रोत्साहित व प्रोन्नत किया है। 1999 के सियेटल प्रतिवाद की प्रौद्योगिकी व्याख्या से अलग अंतर्दृष्टि विकसित करें तो नवीन मीडिया संस्कृति का राजनीतिक-आर्थिक विश्लेषण आज अत्यावश्यक है। पूर्व उत्तराधिकारियों की तरह नवीन प्रौद्योगिकी का उद्भव तथा आदर्श, विरोधाभासी व संघर्ष युक्त है। भारत में सूचना क्रांति और संचार क्रांति का आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया से गहरा संबंध रहा है। आर्थिक उदारीकरण के परिणाम स्वरूप बहुराष्ट्रीय संचार एवं सूचना कम्पनियों को देश में अबाध व्यापार करने की छूट मिली और परिणाम आज सूचना तकनीक का प्रवेश आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए खतरे पैदा करने लगा। राष्ट्रीय हितों की चिंता किये बगैर मनमाने ढंग से सूचना तकनीकी रूपों को देश में, व्यवहार में लाया जा रहा है।

जनसंपर्क के ऐतिहासिक विकास का काल विभाजन करने पर हम निम्न प्रकार से उसे देख पाते हैं। जनसम्पर्क का प्रारम्भ आदिकाल से ही हो गया था जो आज भी निरंतर जारी है, केवल उसने अपने ढंग को बदला है। आधुनिक काल के जनसंपर्क में स्वतंत्रता से पूर्व का काल तथा इसके बाद का काल उत्तर स्वातंत्र्य काल निरन्तर प्रगति करता हुआ आ रहा है। आज़ादी के बाद के काल ने हमें मोबाइल, कम्प्यूटर, टी.वी., रेडियो, इंटरनेट इत्यादि सभी उपकरण एवं मीडियाई माध्यम से आधुनिक से उत्तर आधुनिक बनाया। उत्तर आधुनिकता को लेकर ही “कलम कैमरा और बलात्कार” लेख में वर्तिका नन्दा लिखती हैं- “तुरंत हंगामा करना और फिर भूल जाना मीडिया की फ़ितरत है। याद कीजिए 15 अक्टूबर 2003 का वह दिन जब न्यूज़ मीडिया के हाथ एक धमाकेदार खबर लगी थी। ख़बर थी – सिरीफोर्ट ऑडिटोरियम के पार स्विट्जरलैंड की एक राजनयिक का बलात्कार होना।”

वर्तिका नंदा के अन्य लेख ‘मुंबई काण्ड : जाग गया हिंदुस्तान’, ‘पकती खबर में अधकचरे सच’, ‘खुद की खबर पर खामोश मीडिया’। इत्यादि सभी भीतरी सच्चाइयाँ बयाँ करते नज़र आते हैं। मीडिया के आधुनिकरण की ओर लौटते कदमों को ध्यान में रखकर ही शायद धूमिल और अकबर इलाहाबादी ने यह सब कहा होगा-

“लोकतंत्र हमारे यहाँ
एक ऐसी धानी है।
जिसमें आधा तेल
आधा पानी है।”
(धूमिल)

“जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो।” (अकबर इलाहाबादी) और वहीं इसके दूसरी ओर लोकतंत्र का मख़ौल उड़ाते हुए ‘रघुवीर सहाय’ ने लिखा

“लोकतंत्र का अंतिम क्षण है!
कहकर आप हँसे!”

“जी हाँ हुजूर मैं ख़बर बेचता हूँ, किस्म-किस्म की ख़बर बेचता हूँ।” लेख में डॉ० लता शिरोडकर खबरों के बाजारीकरण से बाजारू बन रही भाषा पर चिंता व्यक्त करती हैं और कहती हैं आज की संचार क्रांति बाजारोन्मुख है। जहाँ ज्ञान, सूचना, जनता की अभिव्यक्त आदि बातें गौण हैं। इसी कड़ी में आगे सुधीर पचौरी अपनी किताब ‘मीडिया जनतंत्र और आतंकवाद’ के पहले ही अध्याय में कारगिल युद्ध का वर्णन करते हुए उसके प्रसारण के इलेक्ट्रानिक मीडिया को मुखरता से अभिव्यक्त करते हुए लिखते हैं-  “एक दैनिक एक्शन सीरियल की तरह आता है कारगिल युद्ध। अट्ठाईस साल बाद एक नायक, एक सचमुच का हीरो मिल रहा है हमें। बहुत आराम से हम उसे बनता और मरता देखते हैं। जो जाता है तिरंगों के कफ़न में लिपटकर आता है। इससे अधिक दारुण कुछ नहीं हो सकता। कि अठारह बीस साल के बच्चे लाशों में बदल जाते हैं। और कुछ किस्से बचे रह जाते हैं। जिन्हें हम फिर सीरियलों या फिल्मों में देखेंगे। हर तरफ़ की धोखाधड़ी के जीवन में अब भी ऐसे मासूम लोग बचे हैं। जो वाकई जान पर खेल जाते हैं’…. आखिर ऐसी नौबत आई क्यूँ?

जब सुधीर पचौरी के इस लेख को आप पढ़ते हैं तो वर्तमान समय में पत्रकारों की खो रही आवाज़ भी मद्धिम सी दिखाई पड़ती हैं। जहाँ पूरे देश में देखा जाए तो बमुश्किल आज 10-20 स्वतंत्र पत्रकार बचे हैं। वर्तमान समय वाक़ई टीवी की दुनिया के लिए अँधेरा बनकर सामने आ रहा है। एक ओर अभिव्यक्ति की आजादी और दूसरी तरफ उन्हीं पर बैन। वो भी किसी एक ही चैनल या व्यक्ति, समुदाय विशेष पर। हालिया दिनों में घट रही घटनाओं पर नज़र दौड़ाई जाए और उनके बारे में अथॉरिटी (सरकार) से आप पूछने जाएँ तो आपको जवाब में मिलेगा “बाबा जी का ठुल्लू।” राजनीति की आड़ में पत्रकार सबसे पहले निशाना बनाए जाते हैं। क्योंकि एक पत्रकार ही हमें न जाने कहाँ-कहाँ से खबरें लाकर दिखाता है, बताता है। उसी पर जब पाबंदियां लगने लगें तो आप समझ सकते हैं। हवा केवल दिल्ली की ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत की ख़राब बह रही है। जिसमें हुकूमत का डर सबसे ज़्यादा है। आधुनिक से उत्तर आधुनिक होते इस मीडिया युग में आज हजारों, लाखों की तादात में समाचार कई तरह से जनता के समक्ष दिन भर आते रहते हैं। जिसमें सबसे बड़ा हाथ मोबाईल का है। जहाँ एक क्लिक पर दुनिया तबाह हो जाने का खतरा तक है। आज हमें तय करना ही होगा किस ओर हैं हम और हमारी पॉलिटिक्स क्या है?

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