रिव्यू- बंद दरवाजों से उभरती ‘लकीरें’
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रुलाते हैं तो क्या हुआ बहलाते भी तो हम ही है।
चुभते भी है तो क्या हुआ सहलाते भी तो हम ही है।।
फ़िल्म के पहले ही सीन में आप यह शायरी सुनकर अपने मर्द होने का दंभभर सकते हैं। लेकिन सदियों से सताई जा रही स्त्री जाति की नजरों में आप ऐसा कहकर, सोचकर बलात्कारी मानसिकता से ज्यादा कुछ नहीं कहलाये जायेंगे। आशुतोष राणा, बिदिता बाग़, सहर्ष शुक्ला, राजेश जैस आदि अभिनीत यह फिल्म भी यही सब दिखाने, बताने आई है।
एक हिंदी के प्रख्यात प्रोफेसर और कवि हैं विवेक अग्निहोत्री उनकी ही पत्नी काव्या अग्निहोत्री ने पति पर शादी के एक साल बाद बलात्कार करने का आरोप लगाया है। केस की कार्यवाही में क्या वह प्रोफेसर बेदाग़ निकल जाएगा? या उसकी पत्नी को मिलेगा कुछ न्याय? या फिर शादी के बाद पति के द्वारा किया गया सहवास भी कहलायेगा उसका प्रेम करने का तरीका? क्या घरों की दीवारों के बंद दरवाजों से उभरेंगी लकीरें? क्या पति-पत्नी के दिलों के घाव रिसकर इस कोर्टरूम ड्रामा में मवाद बनकर बहेंगे? कई सारे सवाल यह फ़िल्म खत्म करती है।
खत्म ही नहीं बल्कि उन पर पूर्ण विराम भी लगाती है कि पति अपनी मर्जी से जब जी चाहे पत्नी को अपनी दो टांगों के बीच के खूंखार जानवर से उसकी अस्मिता का मर्दन कर तथाकथित मर्द बन सकता है। यह फ़िल्म आपको असली मर्द होने और असली औरत होने के मायने सिखाती है। यह फ़िल्म बताती है कि किस तरह बंद दरवाजों के पीछे बनी ये लकीरें रिश्तों में भी लकीर खींच देती है।
आशुतोष राणा उस वकील के रूप में नजर आते हैं जो, जिसे सूंघ ले वही फैसला बन जाता है। दुधारी सिंह के किरदार में वे सहज अभिनय करते नजर आते हैं। अपने चेहरे के भावों से वे हर सीन में अपने होने का अहसास बरकरार रखते हैं। वहीं बिदिता बाग़ भी एक वकील के रूप में सहज लगी हैं। फिर चाहे राजेश जैस हों, गौरव चोपड़ा, टिया बाजपाई, मुकेश भट्ट, सहर्ष शुक्ला, अदिति दीक्षित सभी का काम चेहरे के भावों से ही पूरा हो जाता है। कुछ एक सहयोगी कलाकार अवश्य कमजोर नजर आते हैं।
पूरी फ़िल्म में केवल एक ही गाना है, जो बेहद प्यारा लगता हैं। हालांकि साथ ही गानों का अभाव जरुर खलता है जिसके चलते पहले हाफ तक फ़िल्म काफी धीमे चलती है। दूसरे हाफ के शुरू होते ही कोर्टरूम में बयानों, गवाहियों से होने वाली गर्मी पहले हाफ की कमी को पूरा अवश्य करती है किन्तु इतना भी नहीं की आप आह और वाह कर उठें। यूँ भी हमारे देश में आये दिन शादी के बाद महिलाओं के साथ उनकी मर्जी के बिना या ‘उन दिनों’ में भी पुरुष के द्वारा सैक्स करना आम बात है। यह फ़िल्म इसी धारणा को तोड़ती है और एक स्त्री को कम से कम एक वस्तु ना समझा जाए इस बात की पैरवी करती है। पत्नी को ग्राहक कहने वाला फ़िल्म में प्रोफेसर एक किरदार भले ही है लेकिन आज भी इस देश की आज़ादी का अमृतमहोत्सव बीत जाने के बाद भी बहुतेरे लोग इसी मानसिकता से जी रहे हैं।
यह फ़िल्म अदालतों की आग में तप रहे रिश्तों को पिघलने की कोशिशों को दिखाती है। जिसके निर्देशन में और कहीं-कहीं अभिनय, वी. एफ़. एक्स, म्यूजिक आदि के लय, ताल और सुर बिगड़ते जरुर हैं लेकिन वे बेसुरे नहीं होते। यही वजह है कि मर्द और पुरुषत्व का मतलब समझाती यह फ़िल्म उस मानसिकता का विरोध करती है जिसमें मर्द खुद को बिस्तर पर बलशाली होना समझते हैं। और उनकी सोच को झिंझोड़ने की कोशिश करती है जो यह समझते हैं कि जिनके अंदर कामाग्नि का समुद्र हो, जिसकी पकड़ में औरत छटपटाए, चीखें, रोएं, पनाह मांगे वही इन बंद दरवाजों के पीछे ‘लकीरें’ खींच सकता है।
अपनी रेटिंग- 3 स्टार