रिव्यू- उड़ने को बेताब ‘पिंजरे की तितलियां’
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हरियाणा के निर्देशक, कलाकार ‘आशीष नेहरा’ ने एक ऐसी फिल्म बनाई है जिसमें बेतहाशा गालियां हैं, सैक्स के सीन हैं, कोठा ही पूरी फिल्म के केंद्र में है। फिर भी यह फिल्म दूसरी अश्लील फ़िल्मों की तरह नहीं बल्कि इसमें नजर आते हैं मंटो और नजर आती हैं उड़ने को बेताब ‘पिंजरे की तितलियां’। कई फिल्म समारोहों में दिखाई जा चुकी यह फिल्म अभी रिलीज का इंतजार कर रही है…
एक ऐसा अफसानानिगार जिस पर पड़ोसी मुल्क ने अश्लील होने के आरोप लगाए, देश निकाला देने तक की नौबत आन पड़ी, फतवे जारी हुए। लेकिन उनका मानना था कि अश्लीलता उनकी कहानियों और पात्रों में नहीं समाज में है जिसे वे केवल बयान कर रहे हैं। इधर मंटो सरीखी ‘पिंजरे की तितलियां’ भी वही अहसास दिलाती है। एक कोठे में कैद है कुछ लड़कियां और उनका रखवाला है ‘खब्बी’। जिसे वे बाप समान दर्जा देती है लेकिन उन्हें उस खब्बी को बाप कहने में भी शर्म आती है। एक लड़का है जो कहता है वो इनके भाइयों जैसा है तभी वहां लड़की का जवाब एक करारा तमाचा जड़ता है उस आदमी पर। लेकिन वह बेशर्म है कि टिका हुआ है घर में क्योंकि उसे भी उनका इस्तेमाल करना है अपना बिस्तर गर्म करने के लिए। इन लड़कियों में से एक कोठे पर बैठने को तैयार नहीं वह उड़ना चाहती है कोठे से बाहर की आज़ाद हवा में तैरना चाहती है वह। हवा की खुशबू महसूस करना चाहती है लेकिन जहां जात धर्म का कोई फर्क नहीं उस कोठे से वह बाहर कैसे निकलेगी?
शराबघर और रण्डी खाने ही तो बचाए हुए हैं इंसानियत को। ऐसी सोच रखने वाले इस फिल्म के पात्र कैसे जिन्हें अपना कहते हैं उन्हीं के साथ बिस्तर गर्म करेंगे? कहने को आम नजर आप फिल्म में यही देखते हैं। लेकिन आप अपनी नजरों पर से चश्मा हटाकर देखें तो मालूम होगा कि कैसे हमारे अपने ही देश में आज भी ऐसे हालातों में लड़कियां रह रही हैं।
आपको मालूम होगा की भले कोठे पर हर कोई ना जाता हो पर फिर भी बहुत से कोठे हमारे आस पास ही बने होते हैं जिनमें रिश्तों को इस कदर कुचला जाता है की वे तितलियां कभी वहां से आजाद नहीं हो पाती। वे अपने ही घरों में अपनों के पैरों तले तो रौंदी ही जाती हैं साथ ही उन्हें भी पालती है बेचकर अपना शरीर।
देशभर के कई फिल्म समारोहों में सराही गई और पुरुस्कारों से नवाजी गई इस फिल्म को देखकर आपके पास कहने कुछ नहीं बचता। चंडीगढ़ इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, नॉर्थ ईस्ट इंडिया इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, अयोध्या फिल्म फेस्टिवल, न्यूजर्सी इंडियन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, जयपुर इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, बॉलीवुड इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, हरियाणा इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल, देहरादून इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आदि में दिखाई, सराही गई यह फिल्म आम दर्शकों के लायक नहीं। यह इतनी रूखी है की हर बार मनोरंजन की चाह से सिनेमाघरों में जाने वाले लोग इसे नहीं देख पाएंगे।
अपने कहन, कथन और दिखावे से यह फिल्म उन महिलाओं की जिंदगी को करीब से झांकने का मौका देती है जो किसी न किसी वजह से कोठों में कुचल दी गईं या जिनके अपने ही उन्हें अपने पेट की भूख को मिटाने के लिए वहशी लोगों को सौंपते रहे। यह सच है कि जब तक इस देश के लोग औरतों को औरत ना समझकर घोड़ी समझते रहेंगे तब तक इस देश की औरतों को ऐसे ही पिंजरों में कैद रखा जाता रहेगा। फिर वे भले ही उन्हें यह दुनिया पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका किसी भी नजर से देखती हो। यह फिल्म हर एक ऐसी सोच वाले मर्द को भी अपनी सोच बदलने पर जोर देती है।
यह फिल्म कठिन परिस्थितियों में उलझी तीन लड़कियों के बहाने से बाहर निकलने का रास्ता खोजने और आज़ादी पाने की बात करती है। ये तीन रास्ते असल में जीवन के तीन विकल्प हैं। एक जिसे हम अपनाते हैं, दूसरा जिसे हम नकारते हैं और तीसरा वह जो कहीं न कहीं सही और गलत के बीच उलझा रहता है। इन तीन विकल्पों के सहारे यह फिल्म स्वयं की खोज करने की भी बात करती है।
रूचिता देओल, गीता सरोहा, सौम्या, मोहन कांत, रोनित अग्रवाल, युवांग, दिग्विजय ओहल्यान आदि तमाम कलाकार इस तरह की कहानी के साथ पूरा न्याय करते नजर आते हैं। सिनेमैटोग्राफर आनंद उत्सव का डीओपी आंखों को सुकून देता है। एडिटर मेघना अश्चित्र श्रीवास्तव की एडिटिंग में दम नजर आता है तो वहीं साउंड के मामले में अनूप मुखर्जी, दिलीप अहिरवार, बिस्वदीप बनर्जी और बैकग्राउंड देने वाले हिमांशु डी, कास्ट्यूम देने वाली तरन बल, गीत देने वाले वरुणेंद्र त्रिवेदी, नितेश गुप्ता के म्यूजिक के साथ अच्छा तालमेल बैठाते नजर आते हैं। कहानी लिखने से लेकर उसे निर्देशित करने के मामले में आशीष नेहरा ने जो इस तरह की रूखी कहानी के साथ जोखिम उठाया है वह जरूर उन्हें भविष्य में अच्छे मकाम पर लेकर जाएगा।
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