हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति के समन्वयक- लोक देवता बाबा रामदेव
राजस्थान एवं गुजरात दोनों राज्यों में हिन्दू-मुस्लिम समुदाय में सामान रूप से मान्यता रखने वाले लोक देवता बाबा रामदेव की आज जयंती है। गंगानगर वाला खोजबीन कर लाया है आज यह लेख पढ़िए…. गंगानगर वाला कि ओर से आप सभी को बाबा रामदेव जयंती की मंगलकामनाएं
राजस्थान और गुजरात में रामदेवजी की एक लोक देवता के रूप में पूजा जाता है। लोक देवता का संबंध किसी जाति या कुल विशेष से नहीं अपितु सामान्य जन-जीवन से होता है। ‘पीर” शब्द मुस्लिम परम्परा का है जिसका अर्थ है सिद्ध-महात्मा। रामदेव जी की यह विशिष्टता है कि उन्हें हिन्दू-मुस्लमान दोनों ने पूजा। हिन्दूओं ने उन्हें कृष्ण का अवतार मानकर देव का दर्जा देते हैं। जबकि मुस्लमानों ने उन्हें रामशाह पीर कह कर सिद्ध महात्मा का दर्जा दिया।’ रामदेव जी की गणना राजस्थान के पाँच प्रसिद्ध पीरों में होती है। रामदेवजी की समाधि का हिन्दू और इस्लाम की धार्मिक पद्धतियों के मिले-जुले कार्यक्रमों के अनुसार पूजन किया जाता है। जिस प्रकार मुस्लिम समाधियों का लीबाण से अग्नि प्रज्जलित कर पूजन किया जाता है और किसी प्रकार की आरती नहीं बोली जाती, उसी प्रकार रामदेव जी के पूजन के समय धूप प्रज्जलित कर पूजन किया जाता है। हिन्दू पद्धति के अनुसार ढोल नगाड़े, घडावल, शंख, झालर, घंटी इत्यादि पूजा के समय बजाये जाते हैं। यह दोनों संस्कृतियों की एकता का मिला-जुला उदाहरण है।
राजस्थान और गुजरात में रामदेवजी को एक लोक देवता के रूप में पूजा जाता है। लोक-देवता का संबंध किसी जाति या कुल विशेष से नहीं अपितु सामान्य जन-जीवन से होता है। ‘लोक’ शब्द आमजन व ग्राम्य-जीवन का द्योतक है। रामदेव जी की मान्यता भी ग्रामीण जीवन में ही अधिक है। वहाँ हर जाति के घरों में रामदेवजी की पूजा होती है। वर्तमान में ग्रामीण व शहरी दोनों ही वर्गों में बाबा रामदेव जी की मान्यता है ऐसी मान्यता किसी अन्य लोकदेवता की नहीं है।
राजस्थान में रामदेव जी तंवर की गणना पाँच प्रसिद्ध पीरों में की जाती है। “पीर” शब्द मुस्लिम परम्परा का है जिसका अर्थ है सिद्ध-महात्मा। रामदेव जी की यह विशिष्टता है कि उन्हें हिन्दू-मुस्लमान दोनों ने पूजा। हिन्दूओं ने उन्हें कृष्ण का अवतार मानकर देव का दर्जा देते हैं। जबकि मुस्लमानों ने उन्हें रामशाह पीर कह कर सिद्ध महात्मा का दर्जा दिया।’ पाबू हड़बू रामदे, मांगलिया मेहा। पांचो पीर पधार जो, गोगा जी जेहा ।। रामदेव जी यहाँ लोक देवता के रूप में पूजे जाते हैं और उनकी यशो-गाथा विस्तार के साथ गाई जाती है।’
रामदेव जी को पीर कहने के सम्बन्ध में कहा जाता है कि रामदेव जी का यश जब मक्का के मौलवियों ने सुना तो उन्होंने अपने पीरों के सम्मुख रामदेव जी की प्रशंसा की। रामदेव जी की परीक्षा लेने के लिए मक्का से 5 पीर मोहम्मद साहब, हजरत उम्रशा, अब्दुल सद्दीक, उलेमा, गनि इस्माइल, शबर शेख यहाँ आये। रामदेव जी जंगल में घोड़े चरा रहे थे वहाँ पर पाँचों पीर पंहुच गये। रामदेवजी ने उनका स्वागत किया और उनको अपने साथ लेकर वे कुछ दूरी पर स्थित किसी वृक्ष की छाया में बैठने के लिए चले, उस समय पीरों ने अपना चमत्कार रामदेव जी को दिखाया। वे पीर छाया के लिए किसी वृक्ष तक नहीं गये और धूप में ही बैठ गये। तथा रामदेव जी को भी उन्होंने अपने सम्मुख बैठा लिया। तत्पश्चात् उन पाँचों पीरों ने अपनी दातुनों को चीर कर अपने पास ही एक पंक्ति में गाड़ दिया और आश्चर्य की बात कि कुछ क्षणों के पश्चात् वे पाँचों दातुन लहलहाते हुए पीपल के वृक्षों के रूप में परिणित हो गये।”
रामदेवनी ने उन पाँचों का चमत्कार देखा और उनके उद्देश्य भी समझ गये। भोजन का समय होने पर पाँचों पीरों को लेकर जब रामदेव जी अपने घर आये और भोजन परोसने लगे तो उन पीरों ने यह बहाना बनाया कि वे अपनी ‘शिपियां’ (खाने के बर्तन विशेष) मक्का में ही भूल आये हैं और उनका यह प्रण है कि वे अपनी शीपियों में अलावा किसी बर्तन में खाना नहीं खाते हैं। रामदेवजी ने उसी समय अपना अलौकिक चमत्कार” दिखाया जिससे वे शीपियां जो कि मक्का में किसी तालाबन्द कमरे में रखी हुई थी, तुरन्त वहाँ आ गई तथा जिस-जिस पीर की जो-जो शीपी थी वही उसी पीर के आगे रखी हुई मिली। इस चमत्कार से पीर इतने प्रभावित हुए कि ‘पीरों के पीर’ के रूप में रामदेवजी को स्वीकार कर उनके यश का गुणगान करने लगे।
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लोक-काव्य की शीपी की जगह ‘सराजाम और भोजनों के स्थान पर ‘रंग-कसूम्बा’ और भांग-धतूरा पीने का उल्लेख मिलता है। इसी घटना के फलस्वरूप मुस्लिम धर्मावलम्बी पीर के रूप में इनकी पूजा करने लगे तथा हिन्दूओं ने इन्हें देव मानकर इनकी वन्दना की। हिन्दू व मुस्लिम दोनों रामदेव जी को रामसापीर के नाम से पुकारते हैं। कहते हैं कि पीर वापिस मक्का नहीं गये इन्होंने भारत में रहकर ही रामसापीर का प्रचार किया, इनमें से तीन की समाधियां अजमेर में है, अजमेर ही मुस्लिम बादशाहों के धर्म गुरुओं का स्थान रहा है जहाँ उस समय रामदेव जी के प्रचार का विशेष महत्त्व था।
राज्य लिप्सा, विस्तारवादी नीति, धर्मान्धता और प्रतिशोध के प्रखर भावना, अविश्वास तथा आशंका आदि कारणों से मुसलमानों और हिन्दुओं के युद्ध रामदेव जी के लगभग दो शताब्दी पूर्व से चले आ रहे थे, जिनमें रामदेव जी के पूर्वजों की सात पीढ़ियां संघर्षरत रहीं। समर्थ होते हुए भी रामदेव जी ने प्रतिशोध की भावना का त्याग करके प्रेम और उदारता की पवित्र भावना से हिन्दू मुस्लिम युद्ध का अंत किया। जिससे आक्रोश, आशंका और प्रतिशोध जैसी दुर्भावनाओं के स्थान पर प्रेम, विश्वास, क्षमा और सौहार्द जैसी पवित्र भावनाएं उत्पन्न हुई। इस प्रकार हिन्दू-मुस्लिम एकता स्थापित हुई।
‘बाबा रामदेव सम्बन्धी लोक साहित्य की भाषा मारवाड़ी (पश्चिमी राजस्थानी) है। इसमें क्लिष्टता नहीं है, मरु-प्रान्तीय जनजीवन की बोलचाल की भाषा का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं पर संस्कृत और उर्दू आदि भाषाओं के शब्द भी सहज रूप में प्रयुक्त हुए हैं। जो हिन्दू-मुस्लिम समन्वित संस्कृति को प्रतिबिम्बित करते हैं।
“पीर आया पावणां ज्यांरी घणी मेमा कीजै,
कुरबाण हित कर जोड़ हर रा पांव धोय पायल लीजै ।।”
“पीरजी दूरे देशां रा थारे आवे जातरी, दरगा’ देग चढ़ावै आय ।।
कळश थाप कदम खड़ा, गोखां बिराजौ आय ।।
इस वाणी में बिजोजी साणी ने रामदेव जी के मन्दिर व समाधि को दरगाह व बाबा रामदेव जी को पीर बताया है।
पांच पीपली है पांचो ही पीर,”
बाबा रामदेवजी सम्बन्धी साहित्य में भी पीरों की संख्या पाँच बताई गई है। यहाँ पर हरबू, पाबू, रामदे, मेहा, और गोगा इन पाँच पीरों का प्रसंग नहीं है, अपितु मक्का से रामदेव जी के पास आने वाले पीरों का संकेत है एवं अनके द्वारा लगाई गई पाँच पीपलियों का उल्लेख है।
‘अला तुम बड़े वीर रुंख, हम तेरी डाललियां ।
तुम्हारे पास विलूंबीया ज्यू, जल बिच माछलियां ।।”
अर्थात् हे अल्ला! (बाबा रामदेव जी) तुम बड़े वृक्ष के रूप में खड़े हो और हम तुम्हारी टहनियां हैं। हम तुमसे इस तरह लिपटे हुए हैं जैसे पानी से मछलियां लिपटी रहती हैं।
रामदेव जी पर रचित लोक साहित्य हिन्दू-मुस्लिम एकता की प्रेरणा देता है
“भाणियां पुस्तक बांचलौ, पढ़लौ वेद पुराण। सांई म्हारौ लेखो मांगसी, हिन्दू मुसलमान।”
बाबा रामदेव जी में देवत्त्व और पीरत्त्व का अनुपम समन्वय हुआ है। उन्हें देवत्त्व और पीरत्त्व दोनों रूपों में पूजा गया है। फलस्वरूप उनसे सम्बन्धित साहित्य में हिन्दू-मुसलमान दोनों संस्कृतियों का सुन्दर समन्वय हुआ है।
भगत कहै से भेला भेला, चुरै चक्र चल अचला। परत अनांत ग्रहै कोपला, अलष धणी जाण साहब अला ।।”
अर्थात् भक्त कहते हैं कि तुम हमें अपने आप में मिला लो (हमारा मोक्ष कर दो) और हमारा आवागमन (जन्म-मरण) मिटा दो। परन्तु अनांत ग्रहै कोपला (अस्पष्ट)। इसी स्वामी को अल्लाह समझो, यही स्वामी निर्गुण निराकार व अगोचर ईश्वर है।
कवि अचल ने अपने द्वारा रचित पश्चिमाधिपतिधीश छंद में बाबा रामदेव जी साम्प्रदायिक सौहार्द की एक मिसाल बनकर उभरते हैं। उनके द्वारा रचित प्रमुख छंद निम्न हैं :-
तू साहिब तू सिरघणी पछिम नूं पतिसाह’ अजरा अमर अभंग भड़, अकल अलख अनाह ।।”
हे पश्चिम के बादशाह (रामदेवजी) तू ही मेरा शिरोधार्य स्वामी है। तू अजर-अमर है। तुम अजय वीर हो। तुम बुद्धि गम्य नहीं हो, इन्द्रियातीत हो।
साहिब कोडि तेतीस सुर, इलापति अगेवाण । साहां सेषा षानवां, मियां मालिकां माण ।।”
हे स्वामी, तुम तैतीस करोड़ देवी-देवताओं और समस्त भू-पतियों के अगुवा हो। तुम सम्राटों, मुस्लिम धर्माचार्यों, प्रतिष्ठित पठानों और सम्मानित स्वामियों द्वारा सम्मानित हो।
षोजा रोजा तब घुलइ, दरसण दीठइ स्वामि । गोसांई गोपाल तू, बरउ तूं षुदाई।
रूडा परि तैं राषिया, प्रजा रा निज पाई।”
माननीय मुसलमानों के रोजे तभी खुलते हैं, जब तुम्हारे दर्शन हो जाते हैं। तुम ही गोस्वामी हो, और तुम ही श्रीकृष्ण हो, तुम निश्चित रूप से खुदा हो। तुमने राजा, प्रजा सभी को भलीभाँति अपने चरणों में रखा है, अर्थात् तुम ही उनके रक्षक व पालनकर्ता हो।
तिथि तुरकांणइ तूं धणी, हिंदुवाणइ हमीर। कुलवटि प्रभुनी कुण लहइ, पुरष पुराणा पीर ।।”
हे स्वामी! तुम मुसलमानों के चन्द्र और हिन्दुओं के सूर्य हो। तुम्हारी कुल-परम्परा की जानकारी कौन प्राप्त कर सकता है, तुम तो अति प्राचीन पुरुष और पीर हो।
तिथि तुरकांणई हिंदुवा, दुतिया धणी दिवाण। दरसण प्रभु दीठा सभा, घाए घुरई नीसांण।।”
तुम हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों के स्वामी हो। द्वितिया तिथि को चन्द्रोदय के सुअवसर पर सभी ने प्रभु तुम्हारे दर्शन किये और नगाड़े बनजे लगे।
निवाज गुदारण महिपतिसाह, दुष दाळिद्र भंजण गंजण दाह। षिजमति सारइ षोजाषांन, रंगि राजा राज करउ रहमाण ।।”
सम्राटों पर कृपा करने वाले, दुःख दरिद्रता को दूर भगाने वाले, चिन्ता रूपी ज्वाला का समन करने वाले। मुसलमानों के पूज्य जन तुम्हारी सेवा में उपस्थिति हैं। हे दीन दयालु भगवान् तुम्हारा साम्राज्य आनन्ददायी है। कवि चन्द द्वारा रचित “धणी छंद” में कवि बाबा, रामदेव जी की आराधना करने वाले सभी जातियों, सभी वर्गों, सभी धर्मों में पाये जाते हैं। जो बाबा रामदेव जी के साम्प्रदायिक समन्वय को प्रदर्शित करता है।
कवि चन्द अपनी इस रचना के अन्य छंद में बाबा रामदेव जी को पीरों का पीर व देवों का देव कहा। जो रामदेवजी का सभी वर्गों व धर्मों में स्वीकार्यता को दर्शाता है। जो नाथां ही नाथ सिद्धां ही सिद्धां, जो पीरां ही पीर। पीर पीरां पातसाह, मेर रा महमंत । पचास कोटि निंवे प्रथवी, निंवाया राजंद।” रामापीर, पीरों के बादशाह है, पर्वतों में श्रेष्ठ सुमेरू है। पृथ्वी के पचाय करोड़ लोक रामदेव जी को प्रणाम करते हैं, उनके राजेन्द्र इनके सम्मुख झुकते हैं। मानोजी मेघवाल ने अपनी बांणी में मक्का से आये पाँच पीरों को दिये गये परचे का उल्लेख करते हुए रामदेव जी की साम्प्रदायिक सौहार्द की नीति का बताया है।
पांच पींपळी रे पांचों ही पीर। चौपड़ खेले बाई सुगणा रो बीर।।” रामदेवरा से 10 किलोमीटर दूर पंच पीपली नामक स्थान है। यह माना जाता है कि रामदेवजी ने मक्का से आये पाँच पीरों को इसी स्थान पर परचा दिया है। यहाँ एक समाधि बनी हुई है जिसके बारे में कहा जाता है कि मक्का से आये पाँच पीरों में से एक पीर यही रह गये थे, उन्हीं की समाधि है। बाबा रामदेवजी की समाधि रामदेवरा में जहाँ रामदेव ने समाधि ग्रहण की थी वहाँ पर रामदेवजी की मजार बनी है। यहाँ पर एक ही दिव्य ज्योति प्रज्जवलित है। यह रामदेवजी की अमर आत्मा का प्रतीक है। इसमें रामदेवजी के भक्तों की आस्था है और इनका दर्शन करने लाखों यात्री वहाँ पहुंचते हैं।
रामदेव जी की समाधि पीले संगमरमर की उत्तर-दक्षिण की तरफ बनी है। यह संगमरमर अमरकोट (पाकिस्तान) से लाया गया है। इस पर हमेशा चादर चढ़ी होती है तथा ऊपर चांदी का छत्र लगा होता है। समाधि के एक ओर चांदी का मुखारबिन्द तथा दो आँखें लगी रहती है। भादव माह पक्ष की दूज को समाधि एक ओर सोने के मुकुट धारण करवाया यह एक विशेष दर्शनीय अनुष्ठान होता है क्योंकि यह मुकुट इसी 2/3 करवाया जाता है और कुछ निश्चित समय के बाद सिव्ता (उतार) दिया जाता है। समाधि के ऊपर उर्दू भाषा में कुछ हर्फ (वाक्य) उत्कीर्ण हैं। जिनका तात्पर्य है “हे ईश्वर (अल्लाह), तू सर्वशक्तिमान है।” समाधि की आरती, नगाड़ों और घण्टियों की ध्वनि के बीच शान्त रहकर की जाती है, आरती के समय पुजारी या अन्य लोग प्रार्थना या मन्त्र का उच्चारण नहीं करते हैं। सभी के द्वारा मूक रहा जाता है। मंदिर में समाधि की आरती पाँच समय होती है। लोग इसका सम्बन्ध पाँच बार पढ़ी जाने वाली नमाज से भी करते हैं। प्रातःकाल दो बार तथा सांयकाल चार बजे, सवा छः बजे और रात्रि आठ बजकर पचपन मिनिट पर ये आरतियाँ होती हैं।
रामदेवजी की समाधि का हिन्दू और इस्लाम की धार्मिक पद्धतियों के मिले-जुले कार्यक्रमों के अनुसार पूजन किया जाता है। जिस प्रकार मुस्लिम समाधियों का लौबाण से अग्नि प्रज्जलित कर पूजन किया जाता है और किसी प्रकार की आरती नहीं बोली जाती, उसी प्रकार रामदेव जी के पूजन के समय धूप प्रज्जलित कर पूजन किया जाता है। हिन्दू-पद्धति के अनुसार ढोल-नगाड़े, घड़ावल, शंख, झालर, घंटी इत्यादि पूजा के समय बजाये जाते हैं। यह दोनों संस्कृतियों की एकता का मिला-जुला उदाहरण है।
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बाबा रामदेवजी के विचार जातिवाद अथवा सम्प्रदायवाद के प्रतिकूल है। बाबा रामदेवजी ने बार-बार राम-रहीम और कृष्ण-करीम की एकता पर बल दिया है और हिन्दू तथा मुसलमान दोनों को भाई जैसा बर्ताव करने का उपदेश दिया है। तत्कालीन समय में मुसलमान शासक हिन्दू-सभ्यता और संस्कृति को नष्ट करने को तुले हुए थे। इस समय संत रामदेव ने हिन्दू-मुसलमानों में सद्भावना की स्थापना की। उस समय सूफी संत, हिन्दुओं को इस्लाम धर्म में आने का आमंत्रण दे रहे थे। इस समय रामदेव जी ने अछूतों को समानता का अधिकार दिलाने और धर्म परिवर्तन रोकने का प्रयास किया। रामदेव जी ने अपने जीवनकाल में हिन्दू-मुस्लिम सद्भावना के भाव को स्थापित करने का प्रयास किया था क्योंकि उनके अनुसार सभी मनुष्यों में एक ही आत्मा का वास है और सभी परमपिता परमात्मा की संतान हैं एवं सभी समान है। बाबा रामदेव जी ने विभिन्न विषयों से ज्ञान से संबंधित ज्ञान के गम्भीर चिन्तन को सरल रूप से वाणियों द्वारा व्यक्त किया है। ये चौबीस वाणियां है जिन्हें चौबीस प्रमाण भी कहा जाता है जिनमें रामदेव जी ने अपने उपदेश दिये।
संदर्भ ग्रंथ-
1. मोहता डॉ. श्रीलाल आस्नकाईज, मरु सांस्कृतिक कोश, मरू परम्परा प्रकाशन बीकानेर, 2005, पृष्ठ संख्या 272
2. मरू भारती, पृष्ठ संख्या 53, 1958 अप्रैल अंक
3. मरू भारती, वर्ष 5, अंक 3, अक्टूबर 1957, पृष्ठ संख्या 17
4 यह स्थान पंच-पीपली के नाम से प्रसिद्ध है जो रूणेचा से दक्षिण की ओर 10 किमी की दूरी पर स्थित है। यहाँ रामदेवजी का छोटा मन्दिर विद्यमान है। मैना सुण मुलतान मके रा, पीर पधारिया मिलवा ताई।
5 बैल पातीये परचो मांगियों, सराजाम साथे हैं नाहीं।। रंग कसूबां म्हारा कायमा, भांग धतूरा है माहीं। भुजा पसार पलक में लाया, करामात है कर मांही।।
6. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 411. वाणी संख्या 87, लिखमों जी माली द्वारा रचित
7. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 29
. यहीं दरगाह शब्द रामदेवजी के मंदिर के लिए प्रयुक्त किया गया है।
8. हरिराम मेघवाल से साक्षात्कार से प्राप्त यह हरजी भाटी द्वारा रचित वाणी का अंग है।
9. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 182
10. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 334, वाणी संख्या 51
11. हरिराम मेघवाल से साक्षात्कार से प्राप्त यह हरजी भाटी द्वारा रचित हिन्दू मुस्लिम समन्वय पर प्रचलित दोहा
12. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 463, बुदर रचित पश्चिमाधीश रो छन्द
13. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 462
14. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 479
15. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 481
16. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 482
17. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 480
18. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 480
19. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 481
20. हरिराम मेघवाल से साक्षात्कार से प्राप्त यह हरजी भाटी द्वारा रचित धणी छनद संख्या 12
21. हरिराम मेघवाल से साक्षात्कार से प्राप्त यह हरजी भाटी द्वारा रचित धणी छनद संख्या 3
22. विश्नोई डॉ. सोनाराम, बाबा रामदेव इतिहास एवं साहित्य, पृष्ठ संख्या 433, मानोजी मेघवाल द्वारा रचित वाणी से
23. यह जोधपुर शहर में स्थित है। रामदेवरा जाने से पूर्व जातरू यहाँ रामदेव जी के दर्शन करके जाते हैं।
24. यह बालोतरा कस्बे के पास बाड़मेर जिले में स्थित है।
25. यह पाली जिले में स्थित है। यहाँ रामदेवजी का भव्य मंदिर है।
नोट- उक्त लेख बलवीर चौधरी द्वारा लिखा गया है जो पूर्व में इतिहास की पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।