रिव्यू- ‘एनिमल’ पास, फेल और फर्स्ट
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दिसम्बर महीने की शुरुआत में बॉलीवुड में बड़े बजट की दो फ़िल्में आई हैं। ‘सैम बहादुर’ और ‘एनिमल’ दूसरी फिल्म एनिमल से कहा जा रहा है कि बॉबी देओल का कमबैक है। तो कैसा है कमबैक और कैसी है ‘एनिमल’ आज बात करेंगे इसी पर कि ‘एनिमल’ पास, फेल और फर्स्ट में से क्या परिणाम आपके लिए लेकर आई है।
फ़र्ज कीजिए आप बहनों के भाई हैं और आपकी बहनों को कोई गलत निगाह से देखे या उन्हें कोई तंग करे तो आप क्या करेंगे? लाजमी है सामने वाले के खून के प्यासे हो जाएँ! वहीं फ़र्ज कीजिए आप शादी शुदा बहन के शादी शुदा भाई हैं और दूसरों की बहनों के साथ आप वैसा ही कर रहे हैं जैसा आपने पहले फ़र्ज किया। दोनों बातों में जमीन आसमान का अंतर है ना?
अब एक और फ़र्ज कीजिए आपके पापा देश के सबसे बड़े बिजनैसमैन हैं और अपने बच्चों के लिए उनके पास जरा भी वक्त नहीं। लेकिन आप निकले एकदम अपने पापा के लिए जान देने वाले। जिस बच्चे को पापा का प्यार नहीं मिल पा रहा वही बच्चा यानी आप अपने पापा को जरा भी चोट लगने पर पूरी दुनिया जला देने पर उतारू हैं तिस पर भी आपके पापा आपको क्रिमिनल कहे तो आपकी बला से। आखिर पापा को पापा ठहरे! नहीं!
अब जरा याद करें आखरी बार कब आपने बड़ी स्क्रीन पर इतना खून खराबा कब देखा था? ऐसी कहानियाँ तो हमारी हिंदी फिल्म वालों ने कई दफा दिखाई सुनाई हैं कि एक अमीर बाप का बिगडैल लड़का है, लड़कियों से अय्याशी करता हैं। लेकिन यह अपने तरह की अलग फिल्म इसलिए भी है कि उस अमीर बाप का लड़का परिवार की तरफ आँख उठाने वालों के खून का प्यासा है जिसमें कहीं कोई क़ानून नहीं है। जहाँ कोई पुलिस नहीं है। जहाँ कोई अदालत नहीं।
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मानों जैसे यही सबकुछ है और देश-दुनिया में जहाँ चाहे खून कर दे रहा है और आपको इतने खून खराबे को देखते हुए जरा भी गलत नहीं लगता। इसकी वजह यह है इस फिल्म की भव्यता के साथ दमदार बैकग्राउंड स्कोर और एक्शन के साथ अपनी ही काल्पनिक दुनिया में आपको ले जाने का माद्दा। जिसमें संवाद कोई ज्यादा ख़ास नहीं लेकिन साथ ही हर फिल्म के दो भाग होते हैं लेकिन इसके कई हिस्से किये जा सकते हैं। करीब साढ़े तीन घंटे लम्बी ‘एनिमल’ कई मोर्चों पर पास तो कई मोर्चों पर फेल होती है। फिर अपने अंत तक आते-आते यह फर्स्ट भी आती है।
ठीक जैसे आप कई सारी परीक्षाएं स्कूल में देते हैं तो सभी में अलग-अलग ग्रेड लेकर आते हैं। रिश्तों के मामलों में उयः फिल्म सिखाती है कि ‘‘रिश्ता बनाना मतलब मिट्टी से मिट्टी पर मिट्टी लिखना और रिश्ता निभाना मतलब पानी पर पानी से पानी लिखना… चलो, रिश्ता निभाते हैं।’’ इसके साथ ही यह एक रिश्ता दर्शकों के साथ उस खूनी खेल का भी निभाती है जिसे देखने के बाद हो सकता है इस देश-दुनिया में क्राइम करने वाले और ज्यादा उत्सुक हो उठे।
अपनी बहनों को छेड़ने वालों को आप मारिये आपका फ़र्ज हो सकता है लेकिन फिर वही व्यवहार दूसरों की बहनों के प्रति भी होना चाहिए इस मामले में यह फिल्म फेल होती है। आप चाहे कितने ही अमीर पापा के बेटे हों लेकिन गलत राह पर नहीं चल रहे यह फिल्म सिखाते हुए पास होती है। लेकिन फिल्म को तर्कों के हिसाब से देखने बैठे तो फिल्म में होने वाले हमलों के पीछे की वजह बहुत मज़बूत नहीं होना भी इसे कई मोर्चों पर फेल करता है।
एक सरल, सीधी कहानी को विस्तार के साथ और बिना तर्कों के साथ मनोरंजन के कई मसाले मिलाते हुए इसका आवरण असाधारण बना देना ही इस फिल्म के अच्छे बिजनेस की वजह भी बन सकता है। निर्देशक ‘संदीप रेड्डी वंगा’ ने इस फिल्म का जो विस्तार किया है वह कई जगह खटकता है। लेकिन आपकी आँखें उस भव्यता के लिबास में इस कदर खो जाती हैं कि आप बिना दिमाग लगाए फिल्म देख तो लेते हैं फिर हॉल से बाहर आकर इसकी कमियों पर बतियाना शुरू करते हैं। यही इसकी खासियत भी है कि फिल्म आपको कुछ सोचने नहीं देती बस अपने साथ लिए चलती है।
फिल्म एक बार फिर से फेल होती है जब देश के सबसे अमीर आदमी पर हमला होता है और उसका बेटा अपने निजी सिक्योरिटी गार्डों को ‘सिक्योरिटी गार्ड नहीं ‘भाई हैं मेरे’ कहता है तो वहीं दूसरी ओर वही अपने ही एक भाई की खून का प्यासा है। अपनी ही बहन के पति का हत्यारा है। ऐसी काल्पनिक कहानियों के अपने तय शुदा नियम, कायदे, क़ानून होते हैं कि आप उनमें दिखाई जा रही हिंसा, खून को भी आसानी से झेल सकें। सार्थक सिनेमा देखने वालों के लिए ऐसी फ़िल्में नहीं बनाई जाती लेकिन हाँ आप ऐसी फिल्मों को देखकर क्राइम करना, एनिमल बनना चाहते हैं तो यह फिर आपके लिए है। फिल्म की एडवांस बुकिंग से भी आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आपमें कितनी शिद्दत है एनिमल बनने की।
फिल्म हर तरह से आपको हजम हो भी सकती है तो कुछ को हर तरह से बेहजमी भी करवा सकती है। बिना तर्कों वाली इस फिल्म को देखकर हिन्दू धर्म वाले चाहें तो आपत्ति जता सकते हैं ठीक वैसे जैसे मुस्लिम या सिक्ख और वामपंथी हिटलर सोच के। खून, नशा, हत्याएँ, औरतों पर जुल्म ऐसी ही फिल्मों को देखकर बढ़ते हैं। अब फैसला आपका है कि आपको ‘एनिमल’ बनने की प्रकिया में पास, फेल और फर्स्ट में से कौन सा स्थान अपने लिए चुनना है।
बाकी तो ‘कबीर सिंह’ बनाने वाले निर्देशक संदीप रेड्डी ने अपनी इस फिल्म के नायक से काल्पनिकता के सहारे नायकत्व को वो विस्तार दिया है जिसे आज की युवा पीढ़ी आसानी से हजम कर पाएगी। हो सकता है कुछ समय के बाद उन्हें खुद भी पता ना चले और उनके भीतर एक एनिमल उतर चुका हो। रणबीर कपूर ने इस फिल्म में डूब कर अभिनय किया है, उनका हर एक अंदाज पसंद आता है। रश्मिका मंदाना भी अपनी खूबसूरती और काबिल अभिनय से जंचती है। अनिल कपूर, बॉबी देओल, सौरभ सचदेवा, तृप्ति डिमरी, सिद्धार्थ कार्णिक, उपेंद्र लिमये, सुरेश ओबरॉय, प्रेम चोपड़ा, शक्ति कपूर आदि सभी कलाकारों से भी पूरा संतुष्ट आप होकर बाहर निकलते हैं।
बेहिसाब गाने, तेज और बेहिसाब बैकग्राउंड स्कोर, शानदार कैमरा, लोकेशन, वीएफ़एक्स वाली यह फिल्म अपने एंड क्रेडिट के बाद भी चलती रहती है जिसमें इसके दूसरे भाग का नाम दिया गया है और आप उससे अंदाजा भी लगा सकते हैं कि अगली बार क्या होने वाला है? कमर्शियल सिनेमा के नाम पर यह फिल्म हिट है लेकिन सार्थक या अच्छे सिनेमा के नाम पर फेल और तकनीकी काम से पास।
एक ऐसा समय भी हमने देखा है जब फ़िल्में पारिवारिक कहानियों का ताना बाना हुआ करती थी , बिना हिंसा के दृश्यों के फ़िल्में बड़ा नाम और दाम कमाती थीं, मेरे जैसे दर्शकों को आज भी वही फ़िल्में लुभाती हैं , लेकिन हीरो को हिट की श्रेणी में आने के लिए कुछ भी करना पड़े …..पीछे नहीं हटता !!!!
शुक्रिया। सहमत नौशाद भाई। होना भी यही चाहिए। लेकिन मंनोरंजन की आड़ में दर्शक क्या देख रहे हैं क्या बन रहे हैं उसके लिए भी उन्हें सचेत रहना चाहिए
Pehle yeh padhaya Gaya ki human is a social animal and now continuing same with the advance technique to make us animals…shayad yeh apko ek accha jaanvar banne ke liye prerit kre..Don’t know about the film lekin trailer se to esa hi lag rha he🤣
शुक्रिया 😊🙏 क्या जबरदस्त सेंस और ह्यूमर है। 😍
बहुत सुंदर
शुक्रिया 🙏
बहुत अच्छे तेजस भैया ❤️
शुक्रिया दोस्त 🙏