रिव्यू- रेतीली ज़मीन पर हरियाला ‘कैक्टस’
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कैक्टस फ़िल्म के कुछ संवाद हैं- भागना पड़ता है जिंदा रहने के लिए लेकिन भागने वालों के लिए दुनिया छोटी पड़ जाती है।

हम धंधा करने वाली औरतों का बुढ़ापा बहुत मुश्किल गुजरता है। ऐसे ही कई और संवाद हैं जिन्हें सुनते-देखते साथ ही फ़िल्म को देखते हुए हमें उन तमाम महिलाओं की याद आ जाती है जो किसी-न-किसी तरह से वैश्यावृति में धकेल दी गई।राजनीतिक रूप इसका और भी अधिक विकृत निकलकर सामने आता है। हालिया मध्यप्रदेश की घटनाओं को देखें तो आपको ऐसी फ़िल्में मारक लगने लगती हैं। कायदे से यह फ़िल्म राजस्थानी नहीं बल्कि वैश्विक है यही वजह है कि इसके भीतर चल रही एक ट्रक ड्राइवर और वैश्या की प्रेम कहानी उस कैक्टस में भी हरियाली भर देती है। कैक्टस ख़ास तौर से राजस्थान में होने वाला एक पौधा है जो कहीं भी उग आता है और हमेशा उपेक्षा का शिकार रहता है। लेकिन ऐसी फ़िल्में उपेक्षा नहीं सराहनाओं की हकदार बनती हैं, ऐसी फ़िल्मों को ढेरों फ़िल्म समारोहों में भेजा जाना चाहिए जहाँ से ये प्रशंसाएं बटोर ला सके और समाज में कुछ बौद्धिक हरियाली का भी विस्तार कर सके।

क्या कभी हमारे आम जनमानस में भी ऐसी चेतना जागृत होगी कि इस ट्रक ड्राइवर जैसे कोई किसी वैश्यावृत्ति में लिप्त औरत को अपनी जीवन संगिनी बनाने की सोच सके। ऐसी चेतनाएं जागृत होती भी हैं किंतु कितनी ये किसी से छुपा नहीं। चंदा 17 साल की थी जब घर से भागी, विक्रम नाम के लड़के के साथ। वे दोनों एक महीने तक भागते रहे पर आखरी में पकड़े गए और विक्रम मारा गया अब बरसों बाद चंदा को मिला है धरम। क्या फिर से चंदा की ज़िन्दगी में कुछ प्रेम जन्म लेगा। क्या ट्रक ड्राइवर पर यकीन कर सकेगी चंदा या वह भी उसका एक कस्टमर बनकर रह जाएगा। देखने भर से यह इतनी ही कहानी है लेकिन इसके भीतर झांके तो आपको नजर आएगा उस आधी आबादी का कड़वा सच। इसके और भीतर झांकें तो नजर आएगा वह तथाकथित मर्दवादी समाज।
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यह फ़िल्म उस कड़वे सच की भी बानगी है जहां तथाकथित भारतीय मर्दों की टांगों के बीच में पिस जाने वाली और खुद को वहां से बचा लेने वाली हर औरत उन मर्दों की नज़र मेें रांड कही जाती है। यह फ़िल्म उस कड़वे सच की भी बानगी है जहाँ हर दूसरा मर्द इस तथाकथित समाज में औरत को अपनी सम्पत्ति समझ एक बार उसके साथ बिस्तर बाँट लेने को लालायित है। कितना कुछ यह फ़िल्म समाज को नंगा करने में बाकी छोड़ती है उसके लिए भी ऐसी फ़िल्मों को देखा, सराहा जाना चाहिए।

खुशफहमी ही पाल लीजिए कि अभी भी राजस्थानी सिनेमा के नाम पर कुछ निर्देशक हैं जो नई-नई कहानियां निकाल कर ला रहे हैं। आनंद खटाना लिखित, निर्देशित इस फ़िल्म को एक कॉफी शॉप की कॉफी जितना किराया देकर इस लिंक से देखा जाना चाहिए। कहानी लिखने के साथ-साथ आनंद ने इसका स्क्रीनप्ले और संवाद भी काफ़ी तीखे रखे हैं।
नसीम खान का डीओपी, सर्वेश कुमार सिंह की एडिटिंग जितनी निखार ली हुई है उससे कहीं अधिक रजत तिवारी का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर है। राजस्थानी सिनेमा में इतना हटके किस्म का बैकग्राउंड आपको कहीं नहीं देखने मिलेगा अब तक। कलिरंग के मामले में भी यह फ़िल्म बहुत हद तक उम्दा किस्म की है। आशीष स्वामी, प्रियंका वर्मा, विक्रम सोढा, सत्येन्द्र मलिक, खेमचंद वर्मा, राकेश भदोरिया, प्रथमेश पटेल, नीरज कंडेला आदि सभी का काम बहुत बेहतरीन नहीं तो बहुत बेकार भी नहीं है। कुछ एक जगहों और कुछ एक सहयोगी पात्रों छोड़ यह फ़िल्म दर्शनीय तथा अभिनय के मकाम पर औसत से ऊपरी किस्म की है। इस फ़िल्म को इसके गानों ‘मूमल’, ‘बोले तो मीठो लागे’ के लिए भी देखा जाना चाहिए। इस फ़िल्म को स्वतंत्र फ़िल्म निर्देशक के लिए देखा जाना चाहिए। इस फ़िल्म को देखने के कई कारण हो सकते हैं। कुछ कारण आप भी बताएं इसे देखने के बाद कि आपने इस फ़िल्म को क्यों देखा और क्या पाया? जरुरी नहीं हर सिनेमा मनोरंजन ही दे कुछ फ़िल्में आपको आंतरिक मनोरंजन भी देती है यह उसी किस्म की है। यह फ़िल्म फेस्टिवल किस्म की है। यह फ़िल्म रेतीली ज़मीन पर हरियाला ‘कैक्टस’ सरीखी है।
अपनी रेटिंग – 3.5 स्टार




