रिव्यू- हैं कौन ये ‘भक्षक’
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इस शुक्रवार ‘नेटफ्लिक्स’ पर संजय मिश्रा, भूमि पेडनेकर स्टारर फिल्म ‘भक्षक’ रिलीज हुई है। गंगानगर वाला के लिए डॉ. रक्षा गीता ने रिव्यू लिखा है- हैं कौन ये ‘भक्षक’ तो चलिए शुरू कीजिए….
यह फिल्म सत्य घटना पर आधारित है हालांकि स्थान का नाम बदल दिया गया है। फिल्म दिखाती है कि कैसे नारी सेवा के नाम पर अनाथ लड़कियों के साथ दुष्कर्म हो रहें हैं। फिल्म का उद्देश्य ‘नारी सेवा केंद्र और ‘उस घटना’ को याद दिलाना नहीं, फिल्म का उद्देश्य उस ‘इंडिविजुअल पत्रकार’ की बहादुरी से अवगत करवाना भी नहीं है जो केस विशेष के लिए खोजी पत्रकारिता कर इनका भंडा फोड़ती है। फ़िल्म का विषय व्यवस्था या सरकार पर भी सारा दोषारोपण करना भी नहीं है बल्कि फिल्म का उद्देश्य अंतिम संवाद में पत्रकार वैशाली बता रही है कि ‘सेल्फ़ी-युग’ में हम सामाजिक नहीं रह गये, सोशल मीडिया में कितने असोशल बन रहें हैं, असंवेदनशील हो चुकें हैं।
हम सभी अपने में मस्त हैं! रील्स बनाने और देखने में सभी आनंदमग्न हैं। अपने आस पड़ोस में क्या हो रहा है इसे जानने की किसी नहीं पड़ी। एक दृश्य में पुलिस जब मोहल्ले में आती है तो पड़ोसी हमेशा की तरह तमाशबीन बने रहतें है। किसी को परवाह नहीं कि उनके पड़ोस से आए दिन जो चीखने की आवाज़ें आ रही है, उनके विषय में जानें पता करें। अभी हाल ही में जैकी श्राफ और नीना गुप्ता की फिल्म आई थी “मस्त में रहने का” जिसमें ये दोनों बुजुर्ग अपने घर में चोरी हो जाने के बाद आस पड़ोस के लोगों की चिंता करते हैं, और अन्य घरों के आजू-बाजू चक्कर लगाते हैं हँसी-मज़ाक में यह फिल्म संदेश देती है कि हमें कम से कम अपने आसपास में एक आत्मीयता का माहौल बना कर रखना चाहिए ताकि समय आने पर हम एक दूसरे की मदद कर पाएं क्योंकि रिश्तेदार तो हमेशा दूर ही रहते हैं।
वास्तव में हम आम जनता के रूप में खुद ही भक्षक बन चुकें हैं। पदार्थ-अपदार्थ भोज्य-अभोज्य में अंतर के लिए विवेक नहीं बचा। खबरों में भी मनोरंजन ही खोज रहे हैं, मनोरंजन के नाम पर जो मिलता है ग्रहण कर लेते हैं, सोशल मीडिया के अगंभीर वाद-विवादों में मज़ा आने लगा है। कोई भी ‘संवेदनशील ख़बर’ भी सिर्फ मसाला खबरों है। इसका ताजा उदाहरण अभी हाल ही में पूनम पांडे की सोशल मीडिया पर फैलाई खबर है, जिसमें उसने खुद को पहले मृत्यु घोषित किया और फिर कहा कि वह तो सर्वाइकल कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाना चाहती थी इस मृत्यु पर भी कई और संवेदनशील टिप्पणियां आई थी इनके बीच यानी पूनम भी समझ रही है कि सोशल मीडिया के माध्यम से अपना प्रचार-प्रसार करना कितना आसान है।
लेकिन यह भी सच है कि इस सोशल मीडिया का सदुपयोग वैशाली जैसी पत्रकार करती हैं उसके “व्यूज़” नहीं बढ़ते लेकिन वह अपना काम करती रहती है और एक ऐसे सेक्स रैकेट का भंडाफोड़ करती हैं जिसके अंतर्गत छोटे से लेकर बड़े मंत्री तक शामिल हैं। यहां मीडिया पर भी प्रश्न चिह्न कि मीडिया इस तरह की खबरों पर बात ही नहीं करना चाहती। पत्रकारिता में महिलाओं की दुश्वारियां को भी फ़िल्म भी सामने लाती हैं। हालाँकि यहां भी संजय मिश्रा बाज़ी मार ले जाते हैं। फ़िल्म के दृश्य हमारी संवेदनाओं को उद्वेलित करने की कोशिश करतें हैं लेकिन उन दृश्यों को फिल्माने में कुछ भी नयापन नजर नहीं आता सिवाय जुगुप्सा पैदा करने के करुणा भाव उत्पन्न नहीं हो पाया। भूमि पेडणेकर का काम ठीक ठीक है। पंचायत वाले बिनोद भी अच्छा काम करते हैं यहां भी मुखबिर के रूप में अच्छा काम किया है।गीत संगीत भी कोई दर्द पैदा नहीं कर पाया। और जिस संवेदना के अमृतप्राय होने के बाद फिल्म करती है उसे संवेदना को जगाने में फिल्म असफल होती है।
नोट- यह रिव्यू डॉ. रक्षा गीता ने गंगानगर वाला के लिए लिखा है। वे एक दशक से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहीं हैं।