रिव्यू- ‘तौबा तेरा जलवा’ एथिक्स से परे का
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त्रिया चरित्रं पुरुष्स्य भाग्यम; देवो न जानाति कूतो मनुष्य:।
औरत कब क्या कर जाए और मर्द की किस्मत कब पलट जाए देवता भी नहीं बता सकते। यह कहना है ‘तौबा तेरा जलवा’ फ़िल्म के एक पात्र का। लेकिन शास्त्र कहते हैं पुरुष का भाग्य और स्त्री का चरित्र देवता तक नहीं जानते तो मनुष्य कैसे जान पायेगा?
क्या आपको नहीं लगता शास्त्र और फ़िल्म के संवाद कहीं से भी स्त्री के चरित्र का हनन नहीं करते? और देखिए मर्द हो या कुत्ता दोनों एक ही रहते हैं। तुमने देखा नहीं पीछे खाली जगह में एक मरियल सी कुतिया के पीछे कई कुत्ते पड़े रहते हैं!
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और देखिए औरत चाहती है उसकी हर विश एक ही मर्द पूरी करे जबकि मर्द चाहता है उसकी एक विश हर औरत पूरी करे। फिर मर्द चाहे कितना भी कह ले की उसे किसी अच्छी लड़की से शादी करनी है पर नजर उसकी हमेशा खूबसूरत लड़की पर ही रहती है। सोसाइटी बनती है एथिक्स की वजह से और एथिक्स खत्म तो सोसाइटी ख़त्म। और नेचर चाहता है हम बहुपत्नीवादी हों लेकिन सोसाइटी नहीं चाहती।
इतना सबकुछ औरत के खिलाफ बोलने, दिखाने, बताने वाली कोई फ़िल्म यदि अंत में जाकर उसी औरत की ख्वाहिशों को तवज्जो देने लगें तो क्या इससे सिनेमा के एथिक्स पूरे हो जाते हैं? क्या इसके अलावा कई सारे पात्रों का खुलकर बाहर ना आ पाना और जो कर रहा है वो क्यों कर रहा है? समझ ना आना क्या सिनेमा के एथिक्स के खिलाफ नहीं?
कायदे से ‘तौबा तेरा जलवा’ पूरी फिल्म ही सिनेमा के एथिक्स के खिलाफ है। अब आप कहेंगे कहानी तो बताई ही नहीं… तो लीजिए सुनिए…. एक लड़का है काफी पैसे वाला माँ-बाप है नहीं एक लड़की से शादी हुई और अचानक से एक बेहूदा शायरी मारने वाला बात-बात में भौं-भौं, हाउ-हाउ करने वाला एक प्रोफेसर आया जो उस लड़के के शुरू होने जा रहे राजनीतिक करियर के लिए भाषण लिखने वाला है। इतना ही नहीं अधेड़ उम्र का यह प्रोफेसर अपने से आधे उम्र की दिखने वाली स्टूडेंट को अपनी बीवी बनाकर उसी लड़के के महल में ले आया। अब दोनों बीवियां आपस में फिल्म के अंत में कैसी निकली यह जरुर दर्शक को चौंकाता है।
हिंदी पट्टी के सिनेमा में हर फिल्म ‘चंडीगढ़ करे आशिकी’ तो होती नहीं बजाए उसके वह ‘तौबा तेरा जलवा’ हो सकती है इसमें भी कोई दोराय नहीं। गदर वाले निर्देशक अनिल शर्मा के साथ लगकर भी इस फिल्म के निर्देशक ‘आकाशादित्य लामा’ सिनेमा का क…ख…ग नहीं सीख पाए तो उससे हमें क्या?
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अमीषा पटेल फिल्म की शुरुआत तक अपनी उम्र को छिपा पाने में कामयाब रही लेकिन अंत तक आते-आते उनकी उम्र भी झलकने लगीं बेशक वे प्यारी लगीं हैं। राजेश शर्मा, अनिल रस्तोगी, नीरज सूद अपने किरदार में रमें नजर आते हैं। लेकिन एंजेला क्रिस्लिंज्की, जतिन खुराना, विवेक उपाध्याय आदि जैसे कलाकार किसी फिल्म को कैसे ख़त्म किया जाना चाहिए उसका सटीक उदाहरण है।
लेखक, निर्देशक आकाशादित्य लामा इससे पहले ‘सिगरेट की तरह’ जैसी ना मालूम फ़िल्में भी निर्देशित कर चुके हैं। गाने फिल्म के कुछ ख़ास नहीं बन पड़े एक को छोड़। सिनेमैटोग्राफी, कैमरा एंगल, एडिटिंग जरुर बेहतर है लेकिन बावजूद इसके बिना मतलब के तामझाम, भारी-भरकम एक्शन और बैकग्राउंड स्कोर फिल्म को इसके लेखन, पटकथा की तरह ही बोझिल बनाता है।
नई जिंदगी की शुरुआत एक साफ सुथरे पन्ने से करो। फिल्म के इस संवाद की तरह आप भी फिल्मों को देखने का इस साल नजरिया बदलें और साफ़ सुथरे पन्ने से सिनेमाई शुरुआत करें। फिर सिनेमा के नए साल की इस पहली फिल्म से शुरुआत भले अच्छी ना रहे लेकिन हाँ एक अच्छे खासे सब्जेक्ट को पूरी समझ और सटीक फैलाव के साथ बनाया जाता तो सिनेमा का यह पन्ना भी साफ़ सुथरा हो सकता था, फिलहाल तो यह कोरा ही है। बिल्कुल ऐसा जिसमें कहानी के कई पहलू ठीक से समझ नहीं आते दर्शकों को और बहुत सी चीजें सिनेमा के नाम पर अधूरी छोड़ दी गईं जिससे यह एकदम एथिक्स से परे का सिनेमा बन गया।