सिनेमा और सर्कस गायब हो गया…
आज गंगानगर वाला करेगा यात्रा यादों की
रेम्बो सर्कस ,जैमिनी सर्कस ,बॉम्बे सर्कस और ना जाने कितनी ही सर्कस का मजा बचपन में लूटा है। आज जब इनका भविष्य डांवाडोल स्थिति में पहुँच चुका है। तो जरूरी है याद करना उन लम्हों को और याद कीजिये जब शहरों में ,गांवों में सर्कस के तम्बू लगते थे और बच्चे बूढ़े हर वर्ग में खुशी की एक लहर दौड़ जाया करती थी। सर्कस लगने की खबर जैसे ही होती लोग एक दूसरे से पूछते थे। सर्कस देख कर आये या नहीं कुछ ऐसा ही जलवा हुआ करता था। सर्कस की दीवानगी का यूँ तो भारत में सर्कस का इतिहास लगभग 130 साल (एक सौ तीस साल) पुराना है। परन्तु वर्तमान में यह जो (तत्कालीन समय में या कुछ वर्ष पूर्व) मनोरंजन का सर्वोतम माध्यम माना जाता था, दम तोड़ता सा प्रतीत होता है। अगर यूँ कहें कि लगभग यह समाप्त ही हो चला है तो भी कोई अतिश्योक्ति न होगी।
सर्कस जिसका नाम आते ही मन के न जाने कितने कोने हिलोरें मारने लगते है। और ध्यान मनोरंजन तथा रोमांच से भरपूर और हैरत अंगेज करतब की ओर जाता है। इनके साथ ही शेर की दहाड़ ,हाथियों का क्रिकेट मैच जोकर का हंसी-ठट्ठा, मसखरी तथा खुबसूरत विदेशी बालाओं (परियों) का नाच ये सभी चीजे दिमाग में घुमने लगती है। यूँ तो सर्कस के जादू से हमारा हिंदी सिनेमा भी अछुता नहीं रह पाया है।
हिंदी सिनेमा में सबसे पहले सर्कस का नाम आते ही ध्यान “राज कपूर साहब” की सुपरहिट (सदाबहार) फिल्म “मेरा नाम जोकर” की ओर जाता है। जिसमें एक नाकाम प्रेम कहानी के साथ-साथ सर्कस का भी बखूबी इस्तेमाल किया गया। और इसी फिल्म का गाना – “जीना यहाँ मरना यहाँ ,इसके सिवा जाना कहाँ” जिंदगी के दो पहलूओं से रूबरू करवाता है। यथार्थ और प्रेम।
फिल्मों की इसी श्रृंखला में “मिथुन दा” की फिल्म “शिकारी” में सर्कस का माहौल देखने को मिला। “कमल हसन” की फिल्म “अप्पू” में भी इसे एक बार पुन: दोहराया गया। फिर “हेराफेरी” जैसी फ़िल्मों में भी सर्कस के माध्यम से क्लाइमेक्स को बेहतर आयाम देने का प्रयास किया गया। “सईद मिर्जा” ने तो इस दिशा में एक कदम और आगे आते हुए सर्कस की चमक-दमक के पीछे का सच तथा मुश्किलों को बयां करने के लिए “सर्कस” नाम से एक पूरा धारावाहिक ही बना दिया।
वह भी क्या जमाना था। जब कभी शहर में सर्कस लगता तो सिनेमा हॉल में दर्शकों की तादाद कुछ कम हो जाया करती थी। और इसके बनिस्पत सर्कस की ज्यादा। सर्कस मनोरंजन का काफ़ी पुराना जरिया रहा है तभी तो यह सर्कस की रूमानियत ही थी कि “राजकपूर साहब” ने सर्कस को हमारी जिन्दगी का आईना बना दिया। और सही मायने में देखा जाये तो यह जिंदगी भी तो एक सर्कस की भाँती तीन घंटे का शो मात्र है। जिसमें सभी को पात्र बनकर अपनी-अपनी भूमिकाएं अदा करनी होती है। और यह सर्कस के तीन घंटे जीवन के तीन विभिन्न चरणों की ओर इशारा करते है। बचपन ,जवानी और बुढ़ापा जिस तरह सर्कस का रिंग (सरिया) गोल होता है। उसी तरह यह दुनिया भी गोल है। और जिस तरह हमारे जीवन में विभिन्न उतार-चढ़ाव आते हैं। उसी तरह सर्कस में भी तो कभी ऊपर तो कभी नीचे जाना पड़ता है।
सर्कस जिसमें लाइव दर्शक ,लाइव परफोर्मेंस (आखों देखी प्रस्तुति) तालियों के पुल से गुजर कर सर्कस का रूप प्रदान करती है। जो हीरो सिनेमा में रील लाइफ के जरिये करतब अथवा करामात दिखाता है। उसे सर्कस रीयल लाइफ में प्रस्तुत करता है। और यही प्रस्तुति कलाकारों और दर्शकों के बीच जो रिश्ता बनाती है। उसके तो कहने ही क्या। आज सर्कस अपने आन ,बान और शान के लिए अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है। बड़े-बड़े तम्बुओं में सूनी पडी कुर्सियां आज फिर उन्हीं तालियों और सीटियों का इन्तजार कर रही है। और वह जोकर भी जो मेकअप में अपने सारे दुःख दर्दों को छिपाकर लोगों को हंसाता था। उनका मनोरंजन करता था वह भी आज इन्तजार की लम्बी लाइन में खड़ा दिखता है शायद कभी ना खत्म होने वाली लाइन।
वर्तमान में मनोरंजन की बदलती परिभाषाओं के कारण सर्कस उद्योग दम तोड़ रहा है। आज मनोरंजन के साधन आसानी से उपलब्ध हो रहे है। जिसके फलस्वरूप मनोरंजन आज एक उत्सव के रूप में स्थापित अपनी परिभाषा तथा आयामों को खोता जा रहा है। यह उत्सव नही बल्कि रोजाना इस्तेमाल की चीज बन गया है। और मनोरंजन के नित नये साधन उपलब्ध होने का सबसे बुरा असर पड़ा है सर्कस में काम करने वालों के रोजगार पर ,रोटी पर।
वर्तमान में लगभग 250 सर्कस में से 15-20 ही बचे हैं और प्रत्येक सर्कस के ग्रुप में से लगभग 300-400 लोग बेरोजगार हुए हैं। और सर्कस के समाप्त होने का सबसे बड़ा कारण जानवरों का सर्कस में इस्तेमाल पर पाबंदी भी है। जिसकी वजह से लोगों में सर्कस देखने का उत्साह कम होता जा रहा है। फिल्मों में तो जानवरों की वफादारी देखने को बहुत बार मिल जाती है। जैसे- “राजेश बाबू” की “हाथी मेरे साथी” , “आमिर खान” की “कुर्बान” , “सलमान खान” की “हम आपके हैं कौन” तथा हाल ही में प्रदर्शित “अक्षय कुमार” की “एंटरटेंन्मेंट” आदि। अनेक फिल्मों में जानवरों की वफादारी के माध्यम से दर्शकों का मनोरंजन करने का सफल प्रयास किया गया है। परन्तु सर्कस के माध्यम से रीयल लाइफ में भी जानवरों की वफादारी तथा दोस्ती की खबरें भी कम चर्चा का विषय नहीं है।
सर्कस के कलाकारों की जिन्दगी में तो जैसे अन्धेरा सा पसरता जा रहा है। मानों सर्कस की आत्मा तो खत्म ही हो चली जा रही है। कई भारतीय सर्कसों में विदेशी कलाकार भी हैं। तथा सबसे बड़े दुःख का कारण तथा विडम्बना यह है। कि सर्कस को कभी भी प्रोफेशन माना ही नहीं गया। दूसरे या अन्य देशों की भांति व्यवसाय के रूप में लिया ही नहीं गया। परन्तु फिर भी “राजकपूर साहब” की फिल्म (मेरा नाम जोकर) की भांति कुछ लोग सर्कस में अपनी विरासत को बढ़ा कर उसे जिलाये रखने का असफल प्रयास अवश्य कर रहे हैं। कुछ मजबूरी तो कुछ गरीबी में। सर्कस न लग पाने का एक बड़ा मुख्य कारण शहरों में किराये पर जगह लेना सर्कस वालों के लिये महंगा साबित हो रहा है। महंगे किराये की वजह से उन्हें पूरा प्रॉफिट नही मिल पाता है। और दो जून की रोटी के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है।
आवश्यकता इस बात की है कि सर्कस को एक प्रोफेशन के रूप में फिर से जीवित करना ,खड़ा करना तथा इन कलाकारों की कलाकारी को ,हैरतअंगेज करतबों को सम्मान देना तथा एक बार पुन: मनोरंजन के उत्कृष्ट साधन को अपने अतीत कि भांति आनन्द के चरमोत्कर्ष पर पंहुचाना।।
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