इंटरव्यू

अब कला फिल्मों जैसा कुछ भी नहीं रहा- अजय ब्रह्मात्मज

 

अजय ब्रह्मात्मज मुम्बई रहते हैं। आज के दौर में वे सिनेमा के वरिष्ठ सिने समीक्षक हैं। कई सिनेमा पर किताबें लिख चुके अजय ब्रह्मात्मज के साथ यह इंटरव्यू सीरीज पहले हर फिल्म के रिलीज के बाद की जाती रही। कई फिल्मों पर हुई इस बातचीत को तब पिक्चर प्लस ने प्रकाशित किया था। पत्रिका बंद हो जाने के बाद गंगानगर वाला पुन: उस सीरीज को लेकर आया है। 

सवाल  – वीरे दी वेडिंग आपने देखी, खासतौर पर इस फ़िल्म के संवाद आपको कैसे लगे?
अजय ब्रह्मात्मज -फ़िल्म के संवाद फ़िल्म के अनुरूप हैं। उसमें कहीं भी, कुछ भी गलत नहीं है। संवाद स्वाभाविक हैं और कहानी को गति प्रदान करने में भी सहायक हैं।

सवाल – आपको क्या लगता है फिल्मों में भाषा के स्तर में जो लगातार गिरावट हो रही है क्या ये सोशल मीडिया और उसकी चालू भाषा का प्रभाव तो नहीं?

अजय ब्रह्मात्मज – कोई भी फ़िल्म जब बनती है तो जैसे किरदार उसके होते हैं उसी के अनुरूप ही उसकी भाषा होती है और होनी भी चाहिए। भाषा ही नहीं उसकी पृष्ठभूमि, उसका परिवेश सभी किरदार के अनुकूल होते हैं। लेखकों पर भी यह निर्भर करता है कि वे किस तरह की भाषा परोस रहे हैं। वे जैसी भाषा दे रहे हैं या कहीं न कहीं प्रोड्यूसर या निर्माता भी उसमें लेखकीय योगदान दे रहे हैं तो ये सब आजकल के समय के अनुसार ही है। उसमें कुछ भी गलत एक आपत्तिजनक नही है।

सवाल – ओमरेटा में अगर भाषा देखें तो 90 प्रतिशत अंग्रेजी भाषा। है जबकि हम इसे हिंदी सिनेमा कहते हैं। तो आपकी नजर में इतनी अंग्रेजी का उपयोग सिनेमा के लिए लाभदायक है या नहीं?
अजय ब्रह्मात्मज – ओमरेटा में सबसे बड़ी चुनौती उसकी थीम थी। उसका नायक लंदन में पढ़ा-लिखा पाकिस्तानी था। और इसका उद्देश्य भी मेरे ख्याल में पूरा हुआ है निर्माताओं का। वे जिन लोगों तक इसे पहुँचाना चाहते थे उसमें वे सफल भी हुए हैं और ये लोग फ़िल्म के आम दर्शक नहीं हैं। वैसे देखें तो हम अपने जीवन में भी अंग्रेजी का उपयोग बखूबी करने लगे हैं। उदाहरण के लिए Now i am going बोल देते हैं। वैसे भी भाखा बहता नीर है। आप देखें हमारे पूर्वज जो भाषा बोलते थे और अब हम जो बोल रहे हैं उसमें जो परिवर्तन हुआ है, हो सकता है यह परिवर्तन आगे और अधिक हो। हमारी आने वाली नस्लें न जाने किस भाषा को अपनाने लगें। अंग्रेजी के समकक्ष दूसरी ओर चीनी भाषा को देखें या पंजाबी को जिसका इस्तेमाल हिंदी फिल्मों के गाने में भी हो रहा है, तो भाषा बन्धन नही होनी चाहिए। हमें हर भाषा को स्वीकार करना चाहिए। एक बात और अगर निर्माता, निर्देशकों को अगर लगे कि अंग्रेजी भाषा चलती नहीं तो वे अंग्रेजी का उपयोग नहीं करेंगें। लिहाजा हमें हर भाषा को लेकर चलना चाहिए।

सवाल – हिंदी फिल्मों में बोल्ड संवाद की एक परम्परा रही है। लेकिन विषय के संदर्भ में कई कला फिल्मों में इसका बखूबी गम्भीरता के साथ उपयोग हुआ है। लेकिन द्विअर्थी संवाद को हमेशा सी ग्रेड की चीज माना गया जो कि अब मेनस्ट्रीम में भी आ गया इस बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
अजय ब्रह्मात्मज-  पहली बात अब कला फिल्मों जैसा कुछ भी नहीं रहा है। सब कमर्शियल फिल्म हैं। जितनी भी फिल्में बन रही हैं सब कमर्शियल हैं। सिनेमा को किसी एक प्रकार में बांधना मुमकिन नहीं। तो ये प्रश्न ही नहीं उठता। दूसरी बात जो आप बोल्ड या द्विअर्थी संवाद की बात कर रहे हैं वे हमेशा से सब फ़िल्म के अनुरूप ही हैं।

सवाल – वीरे दी वेडिंग हो या गैंग्स ऑफ वासेपुर, मार्गरेटा विद ए स्ट्रॉ, पार्च्ड इन सभी में चौकाने वाली बात ये है कि अब तक जिस तरह के संवाद अब तक पुरुष कलाकार बोला करते थे उसे महिला कलाकार बोल रही हैं। ये बदलाव भविष्य में किस तरह का संकेत करते हैं फिल्मों के लिए?
अजय ब्रह्मात्मज- पहली बात ये कि आप खुद इसे किस रूप में देखते हैं। सकारात्मक या नकारात्मक? अगर आप इसे सकारात्मक ले रहे हैं तब ठीक अन्यथा यह रूढ़िवादी और पुरुषसत्तात्मक सोच होगी। बाकी मेरे ख्याल में ये कोई भी चौकाने वाली बात नहीं है। तो इसमें इतनी हैरानी वाली कोई बात नहीं कि अब तक पुरुष जिन संवादों को बोल रहे थे वो महिला कलाकारों द्वारा बोले जा रहे हैं। समाज जैसा होगा भाषा भी वैसी ही होगी

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गंगानगर वाला

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