बुक रिव्यू
बुक रिव्यू – आंतरिक मुक्ति की तलाश में ‘तीस पार की नदियाँ’
हिंदी काव्य में आधुनिक दौर की अनेक महान कवयित्रियों ने जन्म लिया और साहित्य को समृद्ध किया। रचनाकारों से समृद्ध इस साहित्यिक भाव भूमि के धरातल पर स्त्रियाँ गीतकार भी बनीं, कहानीकार भी बनीं, उपन्यासकार आदि से लेकर नाटक, कविता, सिनेमा, खेल, ज्योतिष आदि तमाम जगहों पर उन्होंने अपने आपको पुरुषों से हमेशा इक्कीस ही रखा। बावजूद इसके सामाजिक धरातल पर अथवा सामाजिक सोच ने उन्हें कितना ही पिछड़ा बनाने की कोशिशें की हों, वे तमाम आज असफल ही नजर आती हैं। भारतीय पितृसत्तात्मक समाज में एक ओर जहाँ उन्हें केवल गृहिणी समझा गया दूसरी ओर वहीं वे धैर्य एवं शान्ति के साथ अपने आपको स्थापित करती चली गईं । तमाम संकटों और दुश्वारियों के बीच भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी तो केवल अपनी सृजनात्मक एवं रचनात्मक प्रवृत्ति के चलते। जब भी हमारे यहाँ किसी भी बात पर बहस-मुबाहिसें हों तो सबसे पहले पुरुषों के योगदान को आगे रखा जाता रहा है। जबकि हमें यह समझना होगा कि पुरुषों के बराबर में स्त्रियाँ भी खड़ी हैं। यहाँ कोई बिना राजनीतिक या अन्य बहस के हम केवल उन्हें साथ रखने की बात करें तो स्त्रियाँ पुरुषों की हम कदम ही नजर आयेंगीं। फिर आतंरिक मुक्ति की तलाश तो हरेक मनुष्य करता ही है बशर्ते वह चेतनाशील हो, जागरूक हो, जागृत हो, बुद्धि, प्रज्ञा आदि से चिंतनशील हो।
आधुनिक युग की महिला कवियत्री में कमला सुरैया का नाम भी उतना ही अग्रगण्य है जितना की सरोजनी नायडू, महादेवी वर्मा, बालमणि अम्मा, मीरा बाई, नंदिनी साहू, सुभद्राकुमारी चौहान, अमृता प्रीतम या पहली बार साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत होने वाली महिला कवयित्री अनामिका का। आम तौर पर सजग एवं यथार्थ के धरातल पर रहकर वास्तविक लेखन (यहाँ हमें फूहड़ और जल्द लोकप्रियता हासिल करने वाले साहित्य से इतर रहकर लेखन) करने वालों के रचनाकर्म में समाज, देश के साथ-साथ यदि उनमें महिलाएं लेखन कर रही हैं तो उनका अपना परिवार भी नजर आता है। कुछ इसी तरह की भाव-भूमि पर रहकर सत्या शर्मा ‘कीर्ति’ अपने पहले ही कविता संग्रह “तीस पार की नदियाँ” में दर्शाती हैं। कविता, कहानी, लघुकथाओं, हाइकु तथा अपने निरंतर विचारशील लेखों से प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में लेखन कार्य में सक्रिय एवं संलग्न रहने वाली सत्या आकाशवाणी से भी नियमित तौर से जुड़ी हुई हैं तथा मात्र बीस की उम्र में लिम्का बुक ऑफ़ रिकॉर्ड में नाम दर्ज करवा ले जाना तथा ‘सैल्समैन’ कविता के लिए कलमकार पुरुस्कार समेत, साहित्य सम्मेलन शताब्दी सम्मान (बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन) तिलका मांझी राष्ट्रीय सम्मान सहित कई सम्मानों को पा लेने पर भी उनके साहित्य लेखन में स्तरीयता नजर आती है।
सत्या लिखती हैं –
यह सच है कि/ मैंने नहीं लिखी हैं/ कविताएँ,
कविताओं ने/ लिखा है मुझे।
तब उनकी यह बात उनके इस काव्य संग्रह को पढ़ लेने के पश्चात ही समझ आती है। जैसा कि उनके इस काव्य संग्रह के शीर्षक से ही समझ आ जाता है ‘तीस पार की नदियाँ’ यानी एक औरत के जीवन की वह अवस्था जहाँ वह भरी-पूरी होकर भी अपने भरे-पूरे परिवार को छोड़ ससुराल के चौखटे पर दस्तक दे चुकी होती है। इस उम्र तक आते-आते या तो अधिकाशंत ममत्व का भार अपने कांधों पर उठाए जिम्मेदारियों से घिरी रहती हैं या फिर कुछेक अपने को रचनात्मक बना घर-गृहस्थी में आर्थिक योगदान देने के साथ-साथ रचनात्मक भी हो चलती हैं। अपने इस पहले काव्य संग्रह में छोटी बड़ी करीब सत्तावन कविताओं को संग्रहित करते हुए लेखिका ने अपने परिवार, समाज के साथ आस-पास के दायरे की जो लकीर खींची है कविताओं के माध्यम से वह पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं तथा एक ऐसे रचना संसार के माध्यम से आपको अपने आस-पास के माहौल की सैर करवाती है जिससे आप अनभिज्ञ तो नहीं हैं लेकिन कहीं-न-कहीं आपने उसे विस्मृत सा करके अवश्य छोड़ दिया है।
मायके की चौखट को पहली बार लांघ कर ससुराल की चौखट में कदम धरने तथा वहां रहकर भी अपने मायके में बिताये सुनहरे पलों को जब लेखिका अपनी कलम से लिखती हैं तो यह लगता ही नहीं कि उनका अपना देखा,जिया सच है बल्कि उसके बहाने से वे पूरे भारतीय समाज की महिलाओं के आंतरिक जीवन का खाका खींच रही होती हैं अपनी कविताओं के माध्यम से। यहीं आकर एक स्त्री की आंतरिक तलाश ख़त्म नहीं होती बल्कि उस आन्तरिकता से उसकी मुक्ति की तलाश तक का सफर लेखिका तय कर जाती है जिसमें तमाम देश-दुनिया की औरत को शामिल किया जा सकता है। अपने पीछे बहुत कुछ छोड़कर चले जाने और उसे फिर से याद करने के सुख अथवा दुःखों को हम प्रवासी साहित्यकारों के लेखन में भी बरबस देखते आये हैं। लिहाजा महिलाएं भी तो भले ही अपने देश ही में ब्याही जाएं लेकिन एक घर से दूसरे घर जाना तथा फिर नये सिरे से जीवनारम्भ करना भी प्रवास में ही शामिल होता है। “भाई, तेरा घर-आंगन” कविता में सत्या जब लिखती हैं –
हाँ, भाई अक्सर अकेले में/ बहुत पुकारता है मुझे
तेरा वो घर-आंगन/ वो बेलपत्र की डाली
वो उड़हुल की लाली/वो बड़ों का प्यार
वो तेरी तकरार/ वो मां का मुझे मनाना
वो तेरा रूठ जाना/ पर पापा का ये कहना
एक दिन तो चली जायेगी।
यह पूरी कविता आपको महान गजलकार जगजीत सिंह की गायी गई गजल ‘वो कागज की कश्ती’ की याद दिलाती है। उस गजल में भी अपने बीते हुए जीवन को वापस लौटा लाने की बात होती है तो सत्या की इस कविता में आपको वही झलक नजर आती है। इसके साथ ही उनकी एक और कविता “पिता की कुछ बातें” कविता भी एक पिता एवं पुत्री के बीच के आत्मीय सम्बन्धों का जिक्र करती नजर आती है। “काश मैं हो जाती पिता”, “जाने कब बूढी हो गयी माँ”, “हल्दी-कुमकुम” आदि कविताएँ मायके की चौखटों से निसृत कविताएं हैं। जिनमें अपार दुःख है, अपार स्नेह है, अपार ममत्व है और है तो मायके को एक बार पुन: जी लेने की जिजीविषा अपने ही शब्दों के माध्यम से।
अचम्भित हूँ मैं… !!!
ढूँढती रही मैं नदियों, पहाड़ों,/ बगीचों में कविता
और मेरी माँ/ मेरी ही आँखों के सामने होती रही बूढी
भागती रही भावों की खोज में/ खोजती रही संवेदनाएँ
पर, देख नहीं पाई जब/ प्रकृति खींच रही थी
माँ के जिस्म पर अनेक रेखाएँ
“जाने कब बूढी हो गयी माँ” कविता की ये पंक्तियाँ बौद्धिक पाठकों को ही नहीं अपितु हर भाषा तथा हर वर्ग के व्यक्ति तक की संवेदनाओं के भीतर तक पहुँचने की क्षमता रखती है। एक ओर जब मनुष्य तेजी से भौतिकता की चकाचौंध में डूबा यह तक भूल बैठा है कि उसकी माँ अब बीते कुछ सालों में कितनी बदल गई है वहीं दूसरी ओर लेखिका सत्या अपने इन गहरे शब्दों के साथ उन्हें वहां तक हाथ पकड़ कर ले जाती है। उन भावों, संवेदों का साधारणीकरण यहाँ हमें मिलता है जिनके माध्यम से हम अपनी जननी के अन्तस् तक पहुँच सके यही तो किसी भी रचनात्मकता की सार्थकता कही जायेगी।
आम तौर पर हम अपने सामने आस-पास के माहौल में यह सुनते हुए ही बड़े होते आते हैं जब स्त्रियों से तथाकथित समाज का मर्दवादी पुरुष कहता है खाली ही तो बैठी रहती हो सारा दिन! आखिर तुम करती ही क्या हो? तो इस बात का माकूल जवाब उन तमाम मर्दवादी सोच में जकड़े मर्दों के लिए करारा तमाचा समान कविता भी लेखिका लिखती हैं और उनकी कविता का शीर्षक भी उतना ही माकूल बन पड़ा है – “स्त्रियाँ गढ़ती हैं खाली पलों में भविष्य के सुनहरे सपने” जब वे लिखती हैं इसमें
स्त्रियाँ ढूँढती हैं समाधान समस्याओं का, करती हैं
हल परेशानियों का और रोपती हैं आँगन में
खुशियों की महकती तुलसी।
कविता की मात्र ये दो पंक्तियाँ समस्त स्त्री जाति के खाली पलों का खाका तैयार करती नजर आती हैं एक ऐसा खाका जिसमें तमाम मर्दवादी समाज के उस सवाल का करारा जवाब छिपा है जो वह सदियों से पूछता आया है। “स्त्री” नाम के छोटे से शीर्षक जैसी यह कविता मात्र शीर्षक के अंकगणित से उतनी ही विस्तृत है जितना की स्त्री का संसार और समस्त सृष्टि। इस एक शब्द में पूरी सृष्टि ही समग्र रूप से समाहित नजर तो आती ही है साथ ही इस कविता में जिस तरह स्त्री मुक्ति की बात की गई है वह भी समस्त स्त्री जाति की मुक्ति, आजादी के लिए पैरोकार बन खड़ी होती है।
कल मेरी कविता से निकल कर
कहा स्त्री ने- अहा! कितना सुखद!
आओ तोड़ दें बंदिशें,/ हो जाएं मुक्त,
गाएँ आज़ादी के मधुर गीत / और नाच उठी स्त्री,
उन्मुक्त बहती नदी में
आज़ादी देश को मिली अंग्रेजों की गुलामी से थी बरसों पहले लेकिन नहीं मिली तो आज भी उस पुरुष सत्तात्मक समाज से जिसके भार को हमेशा ढोया स्त्री ने ही। उन्मुक्त होने की चाहना साहित्य में ख़ास करके हिंदी के दोयम समझे जाने वाले वर्ग चाहे वह स्त्री वर्ग का साहित्य हो या दलितों का। यहाँ एक बात मैं अपने किसी लेख में लिखी हुई फिर से दोहराना चाहूँगा कि इस समाज में, देश में दलितों में दलित जिन्हें आप महादलित भी कहें तो वह है केवल और केवल स्त्री।
जबकि यह हमारी अपनी दकियानूसी सोच का असर है कि सृजन करने वाला पिछड़ा कैसे हो सकता है? इसी कविता की अगली कुछ पक्तियां स्त्री के उस स्वभाव को दर्शाती है जहाँ वह इन बातों की परवाह किये बगैर हर घड़ी अपने को आगे बढ़ाने में प्रयासरत है।
आज की स्त्री / रूढ़ियों के बंधन तोड़कर
सुबह जूड़े में बाँध लेती है / संस्कारों के फूल
स्त्रियों ने देखा जाए तो सदियों से यही किया है। वे हमेशा रूढ़ियों के बंधनों को अपने जूड़े में इसी तरह बांधकर कदम आगे बढ़ाती जाती हैं और गढ़ती जाती हैं अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य को। इसी तरह वे घरों में साग-सब्जियों को छौंक लगाते हुए अनेक योजनाएं भी बनाती जाती हैं अपने उन्हीं बच्चों के भविष्य के लिए। लेकिन इन छौंक के साथ जब वे परोसना आरम्भ करती हैं तो उन्हीं साग-सब्जियों में प्यार एवं स्नेह भरी रोटियां भी डालती जाती हैं जिनसे उनका परिवार परिपुष्ट होता जाता है। ऐसे ही एक अन्य कविता ‘मैं माँ होना चाहती हूँ’ में विवाहित स्त्री के गर्भ धारण ना कर पाने तथा निसंतान रहने पर समाज, परिवार के तानों के साथ-साथ उसके अपने भीतर की जो पीड़ा है ममत्व को न पाने की अपनी सन्तति के माध्यम से उसको यह कविता बखूबी चरितार्थ करती है। इस कविता में सम्पूर्ण स्त्री की परिभाषा के अपरिभाषित रह जाने और उसकी बंजर कोख से जिसे उसने स्वयं अपने लिए सृजित नहीं किया उसकी वह अनउर्वरक कोख ममता से भी अपरिभाषित नजर आती है समाज की नजरों में। इसी तरह लेखिका ‘औरतें नहीं करती आत्महत्या’ शीर्षक कविता में स्त्री की आत्म चेतना तक पहुंचकर जब यह कहती है –
स्त्री झेलती है / हर मान-अपमान / हर सुख-दुःख / करती रहती है / आजीवन संघर्ष
ताकि जमाने की बुरी नजर से / बची रहे चाबी व डोर
और इसी / जद्दोजहद में / वो नहीं करती है / आत्महत्या
तब महसूस होता है एक स्त्री के माध्यम से समस्त स्त्री जाति की भावनाओं का वह ज्वार भाटा जिसे वह आजीवन अपनी बंजर कोख में एक अजन्मे बच्चे की तरह पालती जाती है। इस अजन्मे बच्चे के रूप में उसे हर बार संजोकर रखना पड़ता है उन तमाम सामाजिक विषैले पदार्थों को जिन्हें वह न कभी जन्म दे पाती है और न कभी उनकी भ्रूण हत्या कर पाती है। ‘मैं बुद्ध होना चाहती हूँ’ कविता शीर्षक भले ही युवा कवयित्री सत्या को स्वयं उस बौद्धिक स्तर तक ना ले जा पाती हो किन्तु इस कविता के माध्यम से लेखिका अपने जिस रचना संसार की गहनता का परिचय लेखकों को करवाती है वह उनके इस काव्य संग्रह में सबसे सर्वोत्तम बन पड़ा है। दार्शनिकता के भाव बोध से भरी यह कविता प्रत्येक व्यक्ति को अपने भीतर एक बारगी झाँक लेने को विवश कर जाती है। इसी तरह की और कविताएँ ‘मेरे अंतस के बुद्ध’ , ‘मौन का शोर’ , ‘मुक्ति बाह्य नहीं, आंतरिक है’ , ‘तुम्हारे मन के किवाड़ पर दस्तक होती होगी ना’ , ‘अनकही ख्वाहिशें’ , मन की देहरी का चाँद’ , ‘तुम्हारे लौट आने तक’ आदि में लेखिका जिस मनोवैज्ञानिक भाव-बोध से पाठकों की नब्ज को टटोलती है उसे पकड़ती है वह भी संग्रह के आरम्भ से अंत तक उससे महसूस होता है एक स्त्री के भीतर का रचना संसार। एक ऐसी स्त्री के भीतर का रचनात्मक कर्म जो बहुत पहले इस दुनिया के सामने आ जाना चाहिए था लेकिन घर-गृहस्थियों की लकीरों पर चल रही ऐसी न जाने कितनी ही महिलाओं की कलम दम तोड़ जाती होंगीं और उन्हें कोई रोने वाला भी न मिलता होगा। लेकिन जब वे स्त्रियाँ लिखने चलती हैं और प्रेम ही लिखती चली जाती हैं जिसका दायरा भी उनका मायका हो, उसके अपने हो, उसके ममत्व का अपना संसार हो तो वह अपरिमित होने के साथ-साथ विस्तृत और घना भी होता है। उस घने आकाश तले भले वे तीस पार की नदियाँ आंतरिकता की तलाश में उसकी मुक्ति की खोज में भले ही दम तोड़ जाती हों लेकिन साहित्य के नजरिये से वह सब दे जाती हैं जिसमें प्रेम है, इच्छाएं है, शहीदों के किस्से हैं, माँ है, पिता है, भाई है, प्रकृति है और प्रकृति के रूप में वह स्वयं प्रकृति स्वरूपा नदी है ममत्व से भरपूर जिसके साये तले एक मजदूर भी शीतल छांह पाता है तो सैल्समैन भी। उसके बीज रूप में किन्नर भी जन्म लेते हिं तो रेप पीड़िता भी, उसके मायके की देहरी का चाँद भी वहां आकर ठिठकता है तो उसकी अपनी काया का कायांतरण भी उसी शीतल चाँद की चांदनी में निखरता, घूमिल होता कभी छलछलाती नदियों सा तो कभी बंजर, सूखी नदियों सा ,महसूस होता है और उस स्त्री के रचना संसार से रचना का मातृत्व भी जन्म लेता है तो उसी में उसके सपनों की परिधि भी खींचती चली जाती है।
नोट- यह लेख यूजीसी मान्यता प्राप्त राजस्थान साहित्य अकादमी की पत्रिका मधुमती में तथा साहित्य यात्रा त्रैमासिक पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।
सत्या अब तक अलग-अलग विधाओं पर तीन किताबें और सैकड़ों लेख तथा कविताएँ कहानियाँ आदि लिख चुकी हैं। काव्य संग्रह- सीझते हुए सपने, लघु कथा संग्रह- वक्त कहाँ लौट पाता है इनके हाल ही में प्रकाशित हुए संग्रह हैं।
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अच्छी लेखनी, आपने विश्लेषणात्मक अध्ययन शैली से भी परिचित करवा दिया।
शुक्रिया आपका