फिल्म रिव्यू

सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू

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भारतीय सिनेमा के इतिहास में कुछ ही कलाकृतियाँ ऐसी होती हैं जो महज मनोरंजन की क्षणभंगुरता से ऊपर उठकर, सांस्कृतिक नृवंशविज्ञान (Cultural Ethnography), आदिम मिथकों और सामाजिक-राजनीतिक विमर्श के एक गहन समागम को प्रस्तुत करती हैं। ‘कांतारा’ (2022) इसी विरली श्रेणी की एक अपारंपरिक कृति थी, जिसने मात्र ₹16 करोड़ के छोटे बजट पर एक ऐसा दैवीय चमत्कार कर दिखाया, जिसने वैश्विक सिनेमाई परिदृश्य को हिला कर रख दिया। फ़िल्म की सफलता का मूलभूत कारण हॉलीवुडियाई चमक-दमक या बॉलीवुडियाई फ़ॉर्मूला नहीं था, बल्कि धरती से जुड़ी हुई, शुद्ध और अपरिष्कृत भारतीय आस्था में निहित था- वह आस्था जहाँ देव और मानव का संबंध किसी तार्किक या वैज्ञानिक विश्लेषण का मोहताज न होकर, अटूट, सहज और भावनात्मक विश्वास पर आधारित होता है। इस फ़िल्म ने न केवल हिंदी पट्टी में ₹100 करोड़ से अधिक का अभूतपूर्व कारोबार किया, बल्कि कर्नाटक के तटीय क्षेत्र की भूता कोला जैसी रहस्यमयी लोक-प्रथाओं और वराह (विष्णु) के अवतार से जुड़ी दंतकथाओं को परदे पर इस प्रकार जीवंत किया कि दर्शकों को उनकी मूल पहचान और जड़ों की ओर लौटने के लिए विवश होना पड़ा।

ऋषभ शेट्टी, जिन्होंने फ़िल्म के लेखक, निर्देशक और नायक की त्रिवेणी भूमिका का निर्वहन किया, उन्होंने अपने असाधारण समर्पण और अखंडनीय दृष्टि से सिनेमाघरों को क्षण भर के लिए एक जागृत, ऊर्जावान मंदिर में रूपांतरित कर दिया। उनका निभाया गया चरम दृश्य (क्लाइमेक्स) भारतीय सिनेमा के इतिहास में एक्स्ट्राऑर्डिनरी की श्रेणी में अमर हो गया, जिसने दैवीय शक्ति के साक्षात् अवतरण का अनुभव परदे पर उतारा और दर्शकों को भावविभोर होकर सिर झुकाने तथा हाथ जोड़ने पर मजबूर कर दिया। वह क्षण केवल मार-धाड़ या अभिनय का प्रदर्शन नहीं था, बल्कि अतिमानवीय समर्पण और अखंड आस्था का उद्घोष था।

सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू
सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू

अब, उसी शृंखला की अगली कड़ी जो वास्तव में कालानुक्रमिक रूप से पहले की कहानी यानी पूर्वकथा (प्रीक्वल) है “कांताराः अ लेजेंड – चैप्टर 1” के रूप में अवतरित हुई है। मूल फ़िल्म की अभूतपूर्व सफलता और सांस्कृतिक प्रभाव के बाद, इस बार फ़िल्म ₹125 करोड़ के विशालकाय कैनवास और अभूतपूर्व तकनीकी दक्षता के साथ रची गई है। दर्शकों की अपेक्षाएँ बॉक्स ऑफिस पर एक हज़ार करोड़ के स्तर को छू रही थीं, यह एक विराट चुनौती थी। फ़िल्म ने इस चुनौती को न केवल स्वीकार किया, बल्कि अपनी कलात्मक ऊँचाई, गहन दार्शनिक विमर्श और सांस्कृतिक प्रमाणिकता के माध्यम से सिनेमा की परिभाषा को एक नवीन, अभूतपूर्व स्तर पर पहुँचाया है। यह केवल एक फ़िल्म नहीं है, यह भारतीयता के मूल तत्त्वों का एक महाकाव्यात्मक, गहन और विस्तृत पुनर्दर्शन है।

कांतारा की सफलता और ‘चैप्टर 1’ की तकनीकी एवं आर्थिक कसौटी

मूल ‘कांतारा’ (2022) की सफलता का मूल आधार उसका शुद्ध, अपरिष्कृत भारतीय सिनेमा होना था, जिसने स्थानीय कहानियों को वैश्विक दर्शकों के लिए सुलभ बनाया। फ़िल्म ने यह स्थापित किया कि किसी क्षेत्र के क्षेत्रपाल या देवता (पाणदुरली/वराह), आवश्यकता पड़ने पर अपने भक्तों की रक्षा के लिए कैसे तत्पर होते हैं। यह दैवीय सुरक्षा की भावना दर्शकों को गहराई तक छू गई। फ़िल्म ने हिंदी फ़िल्म उद्योग के उस दौर को आईना दिखाया, जहाँ शहरी अभिजात्य वर्ग द्वारा रचित कहानियाँ दर्शकों से दूर हो रही थीं। ‘कांतारा’ की सफलता ने सिद्ध किया कि दर्शक केवल सतही मनोरंजन नहीं, बल्कि गहन धार्मिक-सामाजिक मान्यताओं और असली भारत की कहानियाँ देखना चाहते हैं।

इसी विशाल विरासत के दबाव में, ‘कांतारा चैप्टर 1’ का ₹125 करोड़ का बजट एक उच्च जोखिम वाला महत्त्वाकांक्षी दाँव था। फ़िल्म ने इस आर्थिक कसौटी को सीधे स्वीकार किया। रिलीज़ के मात्र तीन दिनों में फ़िल्म ने अपने बजट से दो गुनी कमाई का आँकड़ा छूकर सभी संदेहों को निर्मूल सिद्ध किया। फ़िल्म की यह सफलता केवल एक भाषा या राज्य तक सीमित नहीं रही, इसने पैन-इंडिया शब्द को उसके सही मायने में परिभाषित किया। यह विशाल ख़र्चा फ़िल्म के उत्कृष्ट प्रोडक्शन मूल्य (Production Quality), विराट एक्शन सेट पीस और वीएफएक्स (विज़ुअल इफ़ेक्ट्स) पर स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। फ़िल्म का विश्व-निर्माण (World Building) पिछली फ़िल्म से अधिक व्यापक हो गया है, जिसमें अब एक गाँव नहीं, बल्कि एक ही भौगोलिक क्षेत्र की तीन अलग सोसाइटीज़ के बीच संघर्ष को दर्शाया गया है।

सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू
सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू

इस अभूतपूर्व सफलता ने फ़िल्म उद्योग के भीतर एक व्यापक राजनीतिक हलचल भी मचा दी। ऋषभ शेट्टी जैसा बहु-प्रतिभाशाली कलाकार, जो छोटे बजट से लेकर विशाल बजट तक लगातार सर्वोत्कृष्ट सिनेमा दे रहा है, वह स्थापित फ़िल्म-मेकिंग व्यवस्था के लिए एक बड़ा ख़तरा बन चुका है। फ़िल्म को नीचा दिखाने के लिए जबरदस्ती बॉयकॉट, फ़र्ज़ी समीक्षाएँ और चरम दृश्य को रिकॉर्ड करके वायरल करने जैसे ओछे प्रयास किए गए। यह विरोध वास्तव में वंशवादी कला पर प्रतिभा और समर्पण की जीत को रोकने का प्रयास था। फ़िल्म की सफलता ने यह सिद्ध किया कि ‘अब राजा का बेटा राजा नहीं बनेगा।’

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प्राचीन काल से नव-उदारीकरण तक: सत्ता, आदिवासी और लालच का जटिल राजनीतिक-आर्थिक विमर्श

‘कांतारा चैप्टर 1’ की कहानी, मूल फ़िल्म से कालक्रम में पहले की होते हुए भी, एक गहन राजनीतिक और दार्शनिक विमर्श प्रस्तुत करती है। फ़िल्म की कहानी प्राचीन भारत के उस दौर से शुरू होती है, जहाँ कदंब वंश के एक आततायी शासक की असीमित सत्ता-पिपासा और अहंकार न केवल भूमि, बल्कि कांतारा की दैवीय और अलौकिक दुनिया पर भी कब्ज़ा करने की ओर प्रेरित होती है।

कथानक का केंद्रीय संघर्ष एक राजा के साम्राज्य, कांतारा के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों (जिनका भूमि पर पहला और आदिम हक़ है) और व्यापार के लिए महत्त्वपूर्ण एक बंदरगाह (‘ईश्वर का मधुबन’) के बीच है। राजा का अहंकार और उसका बनाया गया भेदभावपूर्ण नियम (जिसके तहत कांतारा के लोग दरबार में नहीं आ सकते थे) सामंतवादी व्यवस्था और अत्याचारी शासन का प्रतीक है। यह शासन मानवता और नैतिकता की सीमाओं को चुनौती देता है और अपनी महत्त्वाकांक्षा से प्राकृतिक और आध्यात्मिक संतुलन को भंग करता है।

यह संघर्ष केवल एक ऐतिहासिक घटना नहीं है, बल्कि प्राचीन राजनीति के सिद्धांतों को आधुनिक और नव-उदारीकरण के विमर्श से जोड़ता है। फ़िल्म सूक्ष्मता से दर्शाती है कि संसाधनों पर कब्ज़ा करने का विचार कैसे पीढ़ी दर पीढ़ी बदलता रहा है। राजा का लालच, जो शुरू में केवल भूमि पर कब्ज़े के रूप में प्रकट होता है, वह दशकों बाद कहानी के अग्र भाग में व्यापार, बंदरगाह और आर्थिक शक्ति के अधिग्रहण में रूपांतरित हो जाता है।

सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू
सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू

यह रूपांतरण, कहानी को एक ऐसे निर्णायक मोड़ पर लाता है, जहाँ हम आधुनिक नव-उदारीकरण (Neo-Liberalisation) के विमर्श को देखते हैं। भारत में उदारीकरण (Liberalisation) के बाद, जब अर्थव्यवस्था को वैश्विक बाज़ार के लिए खोला गया, तो भूमि, खनिज और प्राकृतिक संसाधनों पर कॉर्पोरेट लालच और अतिक्रमण की घटनाएँ तेज़ी से बढ़ीं। फ़िल्म की कथावस्तु, अपनी पूर्वकथा के माध्यम से, इस आधुनिक विस्थापन और संघर्ष की मूल वैचारिक नींव को दर्शाती है कि कैसे ‘विकास’, ‘आर्थिक उन्नति’ और ‘राष्ट्रीय हित’ जैसे तर्कों के नाम पर आदिवासी समुदायों को उनकी भूमि और पारिस्थितिकी (Ecology) से विस्थापित किया जाता है। राजा और उसके वंशज जो शुरूआती अत्याचारी शासक थे, वे बाद में भू-माफ़िया, वन अधिकारी, या संसाधन हड़पने वाले आधुनिक शक्ति केंद्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

इस प्रकार, ‘कांतारा चैप्टर 1’ एक गहन राजनीतिक और सामाजिक रूप से संवेदनशील बयान देती है कि मानव का लालच और सत्ता-पिपासा प्राचीन काल से लेकर नव-उदारीकरण के वर्तमान युग तक एक ही है, सिर्फ़ उसके रूप, उसके औज़ार और उसे सही ठहराने के तर्कशास्त्र (Logic) बदल गए हैं। यह फ़िल्म अमीर-गरीब, शांति-क्रोध, सभ्यता-जंगल जैसे द्वंद्वों को संवेदनशील और रोमांचकारी अंदाज में सामने लाती है, जो भूमि पर पहला हक़ किसका है, इस मौलिक प्रश्न को दर्शकों के सामने रखती है।

पात्रों का द्वंद्व और क्रिया-प्रतिक्रिया का दार्शनिक आधार

फ़िल्म का कथानक बेड़मे (ऋषभ शेट्टी), राजा/गुलशन दैवय्या और राजकुमारी कनकवती (रुक्मिणी वसंत) के बीच के द्वंद्व पर केंद्रित है। बेड़मे वह युवक है जो जंगल के नियमों और अपनी आस्था पर दृढ़ है, परंतु आदिवासी कबीले के उत्थान के लिए व्यापारिक बंदरगाह पर कब्ज़ा करना चाहता है। राजा/गुलशन दैवय्या अहंकार और लालच में वह कार्य करता है, जो उसे नहीं करना चाहिए और यहीं से दैवीय हस्तक्षेप की आवश्यकता उत्पन्न होती है। राजकुमारी कनकवती का किरदार न केवल सौंदर्य और बुद्धि का संगम है, बल्कि एक अप्रत्याशित ट्विस्ट के साथ कहानी को एक निर्णायक मोड़ देती है, जो यह सिद्ध करता है कि वह सिर्फ़ दर्शनीय वस्तु नहीं, बल्कि संघर्ष को दिशा देने वाली शक्ति है।

कहानी का दार्शनिक आधार वैज्ञानिक सिद्धांत ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ पर टिका है। फ़िल्म का केंद्रीय विचार है कि कुदरत सो रही है, उसे जगाओगे तो तबाही लाओगे। कहानी दिखाती है कि जब इंसानी लालच, नियंत्रण और भेदभाव (जो समाज को विभिन्न वर्गों में विभाजित करता है) प्रकृति के नियमों को तोड़कर हद से आगे बढ़ जाता है, तो सोई हुई शक्ति जाग उठती है और मानव के अहंकार पर तांडव करती है। कहानी में ब्रह्म राक्षस का ज़िक्र है और यह धीरे-धीरे रहस्य खोलती है कि देव और राक्षस से पहले मानव का लालच ही इस विनाश को जन्म देता है।

फ़िल्म एक अत्यधिक अप्रत्याशित सिनेमा है। इसकी सबसे बड़ी शक्ति यह है कि इसका मुख्य खलनायक कौन है, यह पता चलने पर भी दर्शकों को विश्वास नहीं होता। ट्रेलर में दिखाए गए सर्वोत्तम दृश्य फ़िल्म का सिर्फ़ 1% हिस्सा हैं। यह केवल मार-धाड़ या अलौकिक अनुभव नहीं है, बल्कि एक गहन रोमांचक (सस्पेंस थ्रिलर) मोड़ भी प्रस्तुत करती है। फ़िल्म का अंत जिस निर्णायक मोड़ पर होता है, वह इसी राजनीति, आस्था और लालच के चरम पर पहुँचने के बाद होता है, जहाँ दैवीय हस्तक्षेप की आवश्यकता उत्पन्न होती है। फ़िल्म में शिव तांडव के दृश्यों का समावेश होता है, जो मानव के खुद को भगवान बनने के घमंड पर नाचता है। यह अंत केवल संघर्ष का समापन नहीं है, बल्कि एक और शक्ति के आगमन का वादा है जिसके लिए भारतीय सिनेमा तैयार नहीं है।

सिनेमा के जंगल में “कांतारा चैप्टर 1” का दोगुना रोमांच- नॉट अ फ़िल्म रिव्यू
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कलात्मक और तकनीकी उत्कर्ष का विस्तार: समर्पण और दृष्टि की प्रमाणिकता

ऋषभ शेट्टी का कार्य इस फ़िल्म में एक विराट, अविस्मरणीय स्तर पर है। उनके अभिनय का समर्पण अप्रतिम है। उनकी देसी शारीरिक संरचना और हाथों का दम उस चरित्र को वास्तविक शक्ति प्रदान करते हैं। उनके चरम दृश्यों में शरीर का तोड़ना-मरोड़ना यह सिद्ध करता है कि वह उस पात्र को केवल निभा नहीं रहे, बल्कि जी रहे हैं और यह प्रदर्शन राष्ट्रीय पुरस्कार का प्रबल दावेदार है। निर्देशक के रूप में उन्होंने प्रकृति के चार तत्त्वों- अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी का शानदार उपयोग अपने फ़िल्म-निर्माण में किया है।

संगीत (बी. अजनीश लोकनाथ): फ़िल्म का पृष्ठभूमि संगीत इसकी सबसे बड़ी मज़बूती है। यह न केवल माटी की धुनें लिए है, बल्कि समकालीन और भविष्यवादी तत्वों से युक्त है। यह संगीत केवल दृश्यों के साथ नहीं चलता, बल्कि भावनाओं का एक जीवंत स्वर बन जाता है। सिनेमैटोग्राफी (अरविंद एस. कश्यप): उन्होंने असंभव लगने वाले दृश्यों के बीच भी अपने कैमरे को साधा है। उनका कैमरा वर्क, रौद्र रस, भक्ति रस, वीर रस और श्रृंगार रस को कई गुना प्रभावशाली बना देता है। एक्शन कोरियोग्राफी: राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता विक्रम मोर द्वारा कोरियोग्राफ किए गए एक्शन सीक्वेंस इतने आविष्कारशील हैं कि वे भारतीय सिनेमा को एक नया मानक प्रदान करते हैं। इंटरवल से ठीक पहले का टाइगर सीक्वेंस अद्वितीय है।

अन्य कलाकार: राजशेखर के रूप में गुलशन देवैया अपनी विशिष्ट शैली से कहानी को मजबूती देते हैं, और विजयेंद्र की भूमिका में जयराम सुब्रमण्यम अपने अनुभव और गहराई से किरदार को प्रामाणिक बना देते हैं। फ़िल्म के चरम दृश्य में दृश्य और संगीत का तालमेल इतना जादुई है कि पूरे थिएटर से हाथ जुड़वा दिए।

संतुलन, आलोचना और अंतिम आध्यात्मिक मोक्ष

कोई भी फ़िल्म त्रुटिरहित (Flawless) नहीं होती। ‘कांतारा चैप्टर 1’ की लगभग तीन घंटे की लंबाई कुछ दृश्यों के संपादन की गुंजाइश छोड़ती है। वीएफएक्स (VFX) के संदर्भ में, चरम दृश्य में आने वाला विशालकाय जीव साफ़-साफ़ कम्प्यूटर जनित बिंब (CGI) लगता है, जो दर्शकों के विश्वास को एक क्षण के लिए खंडित करता है।

इन छोटी-मोटी कमियों के बावजूद, फ़िल्म का चरम दृश्य इतना अद्वितीय और भावनात्मक है कि सभी आलोचनाएँ फीकी पड़ जाती हैं। ‘कांतारा चैप्टर 1’ सिर्फ़ एक आध्यात्मिक फ़िल्म नहीं बल्कि आध्यात्मिकता की पूरी दुनिया है। यह तर्क (Logic) नहीं, जादू (Magic) है। यह फ़िल्म केवल दर्शकों का मनोरंजन नहीं करती, बल्कि उन्हें उनकी संस्कृति, धर्म और मूल से जुड़ने के लिए विवश कर देती है। यह एक ऐसी विरली कृति है जो एक्शन, भावनात्मकता,और असाधारण चरम दृश्य का ऐसा मिश्रण है कि दर्शकों को सिर झुकाने पर मजबूर कर देती है। यह केवल एक सिनेमाई अनुभव नहीं, बल्कि आध्यात्मिक मोक्ष की ओर ले जाती एक भव्य यात्रा है।

इसे फ़िल्म समीक्षा न समझकर एक लेख के रूप में पढ़ा जाए। इसलिए ही ऐसी फ़िल्मों को रेटिंग देना उचित नहीं।

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