रिव्यू- ‘द बंगाल फाइल्स’ इतिहास की सच्चाई या राजनीतिक प्रोपेगंडा?

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हालिया रिलीज फ़िल्म ‘द बंगाल फाइल्स’ के दो संवाद इसकी पूरी कहानी बयां करते हैं। पहला संवाद- ‘बापू हम ऐसी आज़ादी की लड़ाई क्यों लड़ रहे हैं जिसमें इतने लोग मर रहे हों? ताकि आज़ादी के बाद फिर कोई मारा न जाए।’ इसकी क्या गारंटी है? ‘हमारी अपनी डेमोक्रेसी होगी। हमारे मौलिक अधिकार होंगे, कोई भेदभाव नहीं होगा। हमारी चुनी हुई सरकार इसकी जिम्मेदारी लेगी नहीं ले पाई तो? न्याय व्यवस्था। न्याय तुम्हारा अधिकार होगा। अगर ये सब नहीं हुआ तो? इतना निराशावादी होना ठीक नहीं बेटा।’

दूसरा संवाद- ‘जब ये इलीगल इमिग्रेंट्स 10 पर्सेंट हो जाते हैं तो ये वोट बैंक बन जाते हैं, जब ये 20 पर्सेंट होते ही ये अपने राइट्स की बात करते हैं और 30 पर्सेंट होते ही नई कंट्री की डिमांड करने लगते हैं।’ ये दो दृश्य ही फ़िल्म की पूरी तासीर बता देते हैं कि फ़िल्म किस एजेंडे की ओर झुकी हुई है। फ़िल्म के पहले ही सीन में महात्मा गांधी से जब एक लड़की सवाल पूछती है तो लगता है कि यह फ़िल्म न्याय की राह पर चलेगी, लेकिन क्या विवेक अग्निहोत्री निर्देशित यह फ़िल्म ‘द बंगाल फाइल्स’ (The Bengal Files) सच में न्याय करती है?
इतिहास और वर्तमान का टकराव- ‘द बंगाल फाइल्स’ भारतीय सिनेमा की उन चुनिंदा फ़िल्मों में से एक है, जो ऐतिहासिक सच्चाइयों और सामाजिक विसंगतियों को पर्दे पर उजागर करने का दुस्साहसिक प्रयास करती है। डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री की यह फ़िल्म विशेष रूप से भारत-पाकिस्तान विभाजन से पहले कोलकाता में हुए भयानक साम्प्रदायिक दंगों, डायरेक्ट एक्शन डे, को केंद्र में रखती है। यह सिर्फ एक ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं, बल्कि वर्तमान भारतीय समाज के गहरे सामाजिक-सांस्कृतिक संकट को भी दर्शाने का माध्यम बनती है। जिस तरह से फ़िल्म में इतिहास और वर्तमान को परस्पर जोड़कर प्रस्तुत किया गया है, वह दर्शकों को गहरे विचार में डाल देता है।

फ़िल्म की कहानी दो समय-रेखाओं पर आधारित है। एक तरफ 1946 के विभाजन से पूर्व का समय, जिसमें कोलकाता में साम्प्रदायिक हिंसा की भयावह घटनाएँ घटती हैं। दूसरी तरफ वर्तमान का समय है, जहाँ पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में एक दलित लड़की के अपहरण का केस उजागर होता है। यह द्वैत फ़िल्म को न केवल ऐतिहासिक, बल्कि सामाजिक और राजनीतिक परिप्रेक्ष्य से भी प्रभावी बनाता है। फ़िल्म में गांधी-जिन्ना संवाद के माध्यम से विभाजन के ऐतिहासिक कारणों और उसके प्रभावों को समझाने का प्रयास किया गया है, जो दर्शकों को उस समय की जटिल राजनीतिक परिस्थितियों से परिचित कराता है।
पटकथा और सामाजिक संदेश
फ़िल्म की पटकथा तथ्यों पर आधारित होने का दावा करती है और संवेदनशील मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करती है। यह दर्शाती है कि कैसे राजनीतिक स्वार्थ और सांप्रदायिक उन्माद ने भारतीय समाज को विभाजित किया। विवेक अग्निहोत्री ने ऐतिहासिक तथ्यों को वर्तमान की सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं के साथ जोड़कर एक सराहनीय काम किया है। इस मिश्रण से यह स्पष्ट होता है कि इतिहास केवल बीते कल की कहानी नहीं, बल्कि इसका प्रभाव आज भी समाज पर गहरा पड़ता है। फ़िल्म का सबसे बड़ा आकर्षण इसका सामाजिक संदेश है, जो जातिवाद, साम्प्रदायिकता, दलित उत्पीड़न और राजनीतिक भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों को उजागर करता है। फ़िल्म में दलित लड़की के अपहरण और उसके बाद की घटनाएँ इस बात का प्रतीक हैं कि किस प्रकार सत्ता का दुरुपयोग कर सामाजिक न्याय को कुचला जाता है। यह फ़िल्म यह भी दिखाती है कि हाशिए पर रहने वाले लोग किस प्रकार लगातार शोषित होते रहते हैं और उनकी आवाज़ दबा दी जाती है। इस दृष्टि से फ़िल्म केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि एक सशक्त सामाजिक दस्तावेज बनकर उभरती है, जो हर नागरिक को विचार करने पर मजबूर करती है।

अभिनय का मूल्यांकन
पल्लवी जोशी और सिमरत कौर ने मां भारती की भूमिका में अत्यंत प्रभावशाली और संवेदनशील प्रदर्शन किया है। दोनों कलाकारों ने अपने पात्रों की भावनात्मक गहराई को इतनी सजीवता से प्रस्तुत किया कि दर्शक उनकी पीड़ा, संघर्ष और आशा को महसूस कर लेते हैं। विशेष रूप से सिमरत कौर का एक दलित लड़की के रूप में प्रदर्शन अत्यंत प्रभावशाली है, जिसने दलित समाज की पीड़ा को पर्दे पर प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया। वहीं, शाश्वत चटर्जी का खलनायक के रूप में अभिनय दर्शकों के मन में एक भयानक छवि छोड़ता है। उनका किरदार समाज में व्याप्त हिंसा, लालच और क्रूरता का प्रतीक है। अनुपम खेर द्वारा निभाया गया गांधी जी का पात्र अपेक्षाकृत औसत प्रतीत होता है। उनके अभिनय में वह गहराई नहीं थी, जो इस ऐतिहासिक चरित्र से अपेक्षित थी। दूसरी ओर, मिथुन चक्रवर्ती और नमाशी चक्रवर्ती ने अपने-अपने किरदारों में स्वाभाविकता, संतुलन और दमखम का समावेश किया। दर्शन कुमार और एकलव्य सूद ने भी अपनी भूमिकाओं के माध्यम से कहानी में आवश्यक संतुलन बनाए रखा।

निर्देशन और तकनीकी पक्ष
निर्देशन की दृष्टि से विवेक अग्निहोत्री ने एक साहसिक प्रयास किया है। उन्होंने बड़े पैमाने पर ऐतिहासिक घटनाओं को पर्दे पर उतारने की कोशिश की है, ताकि दर्शक उस समय की सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति को समझ सकें। फिर भी, फ़िल्म की लंबाई (लगभग 204 मिनट) इसे देखना एक चुनौती बनाती है। कई दृश्य अत्यधिक विस्तार में चले गए हैं, जिससे फ़िल्म की गति धीमी हो गई है। कुछ दृश्य अत्यधिक वीभत्स और ग्राफिक हैं, जो कहानी की सच्चाई को प्रभावशाली ढंग से उजागर करते हैं, लेकिन दर्शकों के लिए असहज भी बन सकते हैं। प्रोडक्शन डिज़ाइन और सिनेमैटोग्राफी की गुणवत्ता उल्लेखनीय है। विशेष रूप से ऐतिहासिक घटनाओं को प्रस्तुत करने में सिनेमैटोग्राफर ने प्रामाणिकता बनाए रखी है। हर दृश्य का परिदृश्य, पात्रों की वेशभूषा, और सेट डिज़ाइन दर्शकों को उस समय में ले जाने में सक्षम हैं। फ़िल्म तकनीकी दृष्टि से एक उच्च दर्जे का प्रयास लगती है। यद्यपि पटकथा में थोड़ा फैलाव नज़र आता है, जिससे कहानी की सस्पेंस भरी प्रकृति कमजोर पड़ जाती है, फिर भी फ़िल्म के हर पात्र और घटना का आपसी संबंध प्रभावशाली ढंग से चित्रित किया गया है।
संगीत और संवाद
संगीत और बैकग्राउंड स्कोर के मामले में फ़िल्म की भावनात्मक गहराई को और अधिक बढ़ाया जा सकता था। पारंपरिक गीतों की अनुपस्थिति एक महत्वपूर्ण कमी के रूप में देखी जा सकती है। इसके बावजूद, प्रयोग किया गया बैकग्राउंड स्कोर तनावपूर्ण, भयावह और संवेदनशील माहौल को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करता है, जो कि फ़िल्म का एक मजबूत पक्ष है। बैकग्राउंड म्यूजिक दृश्य के अनुसार भावनाओं का प्रवाह बनाए रखता है और दर्शकों को कहानी में पूरी तरह से खींच लेता है। फ़िल्म के दृश्य संवाद अत्यंत प्रभावशाली हैं, जो न केवल पात्रों के मनोभावों को दर्शाते हैं, बल्कि सामाजिक समस्याओं की तरफ भी ध्यान खींचते हैं। संवादों का चयन और उनकी प्रस्तुति इस बात की पुष्टि करती है कि फ़िल्म केवल कहानी कहने का माध्यम नहीं, बल्कि समाज को सशक्त संदेश देने का माध्यम भी बनती है।
फ़िल्म की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उसने ऐतिहासिक और सामाजिक सच्चाई को पूरी निष्ठा के साथ प्रस्तुत किया है। इसमें किसी प्रकार का अतिशयोक्ति या विकृत प्रस्तुति नहीं की गई है। हर घटना, पात्र और संवाद अपने आप में यथार्थ और संवेदनशीलता का परिचायक बनते हैं। इस दृष्टि से यह फ़िल्म इतिहासकारों, समाजशास्त्रियों, छात्रों और सामान्य दर्शकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बन जाती है। इसमें प्रस्तुत तथ्यों की गहराई और विस्तृत शोधकार्य स्पष्ट दिखता है। साथ ही, यह फ़िल्म वर्तमान भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर भी एक तीखा प्रहार करती है। भारत में दलित उत्पीड़न, सांप्रदायिक हिंसा, राजनीतिक भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग को इस फ़िल्म में प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया गया है। यह फ़िल्म दर्शकों को केवल देखने नहीं, बल्कि सोचने पर मजबूर करती है कि देश के सामाजिक ढांचे में किस प्रकार असमानताएँ व्याप्त हैं और उनका समाधान कैसे किया जा सकता है।
कुलमिलाकर, ‘द बंगाल फाइल्स’ एक साहसिक प्रयास है, जो ऐतिहासिक तथ्यों के साथ संवेदनशील सामाजिक मुद्दों को बड़े पर्दे पर उजागर करता है। यह फ़िल्म ऐतिहासिक घटनाओं के महत्व को पुनः याद दिलाती है और यह सोचने पर मजबूर करती है कि इतिहास केवल बीता हुआ समय नहीं, बल्कि आज भी समाज पर गहरा प्रभाव डालता है। फ़िल्म के सकारात्मक पक्षों में इसकी गहराई, संवेदनशीलता, ऐतिहासिक सत्यता, प्रभावशाली अभिनय, तकनीकी गुणवत्ता और सामाजिक संदेश शामिल हैं। वहीं इसकी लंबाई, कुछ दृश्य विसंगतियाँ और औसत अभिनय इसके कमजोर पक्ष हैं।
अगर दर्शक ऐतिहासिक घटनाओं की गहराई में जाना चाहते हैं, दलित उत्पीड़न और सामाजिक असमानताओं की सच्चाई समझना चाहते हैं, और वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक परिप्रेक्ष्य को जानने की जिज्ञासा रखते हैं, तो ‘द बंगाल फाइल्स’ अवश्य देखनी चाहिए। यह फ़िल्म केवल एक सिनेमा नहीं, बल्कि समाज को जागरूक करने और इतिहास के साथ-साथ वर्तमान के ज्वलंत सवालों पर सोचने का एक सशक्त माध्यम बनकर उभरती है।
अपनी रेटिंग: 3.5 स्टार