रिव्यू- प्रेम कथा का सागर है ‘ढाई आख़र’
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प्रेमहीन और बेमेल शादी की पीड़ा को औरतें अक्सर चुपचाप सहन करती रहती हैं। कभी परिवार के दबाव में तो कभी समाज की तरफ़ से, यह अनैतिक और अमानवीय है। विवाह को समाज ने बनाया है और प्रेम को प्रकृति ने बनाया है। सिर्फ़ प्रेम ही आदमी और औरत के रिश्ते की बुनियाद है। जब आदमी असभ्य होने लगा तो उसने विवाह जैसी संस्था बना दी। मर्द जैसे-जैसे बड़े होते जाते हैं हिंसक क्यों होते जाते हैं? ये कुछ डायलॉग है- 22 नवम्बर को रिलीज होने जा रही फ़िल्म ‘ढाई आख़र’ के।
औरत ने जब-जब प्रेम किया और जब-जब सामाजिक बंधनों की दीवारों को लांघने का काम किया तब-तब पितृसत्तात्मक समाज ने उसे भरपूर रोकने की कोशिशें की। फिर प्रेम कभी बंधनों में कब बंध पाया है? वह तो उन्मुक्त गगन में विचरण करता है हवा में तैरती उस ख़ुशबू कि भांति आज़ाद होकर जिसे किसी की परवाह कभी नहीं रही। प्रेम के सागर की गहराई को अरब सागर में डौलते पानी की भांति मापा भी नहीं जा सकता। कबीर ने भी कहा है- पोथी पढ़ी-पढ़ी जग मुआ, पंडित भाया न कोई। ढाई आख़र प्रेम का पढ़े सो पंडित होय। तो इस बात को गाहे-बगाहे हमारे हिंदी पट्टी के सिनेमा में काफ़ी इस्तेमाल किया गया। वहीं पिछले कुछ वर्षों से जिन साहित्यिक फ़िल्मों का अभाव सा हिंदी पट्टी के सिनेमा में हो चला था उसे अमरीक सिंह दीप के लिखे उपन्यास ‘तीर्थाटन के बाद’ पर बनी यह फ़िल्म ‘ढाई आख़र’ भरती है और भरपूर तरीके से।
अधेड़ उम्र हो चली एक माँ जिसे कभी पढ़ने का शौक था। बाप के मरने के बाद वह जल्द ही ब्याह दी गई तो पति मिला भी तो पितृसत्तात्मक समाज की रूढ़ियों को ढोने वाला। जिसे लगता है कि बीवी रात में अपने शौहर की वेश्या होती है और दिन में उसकी गुलाम। अपने पति के अत्याचार से दिन रात कुढ़ती अपनी सास के विधवा होने के बाद जब छोटी बहू उसे पत्रिकाएं पढ़ने को देती है तो उसकी सास जो एक अनजान पुरुष को बिन चाहे उसकी पत्नी बनकर रहने और उसका अंश धारण करने को पाप मानती रही, से उसे मुक्ति मिलती जाती है फिर एक दिन जब हंस पत्रिका में छपी एक कहानी उसे अपनी सी लगती है। तो यहीं से लेखक और उस सास के खतों का भी क्रम शुरू होता है जो अंत तक आते-आते प्रेम के सागर में तब्दील हो जाता है। यहाँ आकर फ़िल्म उस दौर को भी दिखाती है जब चिट्ठियों के लिखने का दौर अपने चरम पर था। क्या था उन चिठ्ठियों में? और यह सिलसिला कितना आगे बढ़ा? क्या उनका यह प्रेम जिंदा रहा? जैसे कई सवालों के जवाब आपको इस फ़िल्म को देखने से ही मिलेंगे।
एक साथ कई दौर को जीने वाली ऐसी फ़िल्म बनाने वाले निर्माताओं की भी तारीफ अवश्य की जानी चाहिए। सिनेमाघरों में आ रही इस फ़िल्म को ओटीटी पर भी आना चाहिए और इसे अधिकाधिक देखा जाना चाहिए।
किन्तु इतना तो तय है कि ऐसी फ़िल्में साहित्यिक होने के साथ-साथ सिनेमा को उसके साथ से सार्थकता प्रदान करती हैं। ऐसी फ़िल्में महिलाओं को कम-से-कम महिला मानने और उसे जानने की पैरवी करती हैं। ऐसी फ़िल्में किसी तरह का उपदेश नहीं सुनाती किन्तु वह अपने विस्तृत कथा-विन्यास के चलते साहित्य के साथ-साथ सिनेमा के आकाश में वह मक़ाम जरूर बनाती हैं जिससे उन्हें लम्बे समय तक याद किया जाना चाहिए। विशुद्ध प्रेम के मायने सिखाती इस फ़िल्म में महिला अत्याचार, पारिवारिक संस्कार, पितृसत्तात्मक समाज का क्रूरतम चेहरा, रिश्तों के माने सब बेनक़ाब होते हैं। कई जगहों पर आपके चेहरे पर एक स्फिट मुस्कान बिखेरने वाली और कई जगहों पर आपकी आँखों को नम करने की क्षमता रखने वाली इस फ़िल्म को देखते हुए आपको 60-70 के दशक की फ़िल्मों की भी याद हो आये मुमकिन है।
बीते बरस अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल इफ्फी, गोवा में प्रदर्शित हुई और उसके बाद कई फ़िल्म समारोह में खूब तारीफें और इनाम बटोरने वाली इस फ़िल्म की चर्चा इसलिए भी होनी चाहिए कि यह फ़िल्म हिंदी साहित्य को परदे पर नए ढंग से उतारती है। अमरीक सिंह दीप के लिखे उपन्यास को पर्दे पर पटकथा और संवाद के रूप में ढाला है चर्चित कथाकार ‘असगर वजाहत’ ने। इरशाद-अमरीक और असगर वजाहत इन तीन नामचीन चेहरों का साथ जब किसी फ़िल्म को मिल जाए तो वह और खास हो उठती है।
मृणाल कुलकर्णी और हरीश खन्ना मंझे हुए कलाकार हैं। बावजूद इसके हरीश खन्ना किसी लेखक के किरदार में उतने रम नहीं पाए। तो वहीं मृणाल ने पूरी फ़िल्म को अपने अभिनय से ऊंचा बनाए रखा है। प्रसन्ना बिष्ट जंचती है। रोहित कोकाटे, चंदन आनंद, नीर राव, स्मृति मिश्रा, आदया अग्रवाल के औसत अभिनय से यह फ़िल्म कहीं-कहीं दबाव में भी दिखती है। तो उसे इरशाद कामिल के लिखे गीत ‘धूप की ओर’, अमीर खुसरो के लिखे ‘ए री सखी’ को कविता सेठ की आव़ाज में सुनना उस कमतर अभिनय के दर्द पर मरहम लगाता प्रतीत होता है। संदीप जीएन यादव के डीओपी, व्ही एस कन्नन, राहुल जायसवाल की एडिटिंग और प्रवीन अरोड़ा के निर्देशन से निकली इस खूबसूरत प्रेम कहानी को अवश्य ही देखा जाना चाहिए।