रिव्यू- ‘प्यार के दो नाम’ बेमतलब, बेकाम
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प्रेम प्यार के किस्से और कहानियाँ हमें हिंदी पट्टी वाले सिनेकार बहुत दिखा चुके हैं। वो भी अपने-अपने तरीके से लेकिन आज रिलीज हुई प्यार की यह कहानी दो जोड़ों की कहानी को अलग-अलग अंदाज में और नए ढंग से दिखाती है। गंगानगर वाला लेकर आया है ‘प्यार के दो नाम’ बेमतलब, बेकाम पढ़िए और फैसला कीजिए इसे देखना है या छोड़ना है।
रंग भेद आजादी और गुलामी के भेद को तो मंडेला और गांधी ने मिटा दिया अमीरी और गरीबी का भेद कौन मिटाएगा? अफ्रीका से अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में शांति पर होने वाले एक सेमिनार में नेल्सन मंडेला पर बोलने के लिए आया है आर्यन खन्ना, जो यूनिवर्सिटी पहुँचने से पहले ऐसी सोच रखता है वह कितना अच्छा लड़का होगा न? औरत के लिए प्यार एक हादसा है जो कभी भी किसी के भी साथ हो सकता है। यह कह रही है वो लड़की जिसे इसी सेमीनार में गांधी पर बोलना है। वजह है उसकी माँ का किसी से हुआ प्यार और बिन शादी के उसका पैदा होना इस वजह से ही वह चाहती है कि वह या तो अकेली रहे या फिर शादी करे तो किसी ऐसे मर्द से जो उसे पहली बार छुए और वही आखरी स्पर्श भी करे। इन दोनों की अपनी-अपनी फिलॉसफी है लड़का चाहता है बस हर औरत को जिसे वह पसंद करे उसे बिस्तर तक ले आये।
पर क्या वह ऐसा करने में कामयाब हुआ? क्या दो अलग-अलग फिलॉसफी रखने वाले ये कभी एक हो पाए? या यूँ ही एक दूसरे की फिलॉसफी परखने में रह गये? दूसरी तरफ एक और कहानी है इसी यूनिवर्सिटी में पढ़ने वाले दो दोस्त की। दोनों का धर्म अलग-अलग है लेकिन दो प्यार करने के बाद भी शादी को लेकर उलझे से हैं। उनकी अपनी अलग ही फिलॉसफी है। कायदे से ढाई घंटे लम्बी इस फिल्म में कई सारी फिलॉसफी देखने को मिलती है। गांधी और नेल्सन मंडेला के बहाने से एक ओर ही फिलॉसफी चल रही है।
इतनी सारी फिलॉसफी के चक्कर में बेचारे लेखक, निर्देशक दानिश जावेद ऐसे आप दर्शकों को घुमाते हुए स्क्रिप्ट की जलेबियाँ बनाते जाते हैं कि आप बस इसे एक टाइम पास फिल्म से ज्यादा कुछ नहीं पाते। इसके ख़त्म होने पर आप दर्शकों को ना तो अपनी टिकट के लगाये पैसे पूरी तरह वसूल होते हैं और ना ही आप पूरी तरह बोर होते हैं। फिर भी यह यह फिल्म कायदे से आपको बेमतलब और बेकार ही लगनी चाहिए। कोई ऐसी फिल्म भला क्यों देखने जाएगा जिसमें कलाकार किसी डेली सोप जैसा अभिनय कर रहे हैं। जिसमें एक गाने को छोड़ बाकी के गाने भी पूरा मनोरंजन नहीं दे पा रहे हैं। कोई ऐसी फिल्म भला क्यों देखना चाहेगा जिसमें स्क्रिप्ट की इतनी जलेबियाँ बनाई गईं हों की उसे ना तो आपसे खाते बनता है और ना देखते।
‘प्यार के दो नाम’ जैसी छोटे बजट वाली इन फिल्मों को छोटे शहरों के लोग ही अधिक सराह सकते हैं। या फिर वे जिनके पास कोई टाइमपास मसाला देखने का वक्त हो। एक्टिंग की तो आप ऐसी फिल्मों के डेली सोप वाले किरदारों से कोई उम्मीद भी ना पालिए तो बेहतर। नागिन, बेरिस्टर बहू, तारा सितारा, जैसे डेली सोप और ये तूने क्या किया, तेरा दीवाना जैसी नामालूम फिल्मों में काम करने वाले भव्या सचदेवा जैसे एक्टर के पास पर्दे पर अपने गठीले बदन को दिखाने के अलावा कुछ नहीं होता। आधी से ज्यादा फिल्म में वे बनावटी अभिनय करते नजर आये। कुछ ऐसा ही हाल बाकी किरदारों अंकिता साहू, अचल टंकवाल, दीप्ती मिश्रा और नमिता लाल का रहा है।
कैमरे खूबसूरती भी कुछ जगहों पर बिगड़ी है। एडिटिंग के काम में ढिलाई नजर आती है। वी.एफ़.एक्स ठीक ठाक तो बैकग्राउंड स्कोर फिल्म की थीम के मुताबिक़ ठहरता है। कम से कम जितनी फिलॉसफी पर्दे पर दिखाने में माथा-पच्ची इसके लेखक, निर्देशक ने की उतनी इसे बनाने में भी कर लेते तो यह अच्छी फिल्म हो सकती थी। फ़िलहाल तो यह प्यार को एक नए ढंग से देखने और छोटे शहरों के लड़के-लड़कियों के मतलब की होकर रह गई है। यह फिल्म ख़ास तौर से उनके काम की है जो लोग फ़िल्में देखने जाने के बहाने सिनेमाघरों में सबसे आखरी सीट बुक करते हैं और अपना काम करके लौट आते हैं।
अपनी रेटिंग – 2.5 स्टार
आपके निष्पक्ष रिव्यू की वजह से ही आपका सम्मान करते हे सर ✌️👍🙏🥰
शुक्रिया पढ़ते रहें
फ़िल्म निर्माता करे या ना करे ….कोई तो है जो अपना काम सही कर रहा है फिर वो चाहे नवयुवक दर्शक ही क्यों ना हो !!
सही समीक्षा !!!!
शुक्रिया आपका होना भी यही चाहिए