रिव्यू- छोटे से ख़्वाब की ‘चाह’ मन कहे वाह
पिछले दिनों जयपुर में आयोजित हुए 16वें इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में मात्र 10 मिनट की एक शॉर्ट ने दिल छू लिया था। आज गंगानगर वाला लेकर आया है उसी छोटी सी फ़िल्म का एक रिव्यू “छोटे से ख़्वाब की ‘चाह’ मन कहे वाह” इस फ़िल्म ने जितनी वाहवाही अब तक लूटी है जब यह रिलीज हो तो इसे देखिएगा आप भी कह उठेंगे वाह!
तो चलिए शुरू करते हैं रिव्यू- एक गरीब सा परिवार रहता है राजस्थान के टोंक गाँव में। परिवार के नाम पर पति-पत्नी और उनका एक लड़का। बाप गाँव में मजदूरी कर जैसे-तैसे घर चला रहा है और उनका लड़का दिन भर खेल-कूद में लगा रहता है। फिर एक दिन बाप ने कर्ज से तंग आकर शहर जाने की बात की साथ ही अपने बेटे को पढ़ाने की तो बेटे के मन में दबी एक छोटी से ख्वाहिश जाग उठी। उस नन्हें से बच्चे की आखों में वो ख़्वाब क्या थे यही इस फ़िल्म का सबसे अंतिम और खूबसूरत पल है।
शॉर्ट फ़िल्में जितनी मारक होती हैं उतना ही इनके इंडिपेंडेट डायरेक्टर्स तारीफें पाते हैं। ‘हंसराज आर्य’ के निर्देशन में बनी यह फ़िल्म जितनी मारक है उससे कहीं ज्यादा यह प्यारी बन पड़ी है। इतना की आप इसे बार-बार देखना चाहें। बतौर निर्देशक हंसराज इससे पहले कई गाने और कुछ शॉर्ट फ़िल्में भी प्रयोग के तौर पर बनाते रहे हैं। किन्तु इस बार उनकी बनाई इस फ़िल्म ने बेस्ट डेब्यू डायरेक्टर, बेस्ट एक्टर जैसे अवार्ड जीतने के साथ ही बोस्टन के इंडिया इंटरनेशनल डोक्युमेंट्री एंड शॉर्ट फ़िल्म फेस्टिवल में भी काफी सराहना बटोरी है।
सुनील बैरवा, हार्दिक सोनी, पूजा आर्य तीनों फ़िल्म के अहम किरदार मिलकर इस फ़िल्म को इतना प्यारा अहसास अपने अभिनय से दिलाते हैं कि आपका दिल चाहता है आप निर्देशक के साथ-साथ इन्हें भी उतना ही स्नेह दें जितना इन्होंने फ़िल्म से आप दर्शकों को दिया। ‘रिंकू कुमार मीना’ अपने यूनिवर्सिटी के दिनों से ही अपनी कैमरागिरी से सबका दिल जीतते आये हैं और इस फ़िल्म से उन्होंने अपने आप को पूरा साबित किया है कि वे एक बेहतरीन सिनेमैटोग्राफर भी हैं। अली का बैकग्राउंड म्यूजिक और आशीष मिश्रा का गाना दोनों आपकी आँखें नम करने के लिए काफी हैं।
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बतौर निर्देशक हंसराज ने इस फ़िल्म को एडिट भी बेहद करीने से किया है। यही वजह है कि मात्र दस मिनट की यह फ़िल्म आपको वो सबकुछ देती है जिसकी उम्मीद आपको एक अच्छी फ़िल्म से होती है। हालांकि इस फ़िल्म को देखते हुए एक सबसे बड़ी कमी यह भी नजर आती है कि इसे किसी क्षेत्रीय भाषा में क्यों नहीं फ़िल्माया गया। निर्देशक हंसराज ऐसा करते तो अपने इस मुगालते से बाहर आ सकते थे कि इसे हिंदी में रखने से उनकी ऑडियंस बढ़ जायेगी। बल्कि ऐसी फ़िल्में किसी रीजनल भाषा में जितना असर कर पाती हैं उतना हिंदी में कम। लेकिन क्या हमें इस बात के लिए फ़िल्म को और उसकी टीम को दाद नहीं देनी चाहिए कि छोटे से ख़्वाब पाले हुए इन लोगों ने सिनेमा के माध्यम से आपको वह दे दिया है जो प्यारा है। और जिसे देखकर आप बार-बार एक ही शब्द दोहराते हैं वाह! वाह! वाह!
अपनी रेटिंग ….. 4 स्टार