जवाहर कला केन्द्र में हुआ प्यार, साज़िश और हत्या का मामला दर्ज
जवाहर कला केन्द्र में हुआ प्यार, साज़िश और हत्या का मामला दर्ज। जी हाँ आज गंगानगर वाला बात करने आया है चर्चित अभिनेता इश्तियाक खान लिखित एवं निर्देशित नाटक के मंचन की।
तेजस पूनियां, जयपुर
अंग्रेज़ी साहित्य में नामचीन नाटककार विलियम शेक्सपीयर के लिखे नाटक ओथेलो के नाम से चर्चित रंगमंच के अभिनेता एवं लेखक, निर्देशक इश्तियाक खान ने अपने लिखे नाटक “द शैडो ऑफ ओथेलो” से न केवल जयपुर की रंगमंच दर्शक जनता को खूब हंसाया बल्कि साथ ही उन्होंने अपने इस चर्चित नाटक के मंचन से प्रयोगधर्मी रंगमंच का भी खूब परिचय दिया।
मौका था जवाहर कला केन्द्र में आयोजित छह दिवसीय नटराज रंगमंच महोत्सव का। रजा फाउंडेशन और एयू स्मॉल फाइनेंशियल बैंक की तरफ़ से प्रायोजित इस नटराज महोत्सव के दूसरे दिन चर्चित अभिनेता इश्तियाक खान के लिखे नाटक “द शैडो ऑफ ओथेलो” का मंचन किया गया। जवाहर कला केंद्र की सहभागिता में आयोजित छह दिवसीय नटराज महोत्सव में फोर्थ वॉल सोसाइटी के संयोजन से यह महोत्सव योगेन्द्र सिंह के निर्देशन में आयोजित किया जा रहा है।
कहते हैं प्रेम और जंग में सबकुछ जायज़ होता है लेकिन जब यही प्रेम साजिश के सहारे सत्ता के धोखे और फिर उससे उपजी उम्मीद के ईर्ष्या में बदलने की बात आती है तो समाज के हर वर्ग में यह सब भी छुपे रूप में नज़र आ ही जाता है। ओथेलो के बहाने शेक्सपीयर ने जिस जनता का चित्रण किया उसी जनता को भारतीय परिवेश में ग्रामीण क्षेत्रों के सहारे पिरोते हुए लेखक निर्देशक इश्तियाक खान ने आम ग्रामीण भारतीय जनमानस के अंतर्मन को भी सामने खोलकर रख दिया।
यह भी पढ़ें- मीडिया की स्वतन्त्रता और जनतन्त्र
“द शैडो ऑफ ओथेलो” देखते हुए महसूस होता है कि कैसे एक साथ शेक्सपीयर के ओथेलो और उसकी प्रति छाया को भारतीय ग्रामीण अंचल के पात्रों के सहारे कहानी कैसे खूबसूरती से चलाई जा सकती है। जिस तरह शेक्सपीयर के ओथेलो में राज सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के इरादे से प्रेम के सहारे धोखा, साज़िश, हत्या और षड्यंत्र चलते हैं उसकी एक झलक आज भी गांवों में देखी जा सकती है।
ओथेलो जैसे बड़े कैनवास वाले नाटक को भारतीय रंगमंच के मुताबिक ढालना आसान तो नहीं रहा होगा इसके निर्देशक लेखक के लिए परंतु प्रेक्षागृह में बेहद सहजता के साथ ओथेलो का विस्तृत कैनवास उभरकर सामने आता है। इश्तियाक ने बतौर निर्देशक जिस तरह इसे समकालीन भारतीय समाज और राजनीति से जोड़कर इसे आधुनिक रंग दिया है वह उनकी प्रयोगधर्मी रचनात्मकता को उजागर करता है।
कई चुटीले संवादों के साथ वर्तमान परिस्थितियों पर व्यंग्य भी यह नाटक करता है तो वहीं गंभीर नाटक होते हुए भी कई जगह हास्य प्रदान करता है। उदाहरण के तौर पर एक पात्र जब कहता है कि “विकास हुआ है।” तो दूसरा पात्र पूछता है “किसके घर” तो ऐसे संवाद जोर का ठहाका लगाने का भी अवसर देते हैं। यह नाटक जितना गम्भीर है उतना ही हास्य व्यंग्य के सहारे यह सहज और सरल भी दिखाई पड़ता है।
इश्तियाक़ खान खुद बतौर लेखक, निर्देशक के अलावा भी इस नाटक में भोले के किरदार को निभाते नजर आए। वहीं चंदन की भूमिका में विश्वनाथ चटर्जी अपने बेहतरीन प्रदर्शन से तारीफें बटोरने में कामयाब रहे। इश्तियाक खान लिखित निर्देशित इस नाटक में ओमकारा फिल्म के भी कुछ दृश्यों का इस्तेमाल सटीक जगह हुआ है। ओमकारा फिल्म भी जिस तरह ओथेलो का भारतीय रूपांतरण बनकर सामने आई थी उसी तरह यह नाटक भी ओमकारा और ओथेलो दोनों के मिश्रण से उभरकर सामने आता है।
यह भी पढ़ें- फ़िल्म समारोह में पुरुस्कृत फ़िल्मों की समीक्षाओं का असर
इश्तियाक लिखित इस नाटक की कहानी के केंद्र में उत्तर भारत के छोटे से गांव में रोजगार की तलाश में भटक रहे कुछ युवा हैं। जिनके समूह के कुछ लोग छोटा मोटा काम कर अपना जीवन गुजर कर रहे हैं। इस गांव के तमाम युवा ओमकारा फिल्म से बुरी तरह प्रभावित हैं। लिहाजा उनके दिमाग में एक बार फिर खुद से ऐसी ही फिल्म बनाने का ख्याल उपजता है। फिल्म के निर्माण में आने वाली कठिनाईयों को भांपकर ग्रुप का मेंबर भोला नाटक बनाने की राय देता है जिस पर सभी एकमत होते हैं।
और यहीं से फिर शुरू होता है प्रेम, ईर्ष्या, साज़िश, धोखे, सत्ता का खेल। जिसमें दिल्ली के निर्देशक ज्ञानेंद्र राज अंकुर को मदद के लिए राजी किया गया है। अंकुर पेशेवर कलाकारों के साथ काम करने के आदी हैं और उन्हें ग्रामीण इलाके की उस युवा पीढ़ी के कुछ लोगों के द्वारा खड़ी की गई चुनौतियों का सामना करना पड़ जाता है, जो ओथेलो के बजाय “ओमकारा” का प्रदर्शन करने के लिए दृढ़ हैं। जैसे-जैसे उनके अलग-अलग दृष्टिकोणों पर संघर्ष होता है, ओथेलो का नाटक उनके जीवन में सामने आता है जहां दर्शक ईर्ष्या, जलन और राजनीति के बहाने अपने हास्य व्यंग्य के रस का परिपाक प्राप्त करता है।
यह नाटक इस बात की भी पड़ताल करता नजर आता है कि क्या नाटक सफल होता है? अथवा फिल्म। और कैसे अंकुर त्रासदी और मनोरंजन के बीच संतुलन बनाए रखते हुए ग्रामीणों को अभिनय, नाटक और जीवन के बारे में सिखाते हैं। इस नाटक में बतौर कलाकार इश्तियाक खान ने भोला, सदानंद पाटिल ने ज्ञानेन्द्र राज अंकुर, विश्वनाथ चटर्जी ने चंदन, वैभव सिंह ने भैयाजी, अभिनय शर्मा ने रईस, राहुल तोमर ने मंगलू का किरदार निभाया। अन्य कलाकारों में आलोक गाड़ेकर, अभिकल्प गाड़ेकर, अनिल जाटव, महेंद्र श्रीवास, अनुप इंगले, शीबा अज़हर सम्राट, साहिबा विज वैद्य, कामरान खान शामिल रहे। आदित्य निर्मलकर ने प्रकाश व संतोष डांगी ने संगीत संयोजन संभाला।
बात करें रंगमंचीय विधान की तो इस नाटक के मंचन में बिना कोई अधिक तामझाम और बिना कोई अत्याधिक प्रॉप्स के सहारे भी इसे खूबसूरती से मंचित किया गया। प्रेक्षागृह में लाइट्स और रंग विधान पूरी तरह से सटीक नजर आया। जब जहां जिस तरह से शैडो पड़नी चाहिए थी हूबहू वैसा ही दिखाई पड़ा। अभिनेताओं के अभिनय से लेकर बेहद सीमित संसाधनों के बावजूद यह नाटक जिस पर “द्वंद्व” नाम से इश्तियाक खान फिल्म भी बना चुके हैं, अपने आप में परिपूर्ण नजर आता है। हां कुछ जगहों पर हल्की सी चूकें भी दिखाई पड़ीं। हो सकता है वह बतौर निर्देशक इश्तियाक का कुछ अलग अंदाज रहा होगा। किंतु बतौर दर्शक उन्हें यह भी देखना होगा कि हर कलाकार जब अपना संवाद ना भी बोल रहा हो तब कई देर यूं मूक दर्शक बना न दिखाई पड़े। अपने कसे हुए लेखन, निर्देशन के चलते इश्तियाक खान ने अपने और अपनी टीम के लिए जयपुर के जवाहर कला केन्द्र में खूब तालियां और सराहना बटोरीं।